ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 60/ मन्त्र 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
ता हु॑वे॒ ययो॑रि॒दं प॒प्ने विश्वं॑ पु॒रा कृ॒तम्। इ॒न्द्रा॒ग्नी न म॑र्धतः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठता । हु॒वे॒ । ययोः॑ । इ॒दम् । प॒प्ने । विश्व॑म् । पु॒रा । कृ॒तम् । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । न । म॒र्ध॒तः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ता हुवे ययोरिदं पप्ने विश्वं पुरा कृतम्। इन्द्राग्नी न मर्धतः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठता। हुवे। ययोः। इदम्। पप्ने। विश्वम्। पुरा। कृतम्। इन्द्राग्नी इति। न। मर्धतः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 60; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैर्वायुविद्युतौ यथावद्विज्ञातव्यावित्याह ॥
अन्वयः
ययोरिदं विश्वं पप्ने याविन्द्राग्नी पुरा कृतमिदं विश्वं न मर्धतस्ताऽहं हुवे ॥४॥
पदार्थः
(ता) तौ (हुवे) (ययोः) (इदम्) (पप्ने) ययोः सकाशाद्व्यवहारे (विश्वम्) सर्वं जगत् (पुरा) (कृतम्) (इन्द्राग्नी) वायुविद्युतौ (न) निषेधे (मर्धतः) हिंसतः ॥४॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! याभ्यां वायुविद्युद्भ्यां सर्वं जगत् व्यवहरति यौ जगति स्थित्वा कञ्चन न हिंसतो विकृतौ सन्तौ नाशयतस्तौ मनुष्यैर्विज्ञाय यथावदुपकर्त्तव्यम् ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यों को चाहिये कि वायु और बिजुली को यथावत् जानें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
(ययोः) जिनका (इदम्) यह (विश्वम्) समस्त जगत् वा (पप्ने) जिन से प्रवृत्त हुए व्यवहार में (इन्द्राग्नी) वायु और बिजुली (पुरा) पहिले (कृतम्) किये हुए इस विश्व को (न) नहीं (मर्धतः) नष्ट करते हैं (ता) उनको मैं (हुवे) ग्रहण करता हूँ ॥४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिन वायु और बिजुली से सब जगत् व्यवहार करता है तथा जो संसार में स्थिर हो किसी को नष्ट नहीं करते हैं और विकार को प्राप्त हुए वे नष्ट करते हैं, मनुष्यों को चाहिये कि उनको जान कर यथावत् उपकार करें ॥४॥
विषय
missing
भावार्थ
( ययोः ) जिन दोनों के बल पर ( इदं विश्वम् ) यह समस्त विश्व (पुरा कृतम् ) पहले बना और अब भी (पप्रे) नियमपूर्वक व्यवहार और चलता है, मैं (ता) उन दोनों (इन्द्राग्नी) विद्युत् अग्नि वा वायु और अग्नि तत्वों का (हुवे) उपदेश करूं । वे दोनों (न मर्धतः) इस विश्व को नाश नहीं करते। इसी प्रकार राष्ट्र में जिनके बल पर संसार का व्यवहार चलता है, जो राष्ट्र को नष्ट नहीं होने देते वे तेजस्वी, ऐश्वर्यवान् पुरुष ‘इन्द्र’ और ‘अग्नि’ हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्राग्नी देवते ।। छन्दः - १, ३ निचृत्त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७ विराड् गायत्री । ५, ९ , ११ निचृद्गायत्री । १०,१२ गायत्री । १३ स्वराट् पंक्ति: १४ निचृदनुष्टुप् । १५ विराडनुष्टुप् ।। पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
स्तुति के योग्य 'इन्द्र और अग्नि'
पदार्थ
[१] जीवन के अन्दर सब कुछ बल व प्रकाश के द्वारा ही सम्पन्न होता है। मैं (ता) = उन इन्द्र और अग्नि को, बल व प्रकाश के देवों को (हुवे) = पुकारता हूँ, (ययो:) = जिनका (पुरा कृतम्) = पहले किया हुआ, जिनके द्वारा बनाया गया, (इदं विश्वम्) = यह सब पप्ने स्तुत होता है । बल व प्रकाश की सहस्थिति प्रत्येक चीज को सुन्दर बनाती है, उसी प्रकार जैसे कि 'ब्रह्म-क्षत्र' की सहस्थिति राष्ट्र को उन्नत करती है। [२] (इन्द्राग्नी) = ये बल व प्रकाश के देव (न मर्धतः) = हमारा हिंसन नहीं करते। जब हमारे जीवन में बल व प्रकाश दोनों विद्यमान होते हैं, तो जीवन सुन्दर ही सुन्दर बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- बल और प्रकाश, ब्रह्म क्षेत्र से हमें परमात्मा प्रदान करें।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! ज्या वायू व विद्युतमुळे जगातील सर्व व्यवहार चालतात व जे जगात स्थिर बनून कुणालाही नष्ट करीत नाहीत व विकार झाल्यास ते नष्ट करतात. माणसांनी ते यथायोग्य जाणावे व त्यांचा उपयोग करून घ्यावा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I invoke, admire and celebrate Indra, cosmic energy, and Agni, cosmic heat and light, both manifestations of divine vision, will and action, by whose power and operation this whole universe has evolved as of eternity. The two do not hurt, injure or destroy us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Men should know the air and electricity thoroughly—is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I praise those air and electricity on account of which, this world is going on, with all its dealings and which do not destroy the universe.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should know the exact nature and attributes of these air and electricity and derive benefit from them by which all dealings are made in the world and which do not destroy the world when used properly, but cause destruction when not used methodically.
Foot Notes
(पप्ते) ययोः सकाशाद् व्यवहारे । पन-व्यवहारे स्तुतौ च (भ्वा०) अत्र व्यवहारर्थ:। = In dealing with which (मर्धत:) हिन्सतः।मृधु-मर्दने (भ्वा.) काशकृस्तनधातु पाठे 1, 672। = Destroy.
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