ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 6
ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा
देवता - आदित्याः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सु॒गो हि वो॑ अर्यमन्मित्र॒ पन्था॑ अनृक्ष॒रो व॑रुण सा॒धुरस्ति॑। तेना॑दित्या॒ अधि॑ वोचता नो॒ यच्छ॑ता नो दुष्परि॒हन्तु॒ शर्म॑॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽगः । हि । वः॒ । अ॒र्य॒म॒न् । मि॒त्र॒ । पन्थाः॑ । अ॒नृ॒क्ष॒रः । व॒रु॒ण॒ । सा॒धुः । अस्ति॑ । तेन॑ । आ॒दि॒त्याः॒ । अधि॑ । वो॒च॒त॒ । नः॒ । यच्छ॑त । नः॒ । दुः॒ऽप॒रि॒हन्तु॑ । शर्म॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुगो हि वो अर्यमन्मित्र पन्था अनृक्षरो वरुण साधुरस्ति। तेनादित्या अधि वोचता नो यच्छता नो दुष्परिहन्तु शर्म॥
स्वर रहित पद पाठसुऽगः। हि। वः। अर्यमन्। मित्र। पन्थाः। अनृक्षरः। वरुण। साधुः। अस्ति। तेन। आदित्याः। अधि। वोचत। नः। यच्छत। नः। दुःऽपरिहन्तु। शर्म॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वत्सङ्गप्रिया जनाः किं कुर्य्युरित्याह।
अन्वयः
हे आदित्या हे अर्यमन् हे मित्र हे वरुण यो वोऽनृक्षरः सुगः साधुः पन्था अस्ति तेन हि नोऽधि वोचत यदिदं दुष्परिहन्तु शर्म तन्नो यच्छत ॥६॥
पदार्थः
(सुग:) सुष्ठु गच्छन्ति यस्मिन् सः (हि) किल (वः) युष्माकम् (अर्यमन्) श्रेष्ठसत्कर्त्तः (मित्र) सखे (पन्थाः) (अनृक्षरः) निष्कण्टकः (वरुण) श्रेष्ठ (साधुः) साध्नुवन्ति धर्मं यस्मिन् सः (अस्ति) (तेन) (आदित्याः) विद्वांसः (अधि) (वोचत) प्रवदत। अत्र संहितायामिति दीर्घः (नः) अस्मभ्यम् (यच्छत) ददत (नः) (दुष्परिहन्तु) दुःखेन परिहननं यस्य तद्विद्याद्यभ्यासार्थम् (शर्म) गृहम् ॥६॥
भावार्थः
मनुष्यैर्धार्मिकाणां विदुषां स्वभावं गृहीत्वा वेदोक्ते सत्ये मार्गे चलनीयं येन सत्यशास्त्राध्ययनाऽध्यापनवृद्धिस्स्यात्तदेव कर्म सदा सेवनीयम् ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वानों के संग में प्रीति रखनेवाले मनुष्य लोग क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (आदित्या: विद्वान् लोगो हे (अर्यमन्) श्रेष्ठ सत्कार युक्त हे (मित्र) मित्र हे (वरुण) प्रतिष्ठित सज्जन पुरुष जो (वः) तुम लोगों का (अनृक्षरः) कण्टकादि रहित (सुगः) जिसमें निर्विघ्न चल सकें (साधुः) जिसमें धर्म को सिद्ध करते ऐसा (पन्थाः) मार्ग (अस्ति) है (तेन, हि) उसी मार्ग से चलने के लिये (नः) हमको (अधि,वोचत) अधिक कर उपदेश करो और जो यह (दुष्परिहन्तु) बड़ी कठिनता से टूटे-फूटे ऐसे विद्याभ्यासादि के लिये बना हुआ (शर्म) घर है वह (नः) हमारे लिये (यच्छत) देओ ॥६॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि धर्मात्मा विद्वानों के स्वभाव को ग्रहण कर वेदोक्त सत्य मार्ग में चलें, जिससे सत्यशास्त्र के पढ़ने-पढ़ाने की वृद्धि होवे, वही कर्म सदा सेवने योग्य है ॥६॥
विषय
सुगम मार्ग
पदार्थ
१. हे (अर्यमन्) = काम-क्रोध-लोभ का नियमन करनेवाले ! (वः पन्थाः) = आपका मार्ग हि निश्चय से (सुगः) = सुखेन गन्तव्य है। उस मार्ग में कुटिलता नहीं-भटकने का खतरा नहीं । हे (मित्र) = स्नेह की देवते! तेरा मार्ग (अनृक्षरः) = [ऋक्षर = कण्टक] कण्टकरहित है अथवा [अ-नृ-क्षर] मनुष्यों को विनाश न करनेवाला है । हे (वरुण) = पाप व द्वेष का निवारण करनेवाले ! आपका मार्ग (साधुः अस्ति) = सदा कार्यों को सिद्ध करनेवाला है। २. अर्यमा, मित्र, और वरुण का मार्ग सुग, अनृक्षर व साधु है, अतः (तेन) = उस कारण से हे (आदित्या:) = अर्यमा आदि देवो! (नः) = हमारे लिए (अधिवोचत) = आधिक्येन इस मार्ग का उपदेश दीजिए और (नः) = हमारे लिए (दुष्परिहन्तु) = सब बुराइयों का परिहनन [हिंसन] करनेवाले (शर्म) = सुख को (यच्छता) = दीजिए। हम अर्यमा का आराधन करते हुए अपने जीवन के मार्ग को सुग बनावें, मित्र का आराधन हमारे मार्ग को अनृक्षर बनाए, वरुण के आराधन से हमारा मार्ग साधु हो। इस मार्ग पर चलते हुए हम उस सुख को प्राप्त करें, जिसमें कि किसी अशुभ का समावेश न हो। हमारा सुख भी शुद्ध व पवित्र हो । मलिनवस्तुओं में हम आनन्द लेनेवाले न हों।
भावार्थ
भावार्थ - हमारा मार्ग सुख से गन्तव्य, कण्टक रहित व उत्तम हो । मेरा सुख सब अशुभों का हनन करनेवाला हो ।
विषय
विद्वान् राष्ट्र के नाना शासक जनों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अर्यमन् ) श्रेष्ठ, स्वामी जनों और वैश्यों के मान करने वाले, उनके धनादि को जानने वाले, शत्रुओं के नियामक न्याय कारिन् ! हे (वरुण) सर्वश्रेष्ठ, दुष्टों के वारण करने हारे ! हे (आदित्याः) उत्तम ज्ञानवान् तेजस्वी विद्वान् पुरुषो ! और कर आदि लेने वाले राज गणो ! ( वः ) आप लोगों का ( पन्थाः ) मार्ग ( सुगः ) सुख से जाने योग्य, ( अनृक्षरः ) कण्टकरहित, निर्विघ्न, ( साधुः ) उत्तम, दूर तक पहुंचाने और कार्य साधने वाला ( अस्ति ) है । ( तेन ) उसी मार्ग से ( नः ) हमें ( अधि वोचत ) अध्यक्ष रूप से आज्ञा दो । ( नः ) हमें ( दुष्परिहन्तु ) कभी नाश न होने वाला ( शर्म ) सुख ( यच्छत ) प्रदान करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा ऋषिः॥ अदित्यो देवता॥ छन्दः- १,३, ६,१३,१४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ४, ५, ८, १२, १७ त्रिष्टुप् । ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् पङ्क्तिः। ९, १० स्वराट् पङ्क्तिः॥ सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी धर्मात्मा विद्वानाच्या स्वभावाचा स्वीकार करून वेदोक्त सत्य मार्गाने चालावे. त्यामुळे सत्यशास्त्राचे अध्ययन- अध्यापन वाढेल. हेच कर्म स्वीकारण्यायोग्य आहे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Aryaman, lord of noble action, Mitra, friend and companion, simple and straight is your path, easy to tread. O Varuna, lord of our choice and best teacher, thornless and good is the path you show. Adityas, lords of enlightenment, teach us to follow and go forward by that path. And give us a home which is difficult to disrupt.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of close associates with the learned persons are indicated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! you are noble revered, friendly and distinguished. Lead us on righteous, easy and straight (having no hurdles ) path. You guide us for this. Moreover, provide us an abode, which is strongly built.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
People should emulate the nature of truthful and follow the right path, so that the circle of study and teaching goes unhindered.
Foot Notes
(सुगः) सुष्टु गछन्ति यस्मिन सः = Easy, without any hurdles. (अर्यमन्) श्रेष्ठसत्कर्त्तः = O performer of the noble deeds. (अनुक्षर:) निष्कण्टकः = Not thorny, Easy (वोकत ) प्रवदत = Tell or guide us. (दुष्परिहन्तुः) दु:खेन परिहननं यस्य तद्विद्याद्यभ्यासार्थम् = Strong, indestructible. (शर्म) गृहम् = The abode.
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