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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 60/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ता यो॑धिष्टम॒भि गा इ॑न्द्र नू॒नम॒पः स्व॑रु॒षसो॑ अग्न ऊ॒ळ्हाः। दिशः॒ स्व॑रु॒षस॑ इन्द्र चि॒त्रा अ॒पो गा अ॑ग्ने युवसे नि॒युत्वा॑न् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । यो॒धि॒ष्ट॒म् । अ॒भि । गाः । इ॒न्द्र॒ । नू॒नम् । अ॒पः । स्वः॑ । उ॒षसः॑ । अ॒ग्ने॒ । ऊ॒ळ्हाः । दिशः॑ । स्वः॑ । उ॒षसः॑ । इ॒न्द्र॒ । चि॒त्राः । अ॒पः । गाः । अ॒ग्ने॒ । यु॒व॒से॒ । नि॒युत्वा॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता योधिष्टमभि गा इन्द्र नूनमपः स्वरुषसो अग्न ऊळ्हाः। दिशः स्वरुषस इन्द्र चित्रा अपो गा अग्ने युवसे नियुत्वान् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता। योधिष्टम्। अभि। गाः। इन्द्र। नूनम्। अपः। स्वः। उषसः। अग्ने। ऊळ्हाः। दिशः। स्वः। उषसः। इन्द्र। चित्राः। अपः। गाः। अग्ने। युवसे। नियुत्वान् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 60; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्याः किं कृत्वा सुखं प्राप्नुवन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्राग्ने वा ! त्वं स्वरादित्य उषस इव गा नूनमपो युवसे याभ्यां दिश उळ्हास्ता विदित्वा युवामभि योधिष्टम्। हे इन्द्राग्ने वा नियुत्वाँस्त्वं स्वरादित्य उषस इव चित्रा अपो गा युवसे तस्मान्नियुत्वानसि ॥२॥

    पदार्थः

    (ता) तौ (योधिष्टम्) युध्येयाताम् (अभि) (गाः) पृथिवीः (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (नूनम्) निश्चयेन (अपः) कर्म (स्वः) आदित्यः (उषसः) प्रभातवेलाः (अग्ने) विद्वन् (ऊळ्हाः) प्राप्ताः (दिशः) (स्वः) आदित्यः (उषसः) (इन्द्र) दुःखविदारक (चित्राः) (अपः) उदकानि (गाः) वाचः (अग्ने) विद्वन् (युवसे) संयोजयसि (नियुत्वान्) ईश्वर इव न्यायेशः ॥२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या वायुविद्युद्वत्पराक्रमिणो भूत्वा युद्धमाचरेयुस्त उषसः सूर्य इव प्रजा न्यायेन प्रकाशयित्वा सर्वदिक्कीर्त्तयो भूत्वाऽद्भुता वाचो बलानि भूमिराज्यं च प्राप्नुवन्ति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य क्या करके सुख पाते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (अग्ने) विद्वन् वा ! आप (स्वः) आदित्य (उषसः) प्रभातवेलाओं को जैसे वैसे (गाः) पृथिवी और (नूनम्) निश्चय से (अपः) कर्म को (युवसे) संयुक्त करते हो और जिनसे (दिशः) दिशायें (ऊळ्हाः) प्राप्त हुईं (ता) उनको जानकर तुम दोनों (अभि, योधिष्टम्) सब ओर से युद्ध करो। हे (इन्द्र) दुःखविदारक=दुःख के नाश करनेवाले वा (अग्ने) विद्वान् जन (नियुत्वान्) ईश्वर के समान न्यायाधीश ! आप (स्वः) आदित्य (उषसः) प्रभातवेलाओं के समान (चित्राः) चित्रविचित्र (अपः) उदक (गाः) और वाणियों को संयुक्त करते हो, इससे ईश्वर के समान न्यायकर्त्ता हो ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य वायु और बिजुली के तुल्य पराक्रमी होकर युद्ध का आचरण करें, वे उषाकाल को जैसे सूर्य उसी के समान प्रजाओं को न्याय से प्रकाश को प्राप्त कराय कर और सर्व दिशाओं में कीर्तिवाले हो अद्भुत वाणी, बलों और भूमि के राज्य को प्राप्त होते हैं ॥२॥

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    विषय

    उनका उत्तम आदर

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे शत्रुहन्तः ! हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! विद्वन् ! अग्रणी नायक ! अथवा पूर्वोक्त स्त्रीपुरुषो ! आप दोनों ! ( ताः ) उन ( गाः अभि) भूमियों को लक्ष्य करके ( योधिष्टम् ) शत्रुओं से युद्ध करो। और ( नूनम् ) अवश्य (अपः ) आप्त प्रजाओं और (स्वः सुख कारक, वा उत्तम सन्तान उत्पन्न करने वाली ( उषसः ) कमनीय, कान्तियुक्त, प्रिय, प्रभातवेलाओं के समान सुन्दर ( ऊढ़ा: ) विवाहित पत्नियों को लक्ष्यकर उनकी मान रक्षा के लिये ( अभि योधिष्टम् ) शत्रु वा दुष्ट जनों को प्रहार करो । हे ( इन्द्र) सूर्यवत् तेजस्विन् ! तू ( दिशः ) दिशाओं ( स्वः ) सुखमय प्रकाश और ( उषसः ) उषाओं के समान सुप्रसन्न प्रजाजनों को और ( चित्राः ) अद्भुत एवं पूज्य (अपः) ) जलवत् शीतल, एवं आप्त जनों को और (गाः) भूमियों, इन्द्रिय गणों को ( युवसे ) मिला, और हे ( अग्ने ) अग्रणी नायक ! तू भी उसी प्रकार ( नियुत्वान् ) उत्तम अश्वों का स्वामी होकर ( दिशः ) आदेश मानने वाली ( स्वः ) प्रेरणा योग्य (उषसः) शत्रु को दग्ध करने वाली (चित्राः) अद्भुत बलशाली, (अपः) जल धारावत् प्रवाह से जाने वाली, ( गाः ) शस्त्रास्त्र चलाने वाली सेनाओं को ( युवसे ) प्राप्त कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्राग्नी देवते ।। छन्दः - १, ३ निचृत्त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७ विराड् गायत्री । ५, ९ , ११ निचृद्गायत्री । १०,१२ गायत्री । १३ स्वराट् पंक्ति: १४ निचृदनुष्टुप् । १५ विराडनुष्टुप् ।। पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    'दिशः-स्वः-उषसः-अपः-गाः'

    पदार्थ

    [१] हे इन्द्र, (अग्ने) = बल व प्रकाश के देवो! (ता) = वे आप (ऊढाः गाः) = वासनाओं से जिनका अपहरण [अपवहन] किया गया है ऐसी इन्द्रियों का (अभि) = लक्ष्य करके (योधिष्टम्) = इन वासनाओं के साथ युद्ध करते हो। इसी प्रकार, हे देवो! आप (नूनम्) = निश्चय से (अप:) = रेतः कणों का, (स्वः) = प्रकाश का, (उषस:) = [ उष दाहे] दोषदहन शक्तियों का लक्ष्य करके इन वासनाओं से युद्ध करते हो। [२] हे (इन्द्र) = सब बल के कर्मों को करनेवाले, (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (नियुत्वान्) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वों को हमारे लिये प्राप्त करानेवाले आप (दिश:) = प्रभु के निर्देशों को, (स्वः) = प्रकाश को, (उषस:) = दोषदहन शक्तियों को, (चित्राः अपः) = अद्भुत वीर्यकणों को तथा (गाः) = इन्द्रियों को युवसे हमारे साथ जोड़ते हैं। वासनाओं को विनष्ट करके इन सब चीजों को हमें प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - इन्द्र और अग्नि का आराधन वासनाओं का विनाश करके हमें 'प्रभु निर्देशों, प्रकाश, दोषदहन शक्तियों, वीर्यकणों' व प्रशस्त इन्द्रियों को प्राप्त कराता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे वायू व विद्युतप्रमाणे पराक्रमी बनून युद्ध करतात ती सूर्य जसा उषःकाली असतो त्याप्रमाणे प्रजेमध्ये न्यायाचा प्रकाश करतात व दिगदिगंतरी त्यांची कीर्ती पसरते. तसेच ती अद्भुत वाणी, बल व भूमीचे राज्य प्राप्त करतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of power and excellence, Agni, lord of light and vision, like lands and waters, sun and dawns joined together, defend and fight for lands and waters, words and wondrous actions to expand to the quarters of space, and shine and join the sun and the dawns. Indra, O controller, you join the sun and dawns, and Agni, O ruler, you control the lands and waters, words and actions.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    By doing what men attain happiness-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O prosperous king or enlightened person as the sun urges the dawns, you certainly unite the lands and actions. Fight from all sides with the wicked enemies knowing the properties of all things which pervade the directions. You unite wonderful speeches and water. O Indra-destroyer of miseries! or Agni-enlightened leader ! as the sun illuminates the dawns, there- fore, both of you are administrators of justice like God.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons, who fight in battles, being vigorous, like the wind and electricity and illuminate the people with justice as the sun illumines the dawns, become glorious and renowned in all directions and obtain wonderful speech, strength and the kingdom of the land.

    Foot Notes

    (युवसे) संयोजयसि । = Unites. (ऊलहा:) प्राप्ता: । = Attained. (नियुत्वान्) ईश्वर इव न्यायेश: । यु-मिश्रणेअमिश्रणयो: (अदा.) अत्र मिश्रणार्थ: । वह-प्रापणे (भ्वा०.) । नियुत्वान् इतीश्वरनाम (NG 2, 22 )। = Administrator of justice like God. (स्वः) आदित्यः । स्व:- आदित्योभवति सु अरणा सुईरण: स्वृतो रसान् स्वृता भासं ज्योतिषां स्वृतो भासेति वा (NKT 2, 4, 14)। = The sun.

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