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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 72
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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    ये ते॒ पूर्वे॒परा॑गता॒ अप॑रे पि॒तर॑श्च॒ ये। तेभ्यो॑ घृ॒तस्य॑ कु॒ल्यैतु श॒तधा॑राव्युन्द॒ती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । ते॒ । पूर्वे॑ । परा॑ऽगता: । अप॑रे । पि॒तर॑: । च॒ । ये । तेभ्य॑: । घृ॒तस्य॑ । कु॒ल्या॑ । ए॒तु॒ । श॒तऽधा॑रा । वि॒ऽउ॒द॒न्ती ॥३.७२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये ते पूर्वेपरागता अपरे पितरश्च ये। तेभ्यो घृतस्य कुल्यैतु शतधाराव्युन्दती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । ते । पूर्वे । पराऽगता: । अपरे । पितर: । च । ये । तेभ्य: । घृतस्य । कुल्या । एतु । शतऽधारा । विऽउदन्ती ॥३.७२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 72
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    हिन्दी (3)

    विषय

    गृहाश्रम में मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (ये) जो (ते) तेरे (पूर्वे) प्राचीन (च) और (ये) जो (अपरे) अर्वाचीन (पितरः) पितर [पालकमहात्मा] (परागताः) प्रधानता से चले हैं। (तेभ्यः) उन के लिये (घृतस्य) जल की (कुल्या) कुल्या [कृत्रिम नाली] (शतधारा) सैकड़ों धाराओंवाली, (व्युन्दती)उमड़ती हुई (एतु) चले ॥७२॥

    भावार्थ

    मनुष्य पूर्वज औरवर्तमान महात्माओं से गुण ग्रहण करके संसार को अनेक प्रकार आनन्द देवें, जैसे किकिसान लोग जल की नालियाँ बना खेतों को सींच कर अन्न की वृद्धि से सुख पहुँचातेहैं ॥७२॥इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध कुछ भेद से आगे है-अ० १८।४।५७ ॥

    टिप्पणी

    ७२−(ये) (ते)तव (पूर्वे) प्राचीनाः (परागताः) प्राधान्येन मताः (अपरे) पश्चाद्भाविनः।अर्वाचीनाः (पितरः) पालका महात्मानः (च) (ये) (तेभ्यः) पितॄणां हिताय (घृतस्य)उदकस्य-निघ० १।१२ कुल्या) कुल-यत्, यद्वा कुल बन्धे संहतौ च-क्यप्, टाप्, कृत्रिमाल्पा नदी (शतधारा) बहुधाराभिरुपेता (व्युन्दन्ती) विशेषेणआर्द्रीकुर्वती ॥

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    विषय

    घृतस्य कुल्या

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (ते) = वे (पूर्वे) = पहले पितर, अर्थात् प्रपितामह और पितामह, (ये च) = और जो (अपरे पितर:) = अपर पितर, अर्थात् तेरे पिता (परागता:) = गृहस्थ से ऊपर उठकर दूर वन में चले गये हैं, (तेभ्य:) = उनसे (घृतस्य) = ज्ञानजल की प्रवाहिणी कुल्या-नदी एतु-हमें पाप्त हों। यह घृतकुल्या शतधारा-सैकड़ों प्रकार से हमारा धारण करनेवाली हो और व्युन्दती-हमारे हदयों को भक्तिरस से आई करती हुई हो।

    भावार्थ

    हमें 'प्रपितामह, पितामह व पिता' रूप पितरों से वह ज्ञान प्रास हो जोकि सैकड़ों प्रकार से हमारा धारण करे और हमें भक्तिरस से आप्लवित करनेवाला हो।

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    भाषार्थ

    हे सद्गहस्थ ! (ये) जो (ते) तेरे (पूर्व) पूर्व बुजुर्गों के (पितरः) पिता पितामह आदि, और (ये) जो (अपरे) उन से इधर के = अवरकाल के, तेरे निज (पितरः) पिता पितामह आदि (परागताः) गृहस्थ छोड़ कर परले आश्रमों में चले गए हुए हैं, (तेभ्यः) उनके लिये (व्युन्दती) उनके खेतों, उद्यानों और आश्रमों को सींचती हुई (शतधाराः) सैंकड़ों आश्रमों का धारण-पोषण करनेवाली, तथा सैकड़ों धाराओंवाली (घृतस्य कुल्या) जल की नहर (एतु) प्राप्त हो। [घृतम् = उदकम् (निघं० १।१२)।आचार्यो के आश्रमों का वर्णन मन्त्र में हुआ है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O man of knowledge and yajnic action, for all those parental seniors and ancestors of yours, ancient and later ones, who have gone before, let the streams of ghrta overflow abundant in a hundred ways of yajna in their honour.

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    Translation

    What Fathers of thine went away earlier and what later, for them let there go a brook of ghee, hundred-streamed, overflowing.

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    Translation

    For those seasons which in order are former and those which are latter let the channel of ghee flow in the Yajna with the overflow of thousand streams.

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    Translation

    To these, thy Fathers who have passed away, or are living at present, let the full stream of joy run afresh, overflowing with a hundred waves.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७२−(ये) (ते)तव (पूर्वे) प्राचीनाः (परागताः) प्राधान्येन मताः (अपरे) पश्चाद्भाविनः।अर्वाचीनाः (पितरः) पालका महात्मानः (च) (ये) (तेभ्यः) पितॄणां हिताय (घृतस्य)उदकस्य-निघ० १।१२ कुल्या) कुल-यत्, यद्वा कुल बन्धे संहतौ च-क्यप्, टाप्, कृत्रिमाल्पा नदी (शतधारा) बहुधाराभिरुपेता (व्युन्दन्ती) विशेषेणआर्द्रीकुर्वती ॥

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