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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 42
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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    त्वम॑ग्न ईडि॒तोजा॑तवे॒दोऽवा॑ड्ढ॒व्यानि॑ सुर॒भीणि॑ कृ॒त्वा। प्रादाः॑ पि॒तृभ्यः॑ स्व॒धया॒ तेअ॑क्षन्न॒द्धि त्वं दे॑व॒ प्रय॑ता ह॒वींषि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒ग्ने॒ । ई॒डि॒त: । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । अवा॑ट् । ह॒व्यानि॑ । सु॒र॒भीणि॑ । कृ॒त्वा। प्र । अ॒दा॒: । पि॒तृऽभ्य॑:। स्व॒धया॑ । ते । अ॒क्ष॒न् । अ॒द्धि । त्वम् । दे॒व॒ । प्रऽय॑ता । ह॒वींषि॑ ॥३.४२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्न ईडितोजातवेदोऽवाड्ढव्यानि सुरभीणि कृत्वा। प्रादाः पितृभ्यः स्वधया तेअक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । अग्ने । ईडित: । जातऽवेद: । अवाट् । हव्यानि । सुरभीणि । कृत्वा। प्र । अदा: । पितृऽभ्य:। स्वधया । ते । अक्षन् । अद्धि । त्वम् । देव । प्रऽयता । हवींषि ॥३.४२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 42
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    हिन्दी (3)

    विषय

    पितरों और सन्तानों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (जातवेदः) हे बड़े धनी (अग्ने) विद्वान् ! (ईडितः) प्रशंसित (त्वम्) तूने (हव्यानि) ग्रहण करने योग्यपदार्थों को (सुरभीणि) ऐश्वर्ययुक्त (कृत्वा) करके (अवाट्) पहुँचाया है। (पितृभ्यः) पितरों [पिता आदि रक्षक महात्माओं] को (स्वधया) अपनी धारणशक्ति से (प्रयता) शुद्ध [वा प्रयत्न से सिद्ध किये] (हवींषि) ग्रहण करने योग्य भोजन (प्र) अच्छे प्रकार (अदाः) तूने दिये हैं, (ते) उन्होंने (अक्षन्) खाये हैं, (देव) हे विद्वान् ! (त्वम्) तू [भी] (अद्धि) खा ॥४२॥

    भावार्थ

    पुत्रादि सन्तान उत्तम-उत्तम पदार्थों से पितरों की सेवा करें और प्रयत्न से शुद्ध बनाये हुए भोजनउन्हें खिलावें और आप खावें, जिस से सब स्वस्थ रहकर आनन्द भोगें ॥४२॥यह मन्त्रकुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१५।१२ और यजुर्वेद में−१९।६६ तथा उत्तरार्द्ध आगेहै-अ० १८।४।६५ ॥

    टिप्पणी

    ४२−(त्वम्) (अग्ने) हे विद्वन् (ईडितः) प्रशंसितः (जातवेदः)जातानि प्रसिद्धानि वेदांसि धनानि यस्य तत्सम्बुद्धौ (अवाट्) वहतेर्लुङ्, इडागमाभावे सिचो लोपे रूपसिद्धिः। अवाक्षीः। प्रापितवानसि (हव्यानि)ग्राह्यवस्तूनि (सुरभीणि) म० १७। ऐश्वर्ययुक्तानि (कृत्वा) विधाय (प्र)प्रकर्षेण (अदाः) ददातेर्लङ्। दत्तवानसि (पितृभ्यः) (स्वधया) स्वधारणशक्त्या (ते) पितरः (अक्षन्) घस्लृ अदने-लुङ्। भक्षितवन्तः (अद्धि) अद भक्षणे-लोट्।भक्षय (त्वम्) (देव) हे विद्वन् (प्रयता) यमु उपरमे-क्त, यद्वा यतीप्रयत्ने-अप्। शुद्धानि। प्रयत्नसाधितानि (हवींषि) ग्राह्यभोजनानि ॥

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    विषय

    एक देव की दिनचर्या

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव! (त्वम्) = तू (इंडितः) = [ईडा संजाता अस्य]-प्रभुपूजन की वृत्तिवाला बना हुआ है। तू अपने प्रत्येक दिन को प्रभुपूजन से ही प्रारम्भ करता है। उपासना के बाद तू मौलिक स्वाध्याय के द्वारा (जातवेदा:) = [जात: वेदो यस्य] विकसित ज्ञानवाला बनता है। अब तू (सुरभीणि हव्यानि) = सुगन्धित हव्य पदार्थों को (कृत्वा) = सम्यक् सज्जित करके (अवाट्) = अग्नि के लिए प्राप्त कराता है। इन हव्य पदार्थों के द्वारा तू नित्य अग्निहोत्र करता है। २. अग्निहोत्र के बाद (पितृभ्यः प्रादा:) = अपने वृद्ध माता-पिता के लिए भोजन देता है। (ते) = वे (स्वधया) = आत्म धारण के हेतु से (अक्षन्) = उस भोजन को खाते हैं, अर्थात् शरीरधारण के लिए आवश्यक भोजन की मात्रा को ही ग्रहण करते हैं। अब हे देववृत्तिवाले पुरुष ! (त्वम्) = तु भी (प्रयता हवींषि) = पवित्र यज्ञशेष हव्य पदार्थों को ही (अद्धि) =tf खा। वह यज्ञशेष का सेवन ही अमृतसेवन है।

    भावार्थ

    हमारी दिनचर्या का क्रम यह हो-'उपासना, स्वाध्याय, अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, स्वयं यज्ञशेष का सेवन'। यही 'देव' बनने का मार्ग है।

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    भाषार्थ

    (जातवेदः) हे वेदविद्या के कारण द्विजन्मा बने (अग्ने) ज्ञानी सद्-गृहस्थ! (ईडितः) वैदिक स्तुतियों से सम्पन्न (त्वम्) तू, (हव्यानि) भोज्य पदार्थों को (सुरभीणि) घृतादि द्वारा सुरभित सुगन्धित (कृत्वा) करके (अवाट्) लाया है। और उन भोज्य पदार्थों को (पितृभ्यः) पितरों अर्थात् पिता, पितामह माता आदि बुजुर्गों को (प्रादाः) तूने दिया है। और (प्रयता) दिये गए (हवींषि) हविरूप इन अन्नों को (स्वधया) अपने धारण और पोषण की दृष्टि से (ते) उन्हों ने (अक्षन्) खाया है। हे (देव) दिव्यगुणी सद्गृहस्थ! पितरों के खा चुकने के पश्चात् (त्वम्) तू स्वयं (अद्धि) उन भोजनों को खाया कर।

    टिप्पणी

    [पितरों का भोजन करना सूचित करता है कि ये पितर जीवित हैं, मृत नहीं। अतिथिसेवा के पश्चात् सद्गृहस्थ स्वयं अन्न ग्रहण करे, – यह वैदिक आज्ञा है। यथा “अशितावत्यतिथावश्नीयाद्यज्ञस्य सात्मत्वाय। यज्ञस्याविच्छेदाय तद्व्रतम् ॥” (अथर्व० ९।६।३८)। यह मन्त्रार्थ महर्षि दयानन्द के भाष्य के आधार पर किया गया है (यजु० १९।६६)। ईडितः= ईड + इतच्। यथा “तारकितं नभः"।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Leading light of life, Agni, harbinger of fresh life and energy, all pervasive, all knowing, invoked and adored, you receive the holy materials offered in yajnic oblations, convert and intensify them to fragrant refinement and catalytic efficacy and send them on to life nourishing divinities of nature and humanity. Let the pranic energies feed upon these offerings by their own nature and character and be replenished and energised, and you too, O refulgent divinity, consume your share in the natural process for life sustenance.

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    Translation

    Thou, O agni, Jatavedas, being praised, hast carried the offering, having made them fragrant; thou hast given to the Fathers; they have eaten after their wont; eat thou, O god, the presented oblations.

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    Translation

    This fire which is present in all created objects and is described of its glories carries the offered oblations making them flagrant and hand over to the sun rays. These rays obtain (these substances) through their self-supporting power. This brilliant fire also consumes the offered oblational substances.

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    Translation

    O Omniscient God, Worthy of adoration, Thou givest us fragrant and nutritious cereals. Thou gives them to our parents, who utilize them to the best of their power! O God, Thou acceptest the gifts we offer Thee!

    Footnote

    See Rig, 10-15-12, Yajur, 19-66.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४२−(त्वम्) (अग्ने) हे विद्वन् (ईडितः) प्रशंसितः (जातवेदः)जातानि प्रसिद्धानि वेदांसि धनानि यस्य तत्सम्बुद्धौ (अवाट्) वहतेर्लुङ्, इडागमाभावे सिचो लोपे रूपसिद्धिः। अवाक्षीः। प्रापितवानसि (हव्यानि)ग्राह्यवस्तूनि (सुरभीणि) म० १७। ऐश्वर्ययुक्तानि (कृत्वा) विधाय (प्र)प्रकर्षेण (अदाः) ददातेर्लङ्। दत्तवानसि (पितृभ्यः) (स्वधया) स्वधारणशक्त्या (ते) पितरः (अक्षन्) घस्लृ अदने-लुङ्। भक्षितवन्तः (अद्धि) अद भक्षणे-लोट्।भक्षय (त्वम्) (देव) हे विद्वन् (प्रयता) यमु उपरमे-क्त, यद्वा यतीप्रयत्ने-अप्। शुद्धानि। प्रयत्नसाधितानि (हवींषि) ग्राह्यभोजनानि ॥

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