ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 60/ मन्त्र 14
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
आ नो॒ गव्ये॑भि॒रश्व्यै॑र्वस॒व्यै॒३॒॑रुप॑ गच्छतम्। सखा॑यौ दे॒वौ स॒ख्याय॑ शं॒भुवे॑न्द्रा॒ग्नी ता ह॑वामहे ॥१४॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । गव्ये॑भिः । अश्व्यैः॑ । व॒स॒व्यैः॑ । उप॑ । ग॒च्छ॒त॒म् । सखा॑यौ । दे॒वौ । स॒ख्याय॑ । श॒म्ऽभुवा॑ । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । ता । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो गव्येभिरश्व्यैर्वसव्यै३रुप गच्छतम्। सखायौ देवौ सख्याय शंभुवेन्द्राग्नी ता हवामहे ॥१४॥
स्वर रहित पद पाठआ। नः। गव्येभिः। अश्व्यैः। वसव्यैः। उप। गच्छतम्। सखायौ। देवौ। सख्याय। शम्ऽभुवा। इन्द्राग्नी इति। ता। हवामहे ॥१४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 60; मन्त्र » 14
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कैः सह मित्रता कार्येत्याह ॥
अन्वयः
हे अध्यापकोपदेशकविन्द्राग्नी इव वर्त्तमानौ शम्भुवा देवौ सखायौ नः सख्याय गव्येभिरश्व्यैर्वसव्यैः सह वर्त्तमानौ युवां वयं हवामहे ता युवामस्मानुपाऽऽगच्छतम् ॥१४॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (नः) अस्मान् (गव्येभिः) गोर्विकारैर्घृतादिभिः (अश्व्यैः) अश्वेषु भवैर्गुणैः (वसव्यैः) वसुषु द्रव्येषु भवैः सुखैः (उप) (गच्छतम्) (सखायौ) सुहृदौ (देवौ) विद्वांसौ (सख्याय) मित्रत्वाय (शम्भुवा) सुखंभावुकौ (इन्द्राग्नी) सूर्य्यविद्युताविव वर्त्तमानौ (ता) तौ (हवामहे) आह्वयामहे ॥१४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या विद्वन्मित्रा भूत्वा पदार्थविद्यां चिकीर्षन्ति तेऽवश्यं विज्ञानं प्राप्नुवन्ति ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को किन के साथ मित्रता करनी चाहिये, इस विषयको कहते हैं ॥
पदार्थ
हे अध्यापक और उपदेशको (इन्द्राग्नी) सूर्य और बिजुली के समान वर्त्तमान वा (शम्भुवा) सुख की भावना करानेवाले (देवौ) विद्वान् (सखायौ) मित्र (नः) हम लोगों को (सख्याय) मित्रता के लिये (गव्येभिः) गो घृत आदि पदार्थ (अश्व्यैः) अश्वादिकों में हुए गुणों और (वसव्यैः) धनादिकों में हुए सुखों के साथ वर्त्तमान तुम दोनों को हम लागे (हवामहे) बुलाते हैं (ता) वे तुम दोनों हम लोगों के (उप, आ, गच्छतम्) समीप आओ ॥१४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य विद्वानों के मित्र होकर पदार्थविद्या सिद्ध करने की इच्छा करते हैं, वे अवश्य विज्ञान को प्राप्त होते हैं ॥१४॥
विषय
missing
भावार्थ
हे (इन्द्राग्नी) सूर्य, विद्युत् या मेघ, विद्युत् के समान परस्पर वर्त्तने वाले स्त्री पुरुषो ! आप लोग ( नः ) हमें (गव्येभिः ) गौ, पशु, से प्राप्त दुग्ध आदि पदार्थों, वाणी के ज्ञानों और भूमि से प्राप्त अन्नों सहित और ( अश्व्यैः ) अश्व योग्य रथों और ( वसव्यैः ) धनों से प्राप्त होने योग्य सुखों एवं बसे हुए जनों के हितकारी साधनों सहित ( उपगच्छतम् ) प्राप्त होओ। आप दोनों (सखायौ ) समान ख्याति वा नाम, प्रसिद्धि वाले, परस्पर मित्र, (देवौ ) दीप्तियुक्त, सुखप्रद, और (सख्याय) मित्रता की वृद्धि के लिये ( शम्भुवा ) शान्ति देने वाले हो । ( ता ) उन आप दोनों को हम लोग ( हवामहे ) आदरपूर्वक बुलावें । उसी प्रकार हमारे पास विद्युत् और अग्नि भूमि या किरणों के योग्य दीपकादि, वेगवान् साधनों, स्थादि और गृहादि योग्य यन्त्रों सहित प्राप्त हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्राग्नी देवते ।। छन्दः - १, ३ निचृत्त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७ विराड् गायत्री । ५, ९ , ११ निचृद्गायत्री । १०,१२ गायत्री । १३ स्वराट् पंक्ति: १४ निचृदनुष्टुप् । १५ विराडनुष्टुप् ।। पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
गव्य-अश्व्य-वसव्य
पदार्थ
[१] हे इन्द्र और अग्नि! आप (नः) = हमें (गव्येभिः) = ज्ञानेन्द्रिय समूह के साथ (अश्व्येभिः) = कर्मेन्द्रिय समूह के साथ (वसव्यैः) = निवास के लिये आवश्यक वसु समूहों के साथ (आ) = सर्वथा (उपगच्छतम्) = समीपता से प्राप्त होवो । [२] हे (इन्द्राग्नी) = बल व प्रकाश के देवो! आप (सखायौ) = एक दूसरे के सखा हैं, साथ रहनेवाले हैं। आप दोनों देवौ दिव्य हो। हमारी (सख्याय) = मित्रता के लिये होने पर (शम्भुवा) = शान्ति को उत्पन्न करनेवाले हो । (ता) = उन आप दोनों को (हवामहे) = हम पुकारते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- इन्द्र और अग्नि की आराधना बल व प्रकाश की आराधना हमें उत्तम कर्मेन्द्रियों, उत्तम ज्ञानेन्द्रियों व उत्तम वसुओं को प्राप्त कराती है। ये बल व प्रकाश हमारे जीवनों में शान्ति स्थापन का कारण बनते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे विद्वानांचे मित्र बनून पदार्थविद्या सिद्ध करण्याची इच्छा बाळगतात ती अवश्य विज्ञान प्राप्त करतात. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra and Agni, come you both to us and bring us the wealth of cows, horses and homes, lands and graces of speech and knowledge, travel, transport and communications, peace and prosperity of settled homes. Come friends, brilliant divine givers of good and well being for friendship and bonhomy. Pray come, we invoke, invite and adore you both.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
With whom should men cultivate friendship-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
○ teachers and preachers! you are benevolent and splendid like the sun and electricity, we invite you who are bestowers of happiness, highly learned and good friends for friendship along with butter and other cow-milk products, with the rapidity of the horses and happiness got from good things. Please come to us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men, who, being the friends of the enlightened persons, desire to acquire the knowledge of physics and other sciences, certainly acquire that scientific knowledge.
Foot Notes
(ग्व्येभि:) गोर्विकारैधुतादिभिः। = With butter and other cow-milk products. (अश्व्यैः) अश्वेषु भवैगुर्णैः। = With the attributes of horses like rapidity. (वसब्यै:) वसुषु द्रव्येषु भर्वः सुखै:। = With happiness got from the use of various articles. (इन्द्राग्नी) सूर्य्यविद्युताविष वर्त्तमानौ। = Teachers and preachers who are benevolent and splendid like the sun and electricity.
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