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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 16
    ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा देवता - आदित्याः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    या वो॑ मा॒या अ॑भि॒द्रुहे॑ यजत्राः॒ पाशा॑ आदित्या रि॒पवे॒ विचृ॑त्ताः। अ॒श्वीव॒ ताँ अति॑ येषं॒ रथे॒नारि॑ष्टा उ॒रावा शर्म॑न्त्स्याम॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याः । वः॒ । मा॒याः । अ॒भि॒ऽद्रुहे॑ । यजत्राः॑ । पाशाः॑ । आ॒दि॒त्याः॒ । रि॒पवे॑ । विऽचृ॑त्ताः । अ॒श्वीऽइ॑व । तान् । अति॑ । ये॒ष॒म् । रथे॑न । अरि॑ष्टाः । उ॒रौ । आ । शर्म॑न् । स्या॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या वो माया अभिद्रुहे यजत्राः पाशा आदित्या रिपवे विचृत्ताः। अश्वीव ताँ अति येषं रथेनारिष्टा उरावा शर्मन्त्स्याम॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याः। वः। मायाः। अभिऽद्रुहे। यजत्राः। पाशाः। आदित्याः। रिपवे। विऽचृत्ताः। अश्वीऽइव। तान्। अति। येषम्। रथेन। अरिष्टाः। उरौ। आ। शर्मन्। स्याम॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 16
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे यजत्रा आदित्या या वो विचृत्ता अरिष्टा माया अभिद्रुहे रिपवे पाशा इव भवन्ति तानहमतिप्राप्तुमश्वीवायेषं रथेनोरौ शर्मन् सुखिनः स्याम ॥१६॥

    पदार्थः

    (याः) (वः) युष्माकम् (मायाः) प्रज्ञाः (अभिद्रुहे) योऽभिद्रुह्यति तस्मै (यजत्राः) सङ्गतिकरणशीलाः (पाशाः) बन्धनानि (आदित्याः) सूर्यवद्विद्याप्रकाशाः (रिपवे) शत्रवे (विचृत्ताः) विस्तृताः (अश्वीव) यथा वडवा (तान्) (अति) अन्तिके (येषम्) प्रयतेयम् (रथेन) (अरिष्टाः) अहिंसनीयाः (उरौ) बहूनि (आ) समन्तात् (शर्मन्) गृहे (स्याम) भवेम ॥१६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये प्राज्ञा द्रोहं विहायाजातशत्रवः स्युस्ते दुष्टान् पाशैर्बध्नीयुस्तद्रक्षया सर्वे सुखिनः स्युः ॥१६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (यजत्राः) सत्संग करने के स्वभाववाले (आदित्याः) सूर्य के तुल्य विद्या से प्रकाशमान विद्वानो (याः) जो (वः) आप लोगों की (विचृत्ताः) विस्तृत (अरिष्टाः) किसी से खण्डित न होने योग्य (मायाः) बुद्धियाँ (अभिद्रुहे) सब ओर से द्रोह करनेवाले (रिपवे) शत्रु के लिये (पाशाः) फाँसी के तुल्य बाँधने वाली होती हैं (तान्) उन तुम लोगों के (अति) निकट प्राप्त होने को मैं (अश्वीव) घोड़ी के तुल्य (आ,येषम्) प्रयत्न करूँ और हम लोग (रथेन) रमण के साधन रथ से (उरौ) बड़े (शर्मन्) घर में सुखी (स्याम) होवें ॥१६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो पण्डित लोग द्रोह को छोड़ के जिनके कोई शत्रु नहीं ऐसे हों, वे दुष्टों को पाशों से बाँधे और उनकी रक्षा करके सब सुखी हों ॥१६॥

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    विषय

    न द्रोह न रिपुता

    पदार्थ

    १. हे (यजत्राः) = पूज्य (आदित्याः) = अमरो ! (याः) = जो (वः) = आपकी (माया:) = = मायाएँ (अभिद्रुहे) = औरों का द्रोह करनेवालों के लिए हैं तथा जो आपके (पाशा:) = जाल रिपवे शत्रुओं के लिए (विचृत्ता:) = ग्रथित हुए हैं मैं (तान्) = उन सब मायाओं व पाशों को (अतियेषम्) = लांघकर पार करनेवाला बनूँ—इन मायाओं व पाशों को तैर जाऊँ । उसी प्रकार तैर जाऊँ इव जैसे कि (अश्वी) = उत्तम घोड़ेवाला (रथेन) = रथ से दुर्गम मार्गों को लांघ जाता है। द्रोह करनेवाले पुरुष प्रभु की इस माया में फंस जाते हैं-वस्तुत: माया में फंसने के कारण ही वे द्रोहवृत्तिवाले हो जाते हैं। परमात्मा औरों के साथ शत्रुता से वर्तनेवालों को पाशों में जकड़ता है। हम न रिपु हों और न द्रोही ही। तभी हम माया व पाशों से बच पाएँगे। २. (अरिष्टाः) = अहिंसित होते हुए हम (उरौ आ शर्मन्) = प्रभु की विशाल शरण में (स्याम) = हों। हम द्रोह व शत्रुता के भावों से ऊपर उठकर विशाल सुखों को प्राप्त करें।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम द्रोह व शत्रुता से ऊपर उठें- तभी माया के चक्कर से बच पाएँगे और प्रभु के पाशों में जकड़े न जाएँगे ।

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( आदित्याः ) तेजस्वी, ज्ञानवन्, हे ( यजत्राः ) पूजनीय सत्संग योग्य पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों की ( याः ) जो (मायाः) अद्भुत बुद्धियें और बुद्धियों द्वारा किये गये कार्य हैं जो ( अभिद्रुहे ) द्रोह बुद्धि वाले ( रिपवे ) पापी शत्रु के लिये ( विचृत्ताः ) गंठे हुए ( पाशाः ) पाशों के समान हैं मैं ( तान् ) उनको ( अश्वी इव रथेन ) अश्व के स्वामी के समान रथ से ( अति येषम् ) पार कर जाऊँ । हम लोग ( अरिष्टाः ) कुशलपूर्वक ( उरौ ) बड़े ( शर्मन् ) सुखमय गृह में ( स्याम ) सदा रहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा ऋषिः॥ अदित्यो देवता॥ छन्दः- १,३, ६,१३,१४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ४, ५, ८, १२, १७ त्रिष्टुप् । ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् पङ्क्तिः। ९, १० स्वराट् पङ्क्तिः॥ सप्तदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्यांचे कोणी शत्रू नाहीत अशा पंडित लोकांनी द्वेष सोडून दुष्टांना पाशात बांधावे व त्यांचे रक्षण करून सर्वांनी सुखी व्हावे. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Adityas, powers of light and law, dedicated to yajnic advancement of life and nature, whatever your bonds of power and law, sinless and inviolable, spread across the earth, which are like chains of arrest and prisons of punishment for the lawless and the enemies of humanity, let me, I pray, cross them over with ease and pleasure by the chariot of knowledge and action like a knight of horse, so that we may live at peace in bliss on this vast earth, common home of the human family.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More State affairs are taken below.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! you keep company with the noble persons and are blessed with sun-like knowledge. Your detailed and un-contradictable discoveries (actions of the mind) may entail your rebellious enemies. In order to catch or confront them. I should rush like a mare, and then reach our abode in a chariot.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The learned people should behave with all without any grudge and catch the wicked in order to ensure security of the public.

    Foot Notes

    (अभिद्रुहे) योभिद्रुह्यति तस्मै = For those who grudge us. (येषम् ) प्रयतेयम् = I endeavor ( शर्मन्) गृहे = In the abode.

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