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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 60/ मन्त्र 11
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    य इ॒द्ध आ॒विवा॑सति सु॒म्नमिन्द्र॑स्य॒ मर्त्यः॑। द्यु॒म्नाय॑ सु॒तरा॑ अ॒पः ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । इ॒द्धे । आ॒ऽविवा॑सति । सु॒म्नम् । इन्द्र॑स्य । मर्त्यः॑ । द्यु॒म्नाय॑ । सु॒ऽतराः॑ । अ॒पः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य इद्ध आविवासति सुम्नमिन्द्रस्य मर्त्यः। द्युम्नाय सुतरा अपः ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। इद्धे। आऽविवासति। सुम्नम्। इन्द्रस्य। मर्त्यः। द्युम्नाय। सुऽतराः। अपः ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 60; मन्त्र » 11
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः कस्मै किं सेवितव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    यो मर्त्य इद्ध इन्द्रस्य द्युम्नाय सुतरा अपः सुम्नं चाऽऽविवासति स भाग्यवाञ्जायते ॥११॥

    पदार्थः

    (यः) यजमानः (इद्धे) प्रदीप्ते (आविवासति) समन्तात्सेवते (सुम्नम्) सुखम् (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यस्य (मर्त्यः) मनुष्यः (द्युम्नाय) यशसे धनाय वा (सुतराः) सुष्ठु तरन्ति यासु ताः (अपः) जलानि ॥११॥

    भावार्थः

    मनुष्या यथेद्धे पावके सुगन्ध्यादि हविर्हुत्वा सिद्धकामा भवन्ति तथैव ये यशसा धर्म्मकीर्त्यै स्वर्ग्याय च प्रयतन्ते ते सुतरां श्रीमन्तो जायते ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को किसके लिये क्या सेवन करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (यः) जो (मर्त्यः) मनुष्य (इद्धे) प्रदीप्त व्यवहार में (इन्द्रस्य) ऐश्वर्य के (द्युम्नाय) यश वा धन के लिये (सुतराः) सुन्दरता से जिनमें तैरें उन (अपः) जलों को और (सुम्नम्) सुख को (आविवासति) सब ओर से सेवता है, वह भाग्यवान् होता है ॥११॥

    भावार्थ

    मनुष्य जैसे प्रदीप्त अग्नि में सुगन्ध्यादि पदार्थों की हवि होमकर सिद्धकाम होते हैं, वैसे जो यश से धर्मकीर्त्ति वा स्वर्ग के लिये प्रयत्न करते हैं, वे निरन्तर श्रीमान् होते हैं ॥११॥

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( मर्त्यः ) मनुष्य ( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्यवान् राजा वा स्वामी के ( द्युम्नाय ) तेजोवृद्धि के लिये ( सुतराः अपः ) सुखप्रद जल और ( सुम्नम् ) सुखकारी अन्न ( इद्धे ) उसके अति तेजस्वी होने पर ( आ विवासति ) आदरपूर्वक देता है और उसकी सेवा करता है वह स्वयं भी ( सुम्नम् ) सुख और ( सुतराः अपः ) सुखजनक जलों को प्राप्त करता है । (२) ( यः ) जो मनुष्य ( इन्द्रस्य) विद्युत् के ( सुम्नम् ) सुखकारी ऐश्वर्य को ( इद्धे ) उसके अति प्रदीप्त तेज के बल पर आ विवासति ) आविष्कार करना चाहता है वह (द्युम्नाय ) ऐश्वर्य या अति तेज के लिये भी ( सु-तराः अपः ) खूब वेग से जाने वाले जलों को प्राप्त करे और उससे विद्युत् प्राप्त करे । (३) जो शिष्य ( इन्द्रस्य ) ज्ञानप्रद गुरु की सेवा करता है ( द्युम्नाय ) यश के लिये सुख से पार तराने वाले कर्मों वा ज्ञान को प्राप्त करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्राग्नी देवते ।। छन्दः - १, ३ निचृत्त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७ विराड् गायत्री । ५, ९ , ११ निचृद्गायत्री । १०,१२ गायत्री । १३ स्वराट् पंक्ति: १४ निचृदनुष्टुप् । १५ विराडनुष्टुप् ।। पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    द्युम्नाय

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो (मर्त्यः) = मनुष्य (इत् ह) निश्चय से (इन्द्रस्य) = उस सर्वशक्तिमान् प्रभु के (सुम्नं आविवासति) = [सुम्न-protection] रक्षण का पूजन करता है, वह (द्युम्नाय) = ज्ञान-ज्योति के लिये होता है। प्रभु की आराधना करता हुआ जो भी प्रभु के रक्षण को प्राप्त करता है, वह ज्योतिर्मय जीवनवाला होता है। [२] इस ज्योति से वह (अपः) = रेतः कणों को (सुतराः) = सब वासनाओं को तैर जानेवाला करता है। शरीर में सुरक्षित सोम उसके लिये सुतर होते हैं, सब रोगादि से उसे पार उतारनेवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ– सर्वशक्तिमान् प्रभु का आराधन हमें ज्ञान ज्योति को प्राप्त कराता है और उन सोमकणों को प्राप्त कराता है जो हमें सब रोगों व वासनाओं को तैरने के योग्य बनाते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसे जशी प्रदीप्त अग्नीत सुगंधी पदार्थांचे हविद्रव्य टाकून सिद्धकाम होतात तसे जे यश मिळवून कीर्ती प्राप्त करतात. धर्माने ते श्रीमंत होतात. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Whoever the mortal that honours and adores the favour and grace of Indra when the fire is burning for the sake of excellence, the waters of his life and the flow of his actions would be blest with fulfilment.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men serve and for what purpose--is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Fortunate becomes that performer of the Yajnas (philanthropic noble deeds), who for the glory of the great wealth, uses waters of the rivers that can be easily crossed over properly and bestows happiness upon others by serving them.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As men get their desires (of being healthy etc.) fulfilled by putting oblations of fragrant and invigorating articles in the well-kindled fire, so those, who desire for righteous glory and happiness, become prosperous.

    Foot Notes

    (दयुम्नाय) यशसे धनाय वा । दयुम्नम् इति धननाम (NG 2, 10) दयुम्नं द्योततेर्यशोवा अन्नवेति (NKT 5, 1, 5)। = For good Serves from all reputation or wealth. (आविवासति) समन्तात्सेवते । = sides. ( सुम्नम् ) सुखम् । सुम्नमिति सुखनाम (NG 3, 6 ) । विवासति परिचरणकर्मा (NG 3, 5 ) परिचरण-सेवा | = Happiness.

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