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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 16
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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    विश्वा॑मित्र॒जम॑दग्ने॒ वसि॑ष्ठ॒ भर॑द्वाज॒ गोत॑म॒ वाम॑देव। श॒र्दिर्नो॒अत्रि॑रग्रभी॒न्नमो॑भिः॒ सुसं॑शासः॒ पित॑रो मृ॒डता॑ नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वा॑मित्र । जम॑त्ऽअग्ने । वसि॑ष्ठ । भर॑त्ऽवाज । गोत॑म । वाम॑ऽदेव । श॒र्दि॑: । न॒: । अत्रि॑: । अ॒ग्र॒भी॒त् । नम॑:ऽभि: । सुऽसं॑शास: । पित॑र: । मृ॒डत॑ । न॒: ॥३.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वामित्रजमदग्ने वसिष्ठ भरद्वाज गोतम वामदेव। शर्दिर्नोअत्रिरग्रभीन्नमोभिः सुसंशासः पितरो मृडता नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वामित्र । जमत्ऽअग्ने । वसिष्ठ । भरत्ऽवाज । गोतम । वामऽदेव । शर्दि: । न: । अत्रि: । अग्रभीत् । नम:ऽभि: । सुऽसंशास: । पितर: । मृडत । न: ॥३.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 16
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    हिन्दी (3)

    विषय

    पितरों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (विश्वामित्र) हे सबकेमित्र ! (जमदग्ने) हे अग्नि के प्रकाश करनेवाले ! [शिल्प और यज्ञ में] (वसिष्ठ)हे अत्यन्त श्रेष्ठ ! (भरद्वाज) हे विज्ञान बल के धारण करनेवाले ! (गोतम) हेअतिशय स्तुति करनेवाले वा विद्या की कामना करनेवाले ! (वामदेव) हे श्रेष्ठव्यवहारवाले ! [यह तुम सब] (सुसंशासः) उत्तम रीति से सर्वथा शासन करनेवाले (पितरः) पितरो ! [रक्षक महात्माओ] (नः) हमें (मृडत) सुखी करो, (शर्दिः) विजयी (अत्रिः) प्राप्तियोग्य ज्ञानी पुरुष ने (नमोभिः) अन्नों के साथ (नः) हमें (अग्रभीत्) ग्रहण किया है ॥१६॥

    भावार्थ

    शूर वीर ज्ञानीमहात्मा लोग ही अन्न आदि से वृद्धि करके सब जीवों को सुख पहुँचावें॥१६॥

    टिप्पणी

    १६−(विश्वामित्र) हे सर्वमित्र (जमदग्ने) हे अग्निप्रकाशक (वसिष्ठ)वसु-ईष्ठन्। हे अतिशयेन श्रेष्ठ (भरद्वाज) हे विज्ञानधारक (गोतम) अ० ४।२९।६।गो-तमप्। गौः स्तोतृनाम-निघ० ३।१६। अतिशयेन स्तोता। यद्वा गौर्वाङ्नाम-निघ०१।११। गो+तमु काङ्क्षायाम्-पचाद्यच्। हे विद्याभिलाषिन् (वामदेव) हेप्रशस्यव्यवहारकुशल (शर्दिः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८।शृधु शब्दकुत्सायाम्, उन्दने प्रसहने च-इन् धस्य दः। शर्धोबलम्-निघ० २।९। प्रसोढा। अभिभवा। विजेता (अत्रिः) म० १५। प्राप्तियोग्यो विद्वान् (अग्रभीत्) अग्रहीत्। गृहीतवान् (नमोभिः) अन्नैः (सुसंशासः) सु+सम्+शासु अनुशिष्टौ-विट्। सुष्ठु सम्यक् शासकाः (पितरः) (मृडत) सुखयत (नः) अस्मान् ॥

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    विषय

    पितरों से प्रेरणा व उपदेश की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. हे (विश्वामित्र) = सबके प्रति स्नेहवाले, (जमदग्ने) = प्रज्वलित यज्ञाग्निवाले, (वसिष्ठ) = उत्तम वसुओंवाले, (भरद्वाज) = अपने में शक्ति भरनेवाले, (गोतम) = प्रशस्त इन्द्रियों व ज्ञान की वाणियोंवाले, (वामदेव) = सुन्दर दिव्यगुणोंवाले पितरो! आप (नः) = हमें (अग्रभीत्) = ग्रहण करो। हम आपके प्रिय हों-आपके चरणों में उपस्थित हों। आप हमारे गृहों पर आने का अनुग्रह करें। २. (शर्दिः) = [छर्दिः, घृ दीसौ] ज्ञानदीप्त व [छर्दिः-गृहम्] सबको शरण देनेवाला, (अत्रि:) = काम, क्रोध, लोभ से शून्य [अ-त्रि] (न:) = हमें (नमोभि:) = नम्रता की भावनाओं के द्वारा ग्रहण करें। हम नम्र होकर इनके समीप पहुँचें, प्रथम इनकी नम्रता से प्रभावित होकर नम्न बनने का संकल्प करें। (सुसंशास:) = उत्तम रीति से सम्यक् शासन [अनुशासन-उपदेश] करनेवाले (पितर:) = पितरो! आप (नः मृडत) = हमें सुखी करें। आपका उपदेश हमें उत्तम प्रेरणा देनेवाला हो।

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    भाषार्थ

    कण्व, कक्षीवान, पुरुमीढ, अगस्त्य, श्यावाश्व, सोभरि, अर्चनानाः, विश्वामित्र, जमदग्नि, अत्रि, कश्यप, वामदेव (नः) हमारी (अवन्तु) रक्षा करें। हे विश्वामित्र, हे जमदग्नि, हे वसिष्ठ, हे भरद्वाज, हे गोतम, हे वामदेव, (सुसंशासः पितरः) हे सुप्रशस्त पितरो! आप सब (नः) हमें (मृडत) सुखी कीजिये। (अत्रिः) अत्रि ने (नमोभिः) हमारी नम्रताओं के कारण, (नः) हमारी (शर्दिः) विशीर्णता को, हमारे विनाश को (अग्रभीत्) रोक दिया है। [शर्दिः=शर्दिम् (विभक्ति-विपरिणाम)।]

    टिप्पणी

    [कण्व आदि नाम सस्वर पठित हैं। स्वरों की आवश्यकता यौगिकार्थक शब्दों में होती है। इसलिये कण्व आदि नाम यौगिकार्थक होने चाहियें। संज्ञावाची शब्दों में स्वरों की आवश्यकता अनावश्यक है। कण्वः = मेधावी (निघं० ३।१५)। कणति निमीलति असौ कण्वः (उणा० १।१५१) = निमीलिताक्ष ध्यानावस्थित योगी। कक्षीवान्= परोपकार में सदा कटिबद्ध, समुद्यत। पुरुमीढः= सर्वत्र परिपूर्ण परमेश्वर की स्तुति करने वाला (इड स्तुतौ), या सर्वत्र परिपूर्ण परमेश्वर पर भक्तिरस की वर्षा करने वाला (मिह् सेचने)। अगस्त्यः = अग (पर्वत) +अस् (क्षेपणे), बाधाओं के पर्वतों को भी उखाड़ फैंकने वाला। श्यावाश्वः = श्यैङ् गतौ + अश्व (मन तथा इन्द्रियां) अर्थात् मन और इन्द्रियों द्वारा प्रगतिशील। सोभरि= क्लेशों को तनूकृत करके उन का अपहार करनेवाला, (शो तनूकरणे) + भरि (हरि; हरण करने वाला, या "षो अन्तकर्मणि"। अर्चनानाः=अर्चना+अनस् (प्राण) अर्चना जिस के लिये प्राणवायु है। विश्वामित्रः = सर्वमित्र (निरु० २।७।(२५), अर्थात् सर्वभूतमैत्रीसम्पन्न। तथा "विश्वामित्रः ऋषिः श्रोत्रं गृह्णामि" (यजु० १३।५७), अर्थात् दिव्यश्रोत्रसम्पन्न व्यक्ति। विश्वामित्रः ऋषिः= सब से मित्रता का हेतु शब्दज्ञान कराने वाला कान (दयानन्द, यजुः १३।५७)। जमदग्निः= जमदग्निः ऋषिः= चक्षुः (यजुः १३।५६); प्रकाशस्वरूप रूप का प्राप्त करानेहारा नेत्र (दयानन्द यजुः १३।५६) अर्थात् दिव्यदृष्टि वाला व्यक्ति। अत्रिः = अ+ त्रि = त्रिविध तापों से रहित१। कश्यपः = पश्यकः, अर्थात् यथार्थवेत्ता, विवेकी। वामदेवः = परमेश्वर-देव के सौन्दर्य स्वरूप का उपासक "सत्यं शिवं सुन्दरम्"। वाम=सुन्दर। वसिष्ठः = वसिष्ठः ऋषिः=प्राणः "वसिष्ठः ऋषिः प्राणं गृह्णामि" (यजुः १३।५४)। वसिष्ठः ऋषिः = अतिशय करके निवास का हेतु, सुखप्राप्त करानेहारा विद्वान् (दयानन्द यजुः १३।५४)। भरद्वाजः = "भरद्वाजः ऋषिः मनो गृह्णामि" (यजुः १३।५५), अर्थात् मन, जो कि अत्यन्त बली है। "अन्न वा विज्ञान की पुष्टि और धारण का निमित्त, विचारस्वरूप विज्ञानयुक्त चित्त" (दयानन्द, यजुः १३।५५)। गोतमः = गौ = वाक् (निघं० १।११), अर्थात् वाक्शक्ति में प्रवीणतम। मन्त्र १३५ में पितरों का वर्णन हुआ है। मन्त्र १३६-१३७ में पितरों के स्वरूपों का वर्णन किया है।] [१. अत्रि का व्युत्पादन "अद्" धातु द्वारा भी किया जाता है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O Vishvamitra, loving sage and the faculty of hearing, Jamadagni, visionary sage and the discriminating eye, Vasishtha, brilliant sage, pranic energy and peaceful settlement, Bharadvaja, mind and memory and abundance of food and energy, Gotama, master of the divine Word and highest efficiency of sense and mind, Vamadeva, worshipper and the spirit of the love of Satyam, Shivam, Sundaram, i.e., Truth, Goodness and Beauty, all noble sages and seers,, pitaras, protectors, promoters and sustainers, celebrated harbingers of discipline, pray bless us with peace and happiness. Indeed, with our prayers, homage and submissions, Attri, divine spirit of freedom from suffering, has stopped and eliminated our disintegration and maintained our integrity with holistic nature and character.

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    Translation

    O Visvimitra, Jamadagni, Vasistha, Bharadvaja, Gotama, Vamadva -- Atri hath taken our Sardis with obeisances; ye Fathers of good report, be gracious to us.

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    Translation

    O friend of all, O enkindler of fire for Yajna, O self-controlling man, O possessor of all kinds of grain, O most wise one, O devotee of God, all of you and he who gives shelter, the man free from trio of pains, accept us under their guidance. May elders praiseworthy with all admirations and obeisance protect.

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    Translation

    O loving, lustrous, dignified, learned, praiseworthy, God-fearing, strong, virtuous elders, be ye gracious unto us! May they, nice administrators favour us with strength to quell the foes.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(विश्वामित्र) हे सर्वमित्र (जमदग्ने) हे अग्निप्रकाशक (वसिष्ठ)वसु-ईष्ठन्। हे अतिशयेन श्रेष्ठ (भरद्वाज) हे विज्ञानधारक (गोतम) अ० ४।२९।६।गो-तमप्। गौः स्तोतृनाम-निघ० ३।१६। अतिशयेन स्तोता। यद्वा गौर्वाङ्नाम-निघ०१।११। गो+तमु काङ्क्षायाम्-पचाद्यच्। हे विद्याभिलाषिन् (वामदेव) हेप्रशस्यव्यवहारकुशल (शर्दिः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८।शृधु शब्दकुत्सायाम्, उन्दने प्रसहने च-इन् धस्य दः। शर्धोबलम्-निघ० २।९। प्रसोढा। अभिभवा। विजेता (अत्रिः) म० १५। प्राप्तियोग्यो विद्वान् (अग्रभीत्) अग्रहीत्। गृहीतवान् (नमोभिः) अन्नैः (सुसंशासः) सु+सम्+शासु अनुशिष्टौ-विट्। सुष्ठु सम्यक् शासकाः (पितरः) (मृडत) सुखयत (नः) अस्मान् ॥

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