अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 68
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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अ॑पू॒पापि॑हितान्कु॒म्भान्यांस्ते॑ दे॒वा अधा॑रयन्। ते ते॑ सन्तु स्व॒धाव॑न्तो॒मधु॑मन्तो घृत॒श्चुतः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पू॒पऽअ॑पिहितान् । कु॒म्भान् । यान् । ते॒ । दे॒वा: । अधा॑रयन् । ते । ते॒ । स॒न्तु॒ । स्व॒धाऽव॑न्त: । मधु॑ऽमन्त: । घृ॒त॒ऽश्चुत॑: ॥३.६८॥
स्वर रहित मन्त्र
अपूपापिहितान्कुम्भान्यांस्ते देवा अधारयन्। ते ते सन्तु स्वधावन्तोमधुमन्तो घृतश्चुतः ॥
स्वर रहित पद पाठअपूपऽअपिहितान् । कुम्भान् । यान् । ते । देवा: । अधारयन् । ते । ते । सन्तु । स्वधाऽवन्त: । मधुऽमन्त: । घृतऽश्चुत: ॥३.६८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
गृहाश्रम में मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (यान्)जिन (अपूपापिहितान्) अपूपों [शुद्ध पके हुए भोजनों मालपूये पूड़ी आदि] को ढककररखनेवाले (कुम्भान्) पात्रों को (ते) तेरे लिये (देवाः) विद्वानों ने (अधारयन्)रक्खा है। (ते) वे [भोजन पदार्थ] (ते) तेरे लिये (स्वधावन्तः) आत्मधारणशक्तिवाले, (मधुमन्तः) मधुर गुणवाले और (घृतश्चुतः) घी [सार रस] के सींचनेवाले (सन्तु) होवें ॥६८॥
भावार्थ
गृहस्थों को योग्य हैकि विद्वानों के स्थापित नियमों के अनुसार उत्तम भोजनों के सेवन से स्वस्थ रहें॥६८॥यह मन्त्र कुछ भेद से आगे है-अ० १८।४।२५ और उत्तरार्ध उसी के मन्त्र म० ४२में है ॥
टिप्पणी
६८−(अपूपापिहितान्) पानीविषिभ्यः पः। उ० ३।२३। नञ्+पूयी विशरणेदुर्गन्धे च-प प्रत्ययः, यलोपः। अविशीर्णा अक्षीणा अपूपाः सुसंस्कृतभोजनपदार्थाअपिहिता आच्छादिता येषु तान्। सुसंस्कृतभोजनपदार्थपूर्णान् (कुम्भान्) पटान् (यान्) (ते) तुभ्यम् (देवाः) विद्वांसः (अधारयन्) धारितवन्तः (ते) कुम्भाः (ते)तुभ्यम् (सन्तु) (स्वधावन्तः) आत्मधाऱणशक्तियुक्ताः (मधुमन्तः) मधुरगुणोपेताः (घृतश्चुतः) श्चुतिर् क्षरणे-क्विप्। घृतस्य साररसस्य सेचकाः ॥
विषय
स्वधा, मधु, घृत
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जीवनीशक्ति व ज्योति को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि हमारा भोजन उत्तम हो। भोजन ही शक्ति व तीब्र बुद्धि को प्राप्त कराने का साधन है, अतः भोजन के विषय में कहते हैं कि (अपूपापिहितान) = [अपूपाः अपिहिता येष] जिनमें अविशीर्ण सुगन्धित [पूयी विशरणे दुर्गन्धे च] भोज्य पदार्थ ढककर रखे जाते हैं। (यान कम्भान्) = जिन कुम्भों को (देवा:) = व्यवहारकुशल शिल्पियों ने (अधारयन्) = तेरे लिए धारण किया है। (ते) = तेरे लिए (ते) = वे सब कुम्भ (स्वधावन्त:) = आत्मधारणयोग्य अनोंवाले, (मधुमन्त:) = मधुवाले [शहद] (घृतश्चुत:) = और घृत स्रवण करनेवाले हों।
भावार्थ
हमारे भोजन-पान अपूपों से पूर्ण हों-उनमें ऐसे भोज्य-पदार्थ हों जो शीघ्र विशीर्ण व दुर्गन्धित नहीं हो जाते। शरीर के धारण के योग्य अन्नों से वे परिपूर्ण हों। उनमें शहद हों, वे घृतपूर्ण हों।
भाषार्थ
हे ब्रह्मचारिन्! (देवाः) आचार्यदेवों ने (ते) तेरे लिये (अपूपापिहितान्) अपूपों अर्थात् मालपूड़ों से भरे (यान्) जिन (कुम्भात्) कुम्भों को (अधारयन्) सुरक्षित रख लिया है, (ते) वे (मधुमन्तः) मधुर तथा (घुतश्चुतः) घृतस्रावी कुम्भ (ते) तेरे लिये (स्वधावन्तः) बात्मधारण और पुष्टि के लिये हों।
टिप्पणी
[ब्रह्मचारी को आचार्यकुल में प्रविष्ट कराते समय ब्रह्मचारी के माता-पिता उत्तमोत्तम और पुष्टिदायक भोज्य पदार्थ भी भेंट में लायें। और समय-समय पर ये भेंट देते रहें, ताकि ब्रह्मचारी सुप्रसन्न होकर विद्याध्ययन कर सकें।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O lord, those generous and brilliant people, saints, sages and performers of yajna, bear, hold and offer jars full of rich delicacies for yajnic worship and hospitality to you, may those jars, we pray, be rich in their own essential yajnic wealth, honey sweets and abundance of ghrta.
Translation
What vessels covered with cakes the gods maintained for thee, be they for thee rich in svadhi, rich in honey, Gripping with ghee.
Translation
Let those jugs which full Apupas, the delicious preparations have been held affixed for you, O man, be rich with other cerials, rich with honey and rice with butter.
Translation
O man, let these utensils filled with cakes, which the learned have given thee, be full of nice food for thee, sweet like honey, invigorating like clarified butter!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६८−(अपूपापिहितान्) पानीविषिभ्यः पः। उ० ३।२३। नञ्+पूयी विशरणेदुर्गन्धे च-प प्रत्ययः, यलोपः। अविशीर्णा अक्षीणा अपूपाः सुसंस्कृतभोजनपदार्थाअपिहिता आच्छादिता येषु तान्। सुसंस्कृतभोजनपदार्थपूर्णान् (कुम्भान्) पटान् (यान्) (ते) तुभ्यम् (देवाः) विद्वांसः (अधारयन्) धारितवन्तः (ते) कुम्भाः (ते)तुभ्यम् (सन्तु) (स्वधावन्तः) आत्मधाऱणशक्तियुक्ताः (मधुमन्तः) मधुरगुणोपेताः (घृतश्चुतः) श्चुतिर् क्षरणे-क्विप्। घृतस्य साररसस्य सेचकाः ॥
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