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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 67
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - पथ्या बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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    इन्द्र॒ क्रतुं॑न॒ आ भ॑र पि॒ता पु॒त्रेभ्यो॒ यथा॑। शिक्षा॑ णो अ॒स्मिन्पु॑रुहूत॒ याम॑नि जी॒वाज्योति॑रशीमहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । क्रतु॑म् । न॒:। आ । भ॒र॒ । पि॒ता । पु॒त्रेभ्य॑: । यथा॑ । शिक्ष॑ । न॒: । अ॒स्मिन् । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । याम॑नि । जी॒वा: । ज्योति॑: । अ॒शी॒म॒हि॒ ॥३.६७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र क्रतुंन आ भर पिता पुत्रेभ्यो यथा। शिक्षा णो अस्मिन्पुरुहूत यामनि जीवाज्योतिरशीमहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । क्रतुम् । न:। आ । भर । पिता । पुत्रेभ्य: । यथा । शिक्ष । न: । अस्मिन् । पुरुऽहूत । यामनि । जीवा: । ज्योति: । अशीमहि ॥३.६७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 67
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    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमऐश्वर्यवाले राजन् ! तू (नः) हमारे लिये (क्रतुम्) बुद्धि (आ भर) भर दे, (यथा)जैसे (पिता) पिता (पुत्रेभ्यः) पुत्रों [सन्तानों] के लिये। (पुरुहूत) हे बहुतप्रकार बुलाये गये [राजन् !] (अस्मिन्) इस (यामनि) समय वा मार्ग में (नः) हमें (शिक्ष) शिक्षा दे, [जिस से] (जीवाः) हम जीव लोग (ज्योतिः) प्रकाश को (अशीमहि)पावें ॥६७॥

    भावार्थ

    राजा उत्तम-उत्तमविद्यालय, शिल्पालय, आदि खोलकर प्रजा का हित करे, जैसे पिता सन्तानों का हित करताहै, जिस से लोग अज्ञान के अन्धकार से छूट कर ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त होवें॥६७॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−७।३२।२६ और सामवेद में है−पू० ३।७।७ तथा उ० ६।३।६॥

    टिप्पणी

    ६७−(इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (क्रतुम्) प्रज्ञाम् (नः) अस्मभ्यम् (भर)पोषय (पिता) (पुत्रेभ्यः) भ्रातृपुत्रौ स्वसृदुहितृभ्याम्। पा० १।२।६८।इत्येकशेषः। पुत्रदुहितृभ्यः। सन्तानेभ्यः (यथा) (शिक्ष) अनुशाधि। शिक्षां कुरु (नः) अस्मान् (पुरुहूत) बहुप्रकारेणाहूत (यामनि) समये मार्गे वा (जीवाः)प्राणिनो वयम् (ज्योतिः) प्रकाशम् (अशीमहि) प्राप्नुयाम ॥

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    विषय

    जीवनशक्ति और ज्योति

    पदार्थ

    १.(इन्द्र) = हे सर्वशक्तिमन् प्रभो। (न:) = हमारे लिए (क्रतम) = शक्ति व प्रज्ञान को इसप्रकार (आभर) = प्राप्त कराइए, यथा-जैसे पिता पुत्रेभ्य:-पिता पुत्रों के लिए प्राप्त कराता है। इस शक्ति व प्रज्ञान से ही तो हम जीवन-यात्रा को पूर्ण कर सकेंगे। २. हे (पुरुहूत) = [पुरुहूतं यस्य] पालन व पूरण करनेवाली है पुकार जिसकी, ऐसे प्रभो! आप अ(स्मिन् यामनि) = इस संसार-यात्रा के मार्ग में (जीवा:) = जीवनशक्ति से पूरिपूर्ण हुए-हुए हम (ज्योतिः अशीमहि) = ज्योति को प्रात करनेवाले हों।

    भावार्थ

    प्रभु हमें शक्ति व ज्ञान प्राप्त कराएँ। हम प्रभु का आराधन करते हुए जीवनशक्ति से परिपूर्ण हों और ज्योति को प्राप्त करें।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवत् परमेश्वर ! (नः) हमें (क्रतुम्) प्रज्ञा (आभर) प्रदान कीजिये, (यथा) जैसे (पिता पुत्रेभ्यः) पिता पुत्रों को प्रज्ञा प्रदान करता है। (पुरुहूत) बहुत वार समादरपूर्वक पुकारे गए हे परमेश्वर! (अस्मिन्) इस (यामनि) अज्ञानरात्रि में (नः) हमें आप (शिक्ष) शिक्षा प्रदान कीजिये। ताकि (जीवाः) इस जीवन के जीवित काल में हम (ज्योतिः) ज्योतिःस्वरूप आप को (अशीमहि) प्राप्त कर लें।

    टिप्पणी

    [मन्त्र ६७ में परमेश्वर के उपासक प्रज्ञा की प्रार्थना कर रहे हैं। ऋतु = प्रज्ञा (निघं० ३।९)। सम्भवतः यह ऋतम्भरा प्रज्ञा है, जिस की प्राप्ति की प्रार्थना है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Indra, bring us the divine vision, will and intelligence as does the father for his children. O lord universally invoked and worshipped, instruct us as a teacher at this modern time so that we, ordinary souls, may have the light of life and living experience of Divinity in the prevailing darkness.

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    Translation

    O Indra, bring us ability, as a father to his sons; help us in this course, O much-invoked one; may we, living, attain to light. (Rg.VII.32.26; also Sv.I.259;II.806)

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    Translation

    O Almighty God, please give us the powers of discrimation like a father to his son. O Lord, you are adored and worshipped by all you guide us in this world so that we the Jivas attain the light.

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    Translation

    O God, grant us wisdom as a father gives wisdom to his sons! Guide us, O much invoked God in this our journey of life: may we living long receive the light of knowledge!

    Footnote

    See Rig, 7-32-26.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६७−(इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (क्रतुम्) प्रज्ञाम् (नः) अस्मभ्यम् (भर)पोषय (पिता) (पुत्रेभ्यः) भ्रातृपुत्रौ स्वसृदुहितृभ्याम्। पा० १।२।६८।इत्येकशेषः। पुत्रदुहितृभ्यः। सन्तानेभ्यः (यथा) (शिक्ष) अनुशाधि। शिक्षां कुरु (नः) अस्मान् (पुरुहूत) बहुप्रकारेणाहूत (यामनि) समये मार्गे वा (जीवाः)प्राणिनो वयम् (ज्योतिः) प्रकाशम् (अशीमहि) प्राप्नुयाम ॥

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