ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 60/ मन्त्र 3
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ वृ॑त्रहणा वृत्र॒हभिः॒ शुष्मै॒रिन्द्र॑ या॒तं नमो॑भिरग्ने अ॒र्वाक्। यु॒वं राधो॑भि॒रक॑वेभिरि॒न्द्राग्ने॑ अ॒स्मे भ॑वतमुत्त॒मेभिः॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठआ । वृ॒त्र॒ऽह॒ना॒ । वृ॒त्र॒हऽभिः॑ । शुष्मैः॑ । इन्द्र॑ । या॒तम् । नमः॑ऽभिः । अ॒ग्ने॒ । अ॒र्वाक् । यु॒वम् । राधः॑ऽभिः । अक॑वेभिः । इ॒न्द्र॒ । अग्ने॑ । अ॒स्मे इति॑ । भ॒व॒त॒म् । उ॒त्ऽत॒मेभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वृत्रहणा वृत्रहभिः शुष्मैरिन्द्र यातं नमोभिरग्ने अर्वाक्। युवं राधोभिरकवेभिरिन्द्राग्ने अस्मे भवतमुत्तमेभिः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठआ। वृत्रऽहना। वृत्रहऽभिः। शुष्मैः। इन्द्र। यातम्। नमःऽभिः। अग्ने। अर्वाक्। युवम्। राधःऽभिः। अकवेभिः। इन्द्र। अग्ने। अस्मे इति। भवतम्। उत्ऽतमेभिः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 60; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजाजनाः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्राग्ने वायुविद्युद्वद्वर्त्तमानौ ! यथा वृत्रहणा विद्युतौ वृत्रहभिः शुष्मैर्नमोभिरर्वाग्गच्छतस्तथा युवमकवेभी राधोभिरस्माना यातम्। हे इन्द्राग्ने ! उत्तमेभिः कर्मभिरस्मे सुखकरौ भवतम् ॥३॥
पदार्थः
(आ) (वृत्रहणा) यौ वृत्रं मेघं हतस्तौ (वृत्रहभिः) यैः कर्मभिर्वृत्रं हतस्तैः (शुष्मैः) बलैः (इन्द्र) विद्युदिव राजन् (यातम्) आगच्छतम् (नमोभिः) अन्नादिभिः (अग्ने) पावक इव सभ्यजन (अर्वाक्) पश्चात् (युवम्) युवाम् (राधोभिः) धनैः (अकवेभिः) असङ्ख्यैः (इन्द्र) दुष्टविदारक (अग्ने) पापिप्रतापक (अस्मे) अस्मभ्यम् (भवतम्) (उत्तमेभिः) श्रेष्ठैः ॥३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो राजाऽस्याऽमात्याश्च वायुविद्युद्वदुपकारिणः स्युस्तेऽसङ्ख्यं धनमाप्नुयुः ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा जन कैसे हों, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) बिजुली के समान राजजन वा (अग्ने) अग्नि के समान सभ्यजन वायु और बिजुली के समान वर्त्तमान दोनों पुरुषो ! जैसे (वृत्रहणा) मेघ को हननेवाले बिजुली के दो भाग (वृत्रहभिः) उन कर्म्मों से जिन से मेघ को मारते वा (शुष्मैः) बलों से वा (नमोभिः) अन्नादि पदार्थों से (अर्वाक्) पीछे जाते हैं, वैसे (युवम्) तुम दोनों (अकवेभिः) असङ्ख्य (राधोभिः) धनों से हम लोगों को (आ, यातम्) प्राप्त होओ। हे (इन्द्र) दुष्टविदारक वा (अग्ने) पापियों को सन्तप्त करनेवाले ! (उत्तमेभिः) श्रेष्ठ कर्मों से (अस्मे) हम लोगों के लिये सुख करनेवाले (भवतम्) होओ ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा और राजमन्त्री वायु और बिजुली के समान उपकारी हों, वे असङ्ख्य धन को प्राप्त हों ॥ ५ ॥
विषय
पक्षान्तर में अग्नि-विद्युत्-विज्ञान
भावार्थ
हे ( वृत्रहणा ) विद्युत् और सूर्य के समान मेघवत् शत्रु पर आघात करने वाले ( इन्द्र अग्ने ) विद्युत् के समान तेजस्विन् ! राजन् अग्नि के तुल्य सत्यप्रकाशक विद्वन् ! सभ्यजन ! आप दोनों ( वृत्रहभिः ) दुष्टों का नाश करने वाले ( नमोभिः ) शस्त्रास्त्रों, उपायों से और (शुष्मैः) बलों सहित ( अर्वाक् आ यातम् ) हमारे पास आओ । और हे ( इन्द्र अग्ने ) दुष्ट नाशक ! पापियों को सन्ताप देने हारे जनो ! ( युवं) आप दोनों ( अकवेभिः ) अनिन्दनीय अनेकों ( उत्तमेभिः ) उत्तम २ ( राधोभिः ) धनों से ( भवतम् ) सम्पन्न होओ ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्राग्नी देवते ।। छन्दः - १, ३ निचृत्त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७ विराड् गायत्री । ५, ९ , ११ निचृद्गायत्री । १०,१२ गायत्री । १३ स्वराट् पंक्ति: १४ निचृदनुष्टुप् । १५ विराडनुष्टुप् ।। पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
शुष्म-राधस्
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = सब बल के कर्मों को करनेवाले, (अग्ने) = प्रकाशमय प्रभो! आप (वृत्रहणा) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को विनष्ट करनेवाले हैं। आप (नमोभिः) = नमस्कारों के द्वारा, जब हम आपके प्रति नमनवाले हों, (वृत्रहभिः) = वासना को विनष्ट करनेवाले (शुष्मैः) = बलों से अर्वाक् आयातम्-हमें आभिमुख्येन प्राप्त होइये । [२] हे (इन्द्राग्ने) = इन्द्र व अग्ने ! (युवम्) = आप दोनों (अकवेभिः) = अकुत्सित, (उत्तमेभिः) = अत्यन्त उत्कृष्ट (राधोभिः) = धनों से (अस्मे) = हमारे लिये (भवतम्) = होइये। हमें इन्द्र और अग्नि उन धनों को प्राप्त करायें जो अकुत्सित व उत्तम हैं, जो धन हमारी उन्नति का ही कारण बनते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हमें इन्द्र और अग्नि वासना विनाशक बल को तथा उत्तम धन को प्राप्त करायें ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजा व मंत्री वायू व विद्युतप्रमाणे उपकारक असतात त्यांना पुष्कळ धन प्राप्त व्हावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, thunderous ruler, Agni, enlightened teacher and citizen, both destroyers of evil and darkness, come hither to us with defensive, positive and protective forces and with ample measures of food, energy and advancement. O Indra, O Agni, both of you, pray, be ours, wholly for us all, with the best of unlimited and commendable means of success and progress.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the officers of the State be-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king and Prime Minister ! you who. are like the air and electricity, as two kinds of lightning, which strike the cloud, go with their force and food (produced by rain) afterwards, so you come to us with innumerable riches. O Indra destroyer of the sinners! and Agni purifier like the fire! be bestowers of happiness upon us with noble deeds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those kings and ministers, who are benevolent like the air and electricity can obtain unlimited wealth.
Foot Notes
(अकवेभिः) असंख्यैः । कु-शब्दे नञ् संख्यया बोधयितुम् अशक्यैः! | = Innumerable, unlimited. (नमोभि:) अन्नादीभिः । नमः इति अन्ननाम (NG 2, 7) नम: इति वज्रनाम (NG 2, 20)। = With food and M other things.
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