ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 3
ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा
देवता - आदित्याः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त आ॑दि॒त्यास॑ उ॒रवो॑ गभी॒रा अद॑ब्धासो॒ दिप्स॑न्तो भूर्य॒क्षाः। अ॒न्तः प॑श्यन्ति वृजि॒नोत सा॒धु सर्वं॒ राज॑भ्यः पर॒मा चि॒दन्ति॑॥
स्वर सहित पद पाठते । आ॒दि॒त्यासः॑ । उ॒रवः॑ । ग॒भी॒राः । अद॑ब्धासः । दिप्स॑न्तः । भू॒रि॒ऽअ॒क्षाः । अ॒न्तरिति॑ । प॒श्य॒न्ति॒ । वृ॒जि॒ना । उ॒त । सा॒धु । सर्व॑म् । राज॑ऽभ्यः । प॒र॒मा । चि॒त् । अन्ति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त आदित्यास उरवो गभीरा अदब्धासो दिप्सन्तो भूर्यक्षाः। अन्तः पश्यन्ति वृजिनोत साधु सर्वं राजभ्यः परमा चिदन्ति॥
स्वर रहित पद पाठते। आदित्यासः। उरवः। गभीराः। अदब्धासः। दिप्सन्तः। भूरिऽअक्षाः। अन्तरिति। पश्यन्ति। वृजिना। उत। साधु। सर्वम्। राजऽभ्यः। परमा। चित्। अन्ति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
ये गभीरा उरवोऽदब्धासो भूर्यक्षा आदित्यासः सन्ति ते परमा चरन्ति। उत ये वृजिना कुर्वन्तो दिप्सन्तः स्युस्ताँश्चिदन्तरन्ति पश्यन्ति। ये च राजभ्यः सर्वं साधु कुर्वन्ति ते परीक्षां कर्त्तुं शक्नुवन्ति ॥३॥
पदार्थः
(ते) पूर्वोक्ताः (आदित्यासः) पूर्णविद्याः कृताष्टाचत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्याः (उरवः) बहुप्रज्ञाः (गभीराः) शीलवन्तः (अदब्धासः) अहिंसनीयाः (दिप्सन्तः) दम्भितुमिच्छवः (भूर्यक्षाः) भूरि बहून्यक्षीणि दर्शनानि येषान्ते (अन्तः) आभ्यन्तरे (पश्यन्ति) प्रेक्षन्ते (वृजिना) वृजिनानि वर्जयितव्यानि पापानि (उत) अपि (साधु) श्रेष्ठम् (सर्वम्) (राजभ्यः) (परमा) प्रकृष्टानि कर्माणि (चित्) (अन्ति) अन्तिके। अत्र परस्य लोपः ॥३॥
भावार्थः
परीक्षकाः सज्जनान् दुष्टांश्च सम्यक् परीक्ष्य सुशीलानां सत्कारं दुश्चरित्राणामसत्कारं विधाय विद्योन्नतिं सततं कुर्युः ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जो (गभीराः) गम्भीर स्वभावयुक्त (उरवः) तीव्रबुद्धिवाले (अदब्धासः) अहिंसनीय (भूर्यक्षाः) बहुत प्रकार से देखने जाननेवाले (आदित्यासः) अड़तालीस वर्ष के ब्रह्मचर्य को सेवके पूर्ण विद्यावाले विद्वान् हैं (ते) वे (परमा) उत्तम कर्मों का आचरण करते जो (वृजिना) पाप करते हुए (दिप्सन्तः) दम्भ की इच्छा करनेवाले हों उनको (चित्) ही (अन्तः) अन्तःकरण में (अन्ति) निकट से (पश्यन्ति) देख लेते हैं अर्थात् उनसे मिलते नहीं और जो (राजभ्यः) राजपुरुषों के लिये (सर्वम्) सब (साधु) श्रेष्ठ काम करते हैं, वे परीक्षा कर सकते हैं ॥३॥
भावार्थ
परीक्षा करनेवाले जन श्रेष्ठ और दुष्ट पुरुषों की उत्तम प्रकार परीक्षा करते उत्तम स्वभाववालों के सत्कार और कुत्सित चरित्रवालों के अनादर को करके विद्या की उन्नति निरन्तर करें ॥३॥
विषय
देव-लक्षण
पदार्थ
१. (ते) = वे (आदित्यासः) = देव (उरवः) = विशाल होते हैं- सम्पूर्ण वसुधा को कुटुम्ब मानकर चलते हैं। (गभीराः) = गम्भीरवृत्ति के होते हैं- उथले स्वभाव के नहीं । झट तैश में नहीं आ जाते । (अदब्धासः) = कभी दबते नहीं-अहिंसित होते हैं । (दिप्सन्तः) = काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं के हिंसन की कामनावाले, (भूर्यक्षा:) = [भूरि अक्षि] दूरदृष्टि व बहुत तेजवाले होते हैं [बहुतेजस: = सा०]। २. ये (अन्तः) = अपने अन्दर (वृजिना) = पापों को (उत) = और (साधु) = जो उत्तमता है, उसको पश्यन्ति देखते हैं। पाप दूर करने के लिए यत्नशील होते हैं। औरों के ही पाप-पुण्यों को नहीं देखते रहते। ३. इन (राजभ्यः) = देदीप्यमान ज्ञानदीप्त देवों के लिए (परमाचित्) = सामान्य लोगों से दूर देश में स्थित भी ज्ञानतत्त्व निश्चय से (सर्वम् अन्ति) = सब समीप ही समीप होते हैं । सामान्य लोग जिन तत्त्वों को नहीं देख रहे होते, वे उन्हें साक्षात् करनेवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ– 'देव' विशालहृदय- गम्भीर-अहिंसित व कामादि का हिंसन करनेवाले तेजस्वी होते हैं। वे अपने पाप-पुण्यों को देखते हैं। उत्कृष्ट ज्ञानतत्त्वों का ये साक्षात्कार करनेवाले होते हैं ।
विषय
विद्वान् राष्ट्र के नाना शासक जनों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(ते) वे ( आदित्या सः ) सूर्य की किरणों या स्वतः सूर्य के समान प्रकाशमान, प्रजाओं से जलों के समान करों को लेने वाले तेजस्वी, ( उरवः ) महान् सामर्थ्य वाले, ( गभीराः ) गम्भीर स्वभाव वाले, ( अदब्धासः ) अखण्ड शासन करने वाले, शत्रुओं से न मारे जाने वाले और स्वयं ( दिप्सन्तः ) दुष्टों को दण्ड देने वाले, ( भूरिअक्षाः ) बहुत से दूतादि रूप चक्षुओं वाले, वा बहुत से अध्यक्षों के स्वामी राजा और ४८ वर्ष के ब्रह्मचारी, विद्यावान् पुरुष (वृजिना) पापों और ( साधु ) सत् साधु कर्मों को (अन्तः) अपने भीतर ही (पश्यन्ति) देख लेते हैं, उन ( राजभ्यः ) स्वयं प्रकाशमान तेजस्वी पुरुषों के लिये ( परमा चित् ) उत्तम कर्म, परम, दूरस्थ बातें तथा सर्वोत्तम कर्त्तव्य भी ( सर्वं ) सब (अन्ति चित्) समीप के समान ही होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा ऋषिः॥ आदित्यो देवता॥ छन्दः- १,३, ६,१३,१४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ४, ५, ८, १२, १७ त्रिष्टुप् । ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् पङ्क्तिः। ९, १० स्वराट् पङ्क्तिः॥ सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
परीक्षकांनी श्रेष्ठ व दुष्ट पुरुषांची उत्तम प्रकारे परीक्षा करून सुस्वभावी माणसांचा सत्कार व दुश्चरित्र असलेल्या माणसांचा अनादर करून निरंतर विद्येची वृद्धी करावी. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The Adityas, children of light, are brilliant, profound, irrepressible. They brook no nonsense, no violence, no bullying or black-mail. With many many eyes all round they see within and without all that is good, or evil that must be rejected. Supremely good are they and their actions for the shining rulers for whom they stand ever at the closest.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The areas of teachers and students are pointed out.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Only those teachers are Gurus who perform nice acts, and are serious by nature, genius, kind-hearted, good visualizers and have completed the term of ADITYA Brahmacharaya (celibacy) up to the age of 48 years. The sinners, arrogant are closely watched and observed by them. They are always good to State officials.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The criterion of noble and wicked persons (teachers) is laid here. The noble ones while earn respect, the sinners are subjected to disrespect. We should promote our learning from the first category.
Foot Notes
(आदित्यासः) पूर्ण विद्याः कृताष्टाचत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्या: = Those who have completed the term of Brahmacharya up to the age of 48 years. (दिप्सन्तः)दम्भितुमिच्छवः = Arrogant. (भूर्यक्षा:) भूरिबहून्यक्षीणि दर्शनानि येषान्ते = Thorough visualizers. ( वृजिना ) वृजिनानि वर्जयितप्यानि पापानि = The taboos are condemnable act. (परमा) प्रकृष्टानि कर्माणि = Nice acts.
बंगाली (1)
পদার্থ
ইন্দ্রো রাজা জগতশ্চর্যণীনামধি ক্ষমি বিষুরূপং যদস্তি।
ততো দদাতি দাশুষে বসূনি চোদদ্রাধ উপস্তুতশ্চিদর্বাক্।।৩৯।।
(ঋগ্বেদ ৭।২৭।৩)
পদার্থঃ (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (জগতঃ) সমগ্র জগতের এবং (চর্যণীনাম্) মানুষের (ক্ষমি অধি) পৃথিবীতে (যৎ) যে (বি-সু-রূপম্) অনেক প্রকারের সুন্দর পদার্থ (অস্তি) রয়েছে, তার (রাজা) প্রকাশক ও স্বামী। (ততঃ) সেই পদার্থ সমূহ হতে (দাশুষে) দানশীল মনুষ্যকে (বসূনি) অনেক প্রকারের সম্পদ (দদাতি) দিয়ে থাকেন, (চিৎ) যদি [সেই মানুষ] (রাধঃ) ঐশ্বর্যের (চোদৎ) প্রাপ্তির জন্য (উপস্তুতঃ) স্তুতির মাধ্যমে (অর্বাক্) তাঁর কৃপা লাভ করে।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ এই যে স্থাবর-জঙ্গম সমগ্র জগত, এসবের প্রকাশক ও স্বামী হলেন পরমেশ্বর। তিনি সকলকে গুণ ও কর্মানুসারে অনেক প্রকারের ধনাদি সুন্দর পদার্থ প্রদান করে থাকেন। সকল মনুষ্যের কর্তব্য সেই পরমাত্মার বেদানুকূল স্তুুতি প্রার্থনা করা। এজন্য অনেক সুন্দর পদার্থের প্রাপ্তির জন্যও আমাদের সেই জগৎপতির প্রার্থনাদি করা কর্তব্য।।৩৯।।
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