ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 5
ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा
देवता - आदित्याः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वि॒द्यामा॑दित्या॒ अव॑सो वो अ॒स्य यद॑र्यमन्भ॒य आ चि॑न्मयो॒भु। यु॒ष्माकं॑ मित्रावरुणा॒ प्रणी॑तौ॒ परि॒ श्वभ्रे॑व दुरि॒तानि॑ वृज्याम्॥
स्वर सहित पद पाठवि॒द्याम् । आ॒दि॒त्याः॒ । अव॑सः । वः॒ । अ॒स्य । य॒त् । अ॒र्य॒म॒न् । भ॒ये । आ । चि॒त् । म॒यः॒ऽभु । यु॒ष्माक॑म् । मि॒त्रा॒व॒रुणा॒ । प्रऽनी॑तौ । परि॑ । श्वभ्रा॑ऽइव । दुः॒ऽइ॒तानि॑ । वृ॒ज्या॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्यामादित्या अवसो वो अस्य यदर्यमन्भय आ चिन्मयोभु। युष्माकं मित्रावरुणा प्रणीतौ परि श्वभ्रेव दुरितानि वृज्याम्॥
स्वर रहित पद पाठविद्याम्। आदित्याः। अवसः। वः। अस्य। यत्। अर्यमन्। भये। आ। चित्। मयःऽभु। युष्माकम्। मित्रावरुणा। प्रऽनीतौ। परि। श्वभ्राऽइव। दुःऽइतानि। वृज्याम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे आदित्या हे अर्यमन् यद्भये सति वोऽस्यावसश्चिन्मयोभु स्यात्तदहमाविद्याम्। हे मित्रावरुणा युष्माकं प्रणीतौ श्वभ्रेव दुरितानि परिवृज्याम् ॥५॥
पदार्थः
(विद्याम्) जानीयां लभेय वा (आदित्याः) सूर्यवद्विद्याप्रकाशकाः (अवसः) रक्षणस्य (वः) युष्माकम् (अस्य) (यत्) (अर्यमन्) योऽर्यान् श्रेष्ठान् मनुष्यान् मिमीते मन्यते तत्सम्बुद्धौ (भये) (आ) (चित्) (मयोभु) भयः सुखं भवति यस्मात्तत् (युष्माकम्) (मित्रावरुणा) प्राणाऽपानाविव सुखप्रदौ (प्रणीतौ) प्रकृष्टायां नीतौ (परि) (श्वभ्रेव) गर्त्तमिव (दुरितानि) दुःखदानि पापानि (वृज्याम्) त्यजेयम् ॥५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा विद्वांसोऽखिलस्य प्राणिसमुदायस्य भयं विनाश्य सुखं सम्भाव्य पापानि वर्जयन्ति तथा सततमनुष्ठेयम् ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (आदित्याः) सूर्य के तुल्य विद्या के प्रकाशक लोगों तथा हे (अर्यमन्) श्रेष्ठ मनुष्यों का सत्कार करनेहारे सज्जन (यत्) जो (भये) भय होने में (वः) आपको (अस्य) इस (अवसः) पालन के निमित्त (चित्) थोड़ा भी (मयोभु) सुखदायी वचन हो उसको मैं (आ,विद्याम्) प्राप्त होऊँ वा जानूँ तथा हे (मित्रावरुणा) प्राणापान के तुल्य सुखदायी विद्वानों (युष्माकम्) तुम्हारी (प्रणीतौ) उत्तम नीति में (श्वभ्रेव) पृथिवी के गढ़े के तुल्य (दुरितानि) दुःख देनेवाले पापों को (परि,वृज्याम्) परित्याग करूँ ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे विद्वान् लोग सब प्राणियों के भय का विनाश कर सुख पहुँचा के पापों को निवृत्त करते हैं, वैसा निरन्तर करें ॥५॥
विषय
पापगर्त में गिरने से बचाव
पदार्थ
१. हे (आदित्या:) = देवो! मैं (वः) = आपके (अस्य अवसः) = इस रक्षण का (विद्याम्) = लाभ करूँ [विद् लाभे]। आपके इस रक्षण को प्राप्त करनेवाला बनूँ (यत्) = जो हे (अर्यमन्) = शत्रुओं का नियमन करनेवाले ! (भये) = इस भयावह संसार में (चित्) = निश्चय से (आमयोभु) = सर्वतः कल्याण देनेवाला है। २. हे अर्यमन् ! मित्रावरुणा स्नेह की देवते! तथा निर्देषता की देवते! (युष्माकं प्रणीतौ) = आपके प्रणयन में (दुरितानि) = पापों को (परिवृज्याम्) = मैं इस प्रकार चारों ओर से छोड़नेवाला बनूँ (इव) = जैसे कि कोई भी व्यक्ति (श्वभ्रा) = गढ्ढों को छोड़कर चलता है। मैं दुरितों से ऐसे बचूँ जैसे गढ्ढों से।
भावार्थ
भावार्थ- अर्यमा मित्र और वरुण का आराधन- 'न्यायकारित्वस्नेह तथा निर्देषता' का साधन मुझे सब पापों से बचाए ।
विषय
विद्वान् राष्ट्र के नाना शासक जनों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( आदित्याः ) सूर्य के समान ज्ञान-प्रकाश करने वाले और राष्ट्र में कर आदि लेने वाले अध्यक्ष पुरुषो ! और हे ( अर्यमन् ) श्रेष्ठ पुरुषों के मान करने और दुष्टों का नियमन करने वाले न्यायकारिन् ! ( वः ) आप लोग के ( अस्य अवसः ) इस पालन और करादान का ( यत् ) जो ( चित् ) भी ( मयोभु ) सुखकारी परिणाम हो वह मैं प्रजावर्ग ( भये ) भय या संकट के अवसर पर ( विद्याम् ) अवश्य प्राप्त करूं । रक्षक राजा आदि संकटकाल में प्रजा की रक्षा विशेष रूप से करें । हे ( मित्रावरुणा ) प्रजा को मरण से बचाने और दुष्टों के निवारण करने वाले अध्यक्षो ! ( युष्माकं ) तुम्हारे ( प्रणीतौ ) उत्तम न्याय-शासन में ( दुरितानि ) सर्व दुराचारों और दुःखदायी संकटों को ( श्वभ्रा इव ) गढ़ों के समान ( परिवृज्याम् ) दूर से ही त्याग दूं । उत्तम शासन में, भय के कालों को भी प्रजा उत्साह से गढ़ों के समान लांघ लेती है । इति षष्ठोः वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा ऋषिः॥ आदित्यो देवता॥ छन्दः- १,३, ६,१३,१४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ४, ५, ८, १२, १७ त्रिष्टुप् । ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् पङ्क्तिः। ९, १० स्वराट् पङ्क्तिः॥ सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक सर्व प्राण्यांच्या भयाचा नाश करून सुख देतात व पाप निवृत्त करतात, तसे माणसांनी निरंतर करावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Adityas, powers of light and knowledge, Aryaman, lord of justice and dispensation, if ever I face a state of insecurity, then, in that state of fear, I pray, I may have the gift of this divine protection of yours, of this divine peace and comfort. O Mitra and Varuna, friends of humanity, dear and just, I pray, that under the protection of your ethics and guidance I may give up all evils and avoid them as dangerous pitfalls on the paths of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
All people should emulate the life of learned persons.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person! you throw the light of learning among the mankind like sun. You always respect the noble persons and treat them with pleasant language. I want to acquire that quality. Like the vital winds of the body (PRAANA, APAANA), I desire to give up all my sins in the forlorn time, because of your nice teachings.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All the persons should emulate from the life of those learned persons who spread happiness among the mankind and remove their fears.
Foot Notes
(अर्यमन्) योऽर्यान् श्रेष्ठान् मनुष्यान् मिमीते मन्यते, तत्सम्बुद्धौ। = Addressed to one who accepts and recognizes the importance of noble persons. (मित्रावरुणा) प्राणापाना विवसुखप्रदौ । = Two vital winds of the body which keep it in balance. (दुरितानि) दुःखदानि पापानि। = The sins which bring agonies.
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