अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 6
यं त्वम॑ग्नेस॒मद॑ह॒स्तमु॒ निर्वा॑पया॒ पुनः॑। क्याम्बू॒रत्र॑ रोहतु शाण्डदू॒र्वा व्यल्कशा॥
स्वर सहित पद पाठयम् । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽअद॑ह: । तम् । ऊं॒ इति॑ । नि: । वा॒प॒य॒ । पुन॑: । क्याम्बू॑: । अत्र॑ । रो॒ह॒तु॒ । शा॒ण्ड॒ऽदू॒र्वा । विऽअ॑ल्कशा ॥३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यं त्वमग्नेसमदहस्तमु निर्वापया पुनः। क्याम्बूरत्र रोहतु शाण्डदूर्वा व्यल्कशा॥
स्वर रहित पद पाठयम् । त्वम् । अग्ने । सम्ऽअदह: । तम् । ऊं इति । नि: । वापय । पुन: । क्याम्बू: । अत्र । रोहतु । शाण्डऽदूर्वा । विऽअल्कशा ॥३.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे विद्वान्पुरुष ! (त्वम्) तूने (यम्) जिस [ब्रह्मचारी] को (समदहः) यथाविधि तपाया है [ब्रह्मचर्य तप कराया है] (तम् उ) उस को (पुनः) अवश्य (निः) निश्चय करके (वापय)बीज के समान फैला। (अत्र) यहाँ [संसार में] (क्याम्बूः) ज्ञान उपदेश करनेवाली, (शाण्डदूर्वा) दुःखनाश करनेवाली और (व्यल्कशा) विविध प्रकार शोभावाली [शक्ति] (रोहतु) प्रकट होवे ॥६॥
भावार्थ
माता-पिता आचार्य आदिविद्वान् लोग ब्रह्मचर्य आदि तप करा के सन्तानों को ऐसी शिक्षा देवें कि जिससेवे शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति कर सकें ॥६॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेदमें है १०।१६।१३। और वही पाठ महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि अन्त्येष्टिप्रकरण में उद्धृत है ॥
टिप्पणी
६−(यम्) ब्रह्मचारिणम् (त्वम्) (अग्ने) हे विद्वन् (समदहः)समन्ताद् ब्रह्मचर्यादितपः कारितवानसि (तम्) ब्रह्मचारिणम् (उ) पादपूर्त्तौ (निः) निश्चयेन (वापय) डुवप बीजसन्ताने-णिच्। बीजवद् विस्तारय (पुनः) अवधारणे (क्याम्बूः) वातेर्डिच्च। उ० ४।१३४। कि कित वा ज्ञाने-इण्प्रत्ययः, डित्।णित्कशिपद्यर्त्तेः। उ० १।८५। अबि शब्दे ऊ प्रत्ययो णित्। ज्ञानस्य शब्दयित्रीज्ञापयित्री (अत्र) संसारे (रोहतु) प्रादुर्भवतु (शाण्डदूर्वा) शडि संघाते रोगेच-घञ्+दुर्व दूर्व हिंसायाम्-अच्, टाप्, दुःखस्य नाशयित्री (व्यल्कशा)कृदाधारार्चिकलिभ्यः कः। उ० ३।४०। वि+अल भूषणपर्याप्तिशक्तिवारणेषु-क प्रत्ययः शोमत्वर्थीयः। विविधशोभावती शक्तिः ॥
विषय
सोम्य भोजन, न कि आग्नेय
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अन्तिम वाक्य में शरीर में रेत:कणों के रक्षण का उल्लेख है। वस्तुतः 'आग्नेय भोजन' सोमरक्षण के लिए अनुकूल नहीं है, अत: कहते हैं कि हे अग्ने अग्नितत्त्व प्रधान आग्नेय भोजन! (त्वम्) = तूने (यम्) = जिसको (सम् अदह:) = जला-सा दिया है, जिसमें उत्तेजना पैदा कर दी है-अब (तम्) = उसको (उ) = निश्चय से (पुनः निर्वापय) = फिर शान्त करनेवाला हो उसकी उत्तेजना को बुझानेवाला हो। २. इस उत्तेजना की शान्ति के लिए अत्र-यहाँ-हमारे लिए (क्याम्बू:) = [ कियत् प्रमाणमुदक-अम्बु-अस्मिन्] अत्यधिक जल के परिमाणवाले ये व्रीहि [चावल] आदि पदार्थ (रोहतु) = उगें तथा (व्यल्कशा) = विविध शाखाओं से युक्त (शाण्डदूर्वा) = [शडि रोगे, ऊर्व हिंसायाम] रोगों का हिंसन करनेवाली वनस्पति उगे। इन व्रीहि व अन्य वनस्पति भोजनों से हम उत्तेजना से बचकर सोम का रक्षण करनेवाले हों।
भावार्थ
हम आग्नेय भोजनों से बचें और सदा सौम्य भोजनों को करते हुए नीरोग व शान्त बनें।
भाषार्थ
(अग्ने) हे अग्नि ! (त्वम्) तू ने (यम्) श्मशान के जिस भूभाग को (समदहः) जलाया है, (निर् वापय पुनः तम् उ) उस भूभाग से निकल कर उसे फिर बोने योग्य कर दे। (अत्र) इस श्मशान में या भूभाग में (क्याम्बूः) काई-जल (रोहतु) प्रादुर्भूत हो, (शाण्डदूर्वा) सन तथा दूब घास, तथा (व्यल्कशा) भूमि को विविध प्रकार से अलंकृत करनेवाली और पृथिवी पर मानो शयन करनेवाली, बिछी हुई घास प्रादुर्भूत हो।
टिप्पणी
[क्याम्बू = क्य=क् + य् (इ) + अ; क, अ, इ= काई ? + अम्बु (जल)। शाण्ड= सन ? मन्त्र में यह निर्देश दिया है कि अस्थि-संचय के समय और उसके पश्चात् जल सेचन द्वारा उस भूभाग को ठण्डा कर वहां घास आदि का प्ररोहण कर देना चाहिये।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O Agni, whatever you have burnt, bring back to fertility again. Let kyambu, shanda vyalkasha, soothing, beautiful and ornamental plants and grasses grow there.
Translation
Whom thou, O Agni, didst consume, him do thou extinguish again; let there grow here the kyambu, the Sandadurva, the vyalkasa.
Translation
When this fire burns the dead body and become calm (at some time past), the Shand-durva grass etc. having lot of roots and branches grow on this place and dew-moisture waters down them.
Translation
O learned person, let the Brahmchari grow like the seed, whom thou hast made go through the penance of celibacy. Let him cultivate the power of spreading. Knowledge, alleviating misery, and replete with diverse grandeur!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(यम्) ब्रह्मचारिणम् (त्वम्) (अग्ने) हे विद्वन् (समदहः)समन्ताद् ब्रह्मचर्यादितपः कारितवानसि (तम्) ब्रह्मचारिणम् (उ) पादपूर्त्तौ (निः) निश्चयेन (वापय) डुवप बीजसन्ताने-णिच्। बीजवद् विस्तारय (पुनः) अवधारणे (क्याम्बूः) वातेर्डिच्च। उ० ४।१३४। कि कित वा ज्ञाने-इण्प्रत्ययः, डित्।णित्कशिपद्यर्त्तेः। उ० १।८५। अबि शब्दे ऊ प्रत्ययो णित्। ज्ञानस्य शब्दयित्रीज्ञापयित्री (अत्र) संसारे (रोहतु) प्रादुर्भवतु (शाण्डदूर्वा) शडि संघाते रोगेच-घञ्+दुर्व दूर्व हिंसायाम्-अच्, टाप्, दुःखस्य नाशयित्री (व्यल्कशा)कृदाधारार्चिकलिभ्यः कः। उ० ३।४०। वि+अल भूषणपर्याप्तिशक्तिवारणेषु-क प्रत्ययः शोमत्वर्थीयः। विविधशोभावती शक्तिः ॥
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