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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 41
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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    दे॒वेभ्यः॒कम॑वृणीत मृ॒त्युं प्र॒जायै॒ किम॒मृतं॒ नावृ॑णीत। बृह॒स्पति॑र्य॒ज्ञम॑तनुत॒ऋषिः॑ प्रि॒यां य॒मस्त॒न्वमा रि॑रेच ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वेभ्य॑: । कम् । अ॒वृ॒णी॒त॒ । मृ॒त्युम् । प्र॒ऽजायै॑ । किम् । अ॒मृत॑म् । न । अ॒वृ॒णी॒त॒ । बृह॒स्पति॑: । य॒ज्ञम् । अ॒त॒नु॒त॒ । ऋषि॑: । प्रि॒याम् । य॒म: । त॒न्व॑म् । आ । रि॒रे॒च॒ ॥३.४१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवेभ्यःकमवृणीत मृत्युं प्रजायै किममृतं नावृणीत। बृहस्पतिर्यज्ञमतनुतऋषिः प्रियां यमस्तन्वमा रिरेच ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवेभ्य: । कम् । अवृणीत । मृत्युम् । प्रऽजायै । किम् । अमृतम् । न । अवृणीत । बृहस्पति: । यज्ञम् । अतनुत । ऋषि: । प्रियाम् । यम: । तन्वम् । आ । रिरेच ॥३.४१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 41
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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [जिसने] (देवेभ्यः)उत्तम गुणों के लिये (कम्) सुख से (मृत्युम्) मृत्यु [अहङ्कारत्याग] को (अवृणीत)अङ्गीकार किया है, उस ने (प्रजायै) प्रजा के लिये (किम्) क्या (अमृतम्) अमृत [अमरपन मोक्षपद] को (न) नहीं (अवृणीत) अङ्गीकार किया ? (बृहस्पतिः) उस बड़े-बड़ेव्यवहारों के रक्षक (ऋषिः) सन्मार्गदर्शक, (यमः) नियमवाले पुरुष ने (यज्ञम्)पूजनीय व्यवहार को (अतनुत) फैलाया है और (प्रियाम्) हित करनेवाली (तन्वम्) उपकारक्रिया को (आ) सब ओर से (रिरेच) संयुक्त किया है ॥४१॥

    भावार्थ

    जो स्त्री-पुरुषश्रेष्ठ गुणों की प्राप्ति के लिये अहङ्कार, अर्थात् आपा छोड़ आत्मदान करते हैं, वे ही संसार को मोक्षपद देते और पूजनीय व्यवहारों को फैलाकर अवश्य महान् उपकारकरते हैं ॥४१॥

    टिप्पणी

    ४१−(देवेभ्यः) उत्तमगुणानां प्राप्तये (कम्) सुखेन (अवृणीत)अङ्गीकृतवान् (मृत्युम्) मरणम्। अहंकारत्यागम्। आत्मसमर्पणम् (प्रजायै)मनुष्यादिरूपायै (किम्) (अमृतम्) अमरणम्। मोक्षपदम् (न) निषेधे (अवृणीत)स्वीकृतवान् (बृहस्पतिः) बृहतां व्यवहाराणां रक्षकः (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (अतनुत) विस्तारितवान् (यमः) सन्मार्गदर्शकः (प्रियाम्) हितकरीम् (यमः)नियमवान्। जितेन्द्रियः पुरुषः (तन्वम्) उपकारक्रियाम् (आ) समन्तात् (रिरेच)रिचिर् विरेचने, रिच वियोजनसम्पर्चनयोः-लिट्। संयोजितवान् ॥

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    विषय

    देवों का भी पतन, प्रजाओं का उत्थान

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार यज्ञों में अपने को बद्ध करनेवाले लोग 'देव' बनते हैं, परन्तु ये देव भी अहंकार में आकर फिर पतित हो जाते हैं। यह पतन प्रभु की ओर से न होकर उनके अपने अहंकार का ही परिणाम होता है। मन्त्र में इसी भाव को इस रूप में कहते हैं कि (देवेभ्यः) = देवों के लिए के (मृत्युम् अवृणीत) = किस मृत्यु का प्रभु वरण करते हैं? वस्तुतः प्रभु नहीं, उन देवों का अहंकार ही उनकी मृत्यु का कारण बनता है। इसीप्रकार प्रभु (प्रजायै) = सामान्य लोगों के लिए किम् (अमृतं न अवृणीत) = किस अमृततत्व का वरण नहीं करते? प्रभु प्रत्येक व्यक्ति को अमृतत्व के लिए आवश्यक साधनों को प्राप्त कराते हैं। यदि हम उन साधनों का सदुपयोग नहीं करते, तो इसमें प्रभु का क्या दोष है? २. इस संसार में (बृहस्पतिः ऋषिः) = ज्ञान का स्वामी तत्वद्रष्टा पुरुष-वासनाओं का संहार करनेवाला पुरुष [ऋष् to KiII] (यज्ञम् अतनुत) = यज्ञ का विस्तार करता है-यज्ञात्मक कर्मों में प्रवृत्त होता है। वस्तुत: यह ऋषि उस सर्वनियन्ता प्रभु का शरीर बनता है, प्रभु इसमें आत्मरूप से होते हैं और (यमः) = सर्वनियन्ता प्रभु अपने इस (प्रियां तन्वम्) = प्रिय शरीरभूत 'बृहस्पति ऋषि' को (आरिरेच) = सब दोषों से रिक्त कर देते हैं। प्रभु इसके जीवन को निर्दोष बना देते हैं।

    भावार्थ

    देव बनकर भी अहंकारवश हम पतन की ओर चले जाते हैं। सामान्य मनुष्य होते हुए भी प्रभुप्रदत्त साधनों का सदुपयोग करते हुए हम अमृतत्त्व को प्राप्त करते हैं, अत: हम ज्ञानी व वासनाशून्य बनकर प्रभु का निवासस्थान बनें। प्रभु हमारे जीवनों को निर्दोष बनाये रक्खेंगे।

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    भाषार्थ

    (देवेभ्यः) दिव्यगुणों वाले जीवन्मुक्तों के लिये (बृहस्पतिः) महा ब्रह्माण्ड के स्वामी ने (कम्) मोक्षसुखदायी (मृत्युम्) मृत्यु को (अवृणीत) स्वीकार किया है, (प्रजायै) समग्र प्रजा के लिये उसने (अमृतम्) मोक्ष-सुखदायी मृत्यु को (किम्) क्यों (न) नहीं (अवृणीत) स्वीकार किया ? वस्तुतः महाब्रह्माण्ड के स्वामी, तथा (ऋषिः) वेदार्थ-रहस्यों के प्रवक्ता परमेश्वर ने प्रजा के लिये, मोक्ष सुखप्राप्ति के निमित्त, वेदों में (यज्ञम्) यज्ञिय कर्मकलाप का (अतनुत) विस्तार किया है। और इसी निमित्त (यमः) जगन्नियन्ता परमेश्वर प्रजाजनों की (प्रियां तत्वम्) प्रिय तनुओं को (आ रिरेच) आत्माओं से विहीन करता रहता है। उनका बार-बार जन्म-मरण करता रहता है।

    टिप्पणी

    [जीवन्मुक्तों की मृत्यु अन्तिम मृत्यु-सी होती है। यह सुखदायी मृत्यु होती है। क्योंकि इस मृत्यु के पश्चात् उन्हें मोक्षसुख मिलता है। जीवन्मुक्त से भिन्न प्रजाजन के लिये परमेश्वर तबतक उन्हें सुखदायी अन्तिम मृत्यु नहीं देता, जब तक कि वे वेदप्रतिपादित यज्ञिय कर्मकलापों के अनुसार अपना आचार-विचार और जीवन नहीं बना लेते। एतदर्थ ही ब्रह्माण्ड के स्वामी ने वेदों में यज्ञिय कर्मकलाप का विस्तृत वर्णन किया है। परमेश्वर प्रजाजनों को बार-बार जन्म देकर और उन की बार-बार मृत्युएं कर, उन्हें वैदिक यज्ञिय कर्मकलापों के अनुष्ठान का स्ववसर इस प्रकार बार-बार देता रहता है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Brhaspati, lord of the expanding universe, chooses joyous death for the devas, people of enlightenment and piety. Does he not choose, provide for, freedom from death for his children? Brhaspati, all seeing visionary creator, laid out the provision and process for all, and thereby Yama, lord of life and law, releases all from the dear mortal body and supplants the mortal body with freedom of the soul.

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    Translation

    For the gods he chose death; for his progeny did he not choose immortality ? Brhaspati (as) seer extended the sacrifice: Yama left his dear self.

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    Translation

    Who amongst learned men does not chose to face mortality? (Devas also die), who for the subject does not select immortality (i. e. everyone desires immortality) God, the Master of vedic speech and the seer of all the seers has maintained this procedure of death and life. Yama, the time which has its impact on all, seizes the dear body.

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    Translation

    God chose physical death only for the sages. He chose no immortality for ordinary men. God, the nourisher of vast worlds, All-seeing, spreads the Yajna of Creation, the same All-controlling God consumes the lovely body in the fire of death.

    Footnote

    Sages die like ordinary mortals. Both die, with the only difference, that the sages immortalize their name through their noble, philanthropic deeds, posterity remembers them through ages; but ordinary mortals die unwept, unhonored, and unsung: None remembers them after death. God creates and dissolves the universe. This is His Law. See Rig,10-13-4.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४१−(देवेभ्यः) उत्तमगुणानां प्राप्तये (कम्) सुखेन (अवृणीत)अङ्गीकृतवान् (मृत्युम्) मरणम्। अहंकारत्यागम्। आत्मसमर्पणम् (प्रजायै)मनुष्यादिरूपायै (किम्) (अमृतम्) अमरणम्। मोक्षपदम् (न) निषेधे (अवृणीत)स्वीकृतवान् (बृहस्पतिः) बृहतां व्यवहाराणां रक्षकः (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (अतनुत) विस्तारितवान् (यमः) सन्मार्गदर्शकः (प्रियाम्) हितकरीम् (यमः)नियमवान्। जितेन्द्रियः पुरुषः (तन्वम्) उपकारक्रियाम् (आ) समन्तात् (रिरेच)रिचिर् विरेचने, रिच वियोजनसम्पर्चनयोः-लिट्। संयोजितवान् ॥

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