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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 40
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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    त्रीणि॑ प॒दानि॑रु॒पो अन्व॑रोह॒च्चतु॑ष्पदी॒मन्वे॑तद्व्र॒तेन॑। अ॒क्षरे॑ण॒ प्रति॑ मिमीतेअ॒र्कमृ॒तस्य॒ नाभा॑व॒भि सं पु॑नाति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रीणि॑ । प॒दानि॑ । रु॒प: । अनु॑ । अ॒रो॒ह॒त् । चतु॑:ऽपदीम् । अनु॑ । ए॒त॒त् । व्र॒तेन॑ । अ॒क्षरे॑ण । प्रति॑ । मि॒मी॒ते॒ । अ॒र्कम् । ऋ॒तस्य॑ । नाभौ॑ । अ॒भि । सम् । पु॒ना॒ति॒ ॥३.४०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रीणि पदानिरुपो अन्वरोहच्चतुष्पदीमन्वेतद्व्रतेन। अक्षरेण प्रति मिमीतेअर्कमृतस्य नाभावभि सं पुनाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रीणि । पदानि । रुप: । अनु । अरोहत् । चतु:ऽपदीम् । अनु । एतत् । व्रतेन । अक्षरेण । प्रति । मिमीते । अर्कम् । ऋतस्य । नाभौ । अभि । सम् । पुनाति ॥३.४०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 40
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (रुपः) गतिमान् पुरुष (त्रीणि) तीनों [भूत, भविष्यत् और वर्तमान] (पदानि) पदों [अधिकारों] के (अनु)पीछे-पीछे (अरोहत्) प्रसिद्ध हुआ है, और (व्रतेन) व्रत [ब्रह्मचर्य आदि नियम] केसाथ (चतुष्पदीम्) चारों [धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष] में अधिकारवाली वेदवाणी के (अनु) पीछे-पीछे (ऐतत्) चला है। वह (अक्षरेण) व्यापक वा अविनाशी [परमात्मा]के साथ (अर्कम्) पूजनीय विचार को (प्रति) प्रत्यक्ष (मिमीते) करता है, और (ऋतस्य) सत्य धर्म की (नाभौ) नाभि में [सबको] (अभि) सब ओर से (सम्) यथावत् (पुनाति) शुद्ध करता है ॥४०॥

    भावार्थ

    चलते-फिरते उद्योगीस्त्री-पुरुष भूत, भविष्यत् और वर्तमान का विचार करके वेदद्वारा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को प्राप्त होवें और परमात्मा की आज्ञा का पालन करके सब मनुष्यों कोशुभ मार्ग पर चलावें ॥४०॥१−मन्त्र ४० और ४१ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।१३।३, ४ ॥२−संहिता के (ऐतत्) पद के स्थान पर पदपाठ में (एतत्) पद विचारणीय है॥

    टिप्पणी

    ४०−(त्रीणि) त्रिसंख्याकानि (पदानि) प्राप्तव्यानि भूतभविष्यद्वर्तमानवस्तूनि (रुपः) च्युवः किच्च। उ० ३।२४। रुङ् गतिरेषणयोः, रु शब्दे वा-पप्रत्ययः, कित्।गतिमान्। स्तोतव्यः पुरुषः (अनु) अनुसृत्य (अरोहत्) प्रादुरभवत् (चतुष्पदीम्)चतुर्वर्गे धर्मार्थकाममोक्षेषु पुरुषार्थेषु पदमधिकारो यस्यास्तां वेदवाणीम् (अनु) अनुसृत्य (ऐतत्) इण् गतौ-लङ्, तकारश्छान्दसः। ऐत्। प्राप्नोत् (व्रतेन)ब्रह्मचर्यादितपश्चरणेन (अक्षरेण) अ० ९।१०।२। अशू व्याप्तौ-सर। यद्वा नञ्+क्षरसंचलने-अच्। व्यापकेन विनाशरहितेन, इति प्रणवेन सह (प्रति) प्रत्यक्षम् (मिमीते) माङ् माने। करोति (अर्कम्) कृदाधारार्चिकलिभ्यः कः। उ० ३।४०। अर्चपूजायाम्-क, यद्वा, अर्च-घञ्, कुत्वम्। अर्को मन्त्रो भवति यदनेनार्चन्ति-निरु०५।४। पूजनीयं विचारम् (ऋतस्य) सत्यधर्मस्य (नाभौ) मध्यस्थाने (अभि) सर्वतः (सम्)सम्यक् (पुनाति) शोधयति सर्वान् ॥

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    विषय

    रुपः

    पदार्थ

    १. (रुपः) = [रुप् 10 suffer violent pain] अपने को तपस्या की अग्नि में तपानेवाला (ब्रह्मचारी त्रीणि पदानि अनु अरोहत्) = क्रमशः तीनों पदों का आरोहण करता है, सबसे पूर्व तैजस बनता है-तेजस्वी शरीरवाला, द्वितीय स्थान में 'वैश्वानर', सबके प्रति मन में हितार्थ भावनावाला बनता है तथा तृतीय स्थान में 'प्राज्ञ' अच्छी तरह ज्ञान का सम्पादन करनेवाला होता है। व्रतेन-इन तीन पदों पर आरोहण करनेरूप व्रत के द्वारा (चतुष्पदीम् अनु ऐतत्) [ऐत्] = चार पदोंवाली इस 'ऋक्, यजुः साम, अथर्व' रूप वेदवाणी को प्राप्त करता है। २. इस वेदवाणी का अध्ययन करता हुआ यह 'रुप' (अक्षरेण) = 'ओंकार' इस अक्षर के द्वारा [ओमित्यदक्षरमुद्गीथमु पासीत्] (अर्कम्) = अर्चनीय प्रभु को (प्रतिमिमीते) = जानने का प्रयत्न करता है और (ऋतस्य नाभौ) = [ऋत-यज्ञ] यज्ञ के बन्धन में (अभिसंपनाति) = अपने को अन्दर व बाहिर से सम्यक पवित्र करता है। यज्ञों में यह सतत प्रवृत्त रहता है। ये यज्ञ इसे स्वस्थ शरीरवाला व पवित्र मनवाला बनाते हैं। यही अन्दर व बाहिर से पवित्रीकरण है।

    भावार्थ

    तपस्या की अग्नि में अपने को तपाते हुए हम 'तैजस, वैश्वानर व प्राज्ञ' बनें। इस व्रत के द्वारा 'ऋक्, यजुः साम, अथर्व' रूप वेदवाणी को प्राप्त करें। वेदों के सारभूत 'ओम्' इस अक्षर के जप से प्रभु को जानने का यत्न करें। यज्ञों में बद्ध होते हुए स्वस्थ शरीर व पवित्र मनवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (रुपः) परमेश्वर पर विमोहित हुआ उपासक (तद्? व्रतेन) परमेश्वर के साक्षात्कार का व्रत धारण करके, ओ३म् के जप द्वारा, परमेश्वर के (त्रीणि पदानि) तीन पदों पर (अनु) अनुक्रम से (आरोहत्) आरोहण करता है। (अनु) तत्पश्चात उपासक (चतुष्पदीम्) चतुर्थपद को, अर्थात् परमेश्वर के तुर्य या तुरीय स्वरूप को (ऐत्) प्राप्त करता है। वह उपासक (अक्षरेण) ओ३म् के “अ,उ,म्” अक्षरों द्वारा (अर्कम्) अर्चनीय परमेश्वर को (प्रतिमिमीते) मापता है, जानता है, और (ऋतस्य) सत्यज्ञान की (नाभौ) जननी परमेश्वर में (अभि) उसके साक्षात् अभिमुख होकर (सम् पुनाति) सम्यक् प्रकार से अपने आप को पवित्र करता है।

    टिप्पणी

    [अक्षरेण्य— ‘ओ३म्’ के तीन अक्षर, अर्थात् “अ,उ,म्” द्वारा परमेश्वर के नामों के तीन त्रिक अभिप्रेत हैं। “अ” द्वारा (१) विराट्, अग्नि, और विश्व। “उ” द्वारा (२) हिरण्यगर्भ, वायु, और तेजस। “म्” द्वारा (३) ईश्वर, आदित्य, और प्राज्ञ। इन तीन त्रिक-नामों द्वारा परमेश्वर के जगत्-सम्बन्धी स्वरूपों का वर्णन होता है। इस प्रकार एक-एक मात्रा से तीन-तीन अर्थ द्योतित होते हैं। इनका पारस्परिक सम्बन्ध निम्न प्रकार से जानना चाहिये— अ= विराट् अग्नि विश्व। उ= हिरण्यगर्भ वायु तेजस। म्= ईश्वर आदित्य प्राज्ञ। इनमें से (१) स्थूल से सूक्ष्म की ओर क्रम से आरोहण करना होता है। विराट् अर्थात् स्थूलरूप जगत् में व्यापक परमेश्वर का ध्यान कर, उस के हिरण्यगर्भ स्वरूप अर्थात् सूक्ष्मरूप जगत् में व्यापक स्वरूप तक आरोहण कर, उसके ईश्वर स्वरूप अर्थात् कारणभूत प्रकृति में व्यापक स्वरूप तक आरोहण करना होता है। इसी प्रकार संख्या (२) और (३) के स्वरूपों पर भी अनुक्रम से आरोहण करना होता है। इन स्वरूपों की विशेष व्याख्या “सत्यार्थ प्रकाश” के प्रथम समुल्लास में देखनी चाहिये। ओ३म् के “अमात्र” स्वरूप द्वारा परमेश्वर की तुर्यावस्था तक आरोहण करना होता है। जगत् के सम्बन्ध से रहित उसके सद्-चित्-आनन्दमय रूप को तुर्य ब्रह्म कहते हैं। इसका वर्णन माण्डूक्योपनिषद् में है। नाभौ= नाभि स्थान है उत्पत्ति का। रुपः= ‘रुप विमोहने’, अर्थात् सांसारिक भोगों के मोह से विरत होकर, परमेश्वर के साथ विशेष मोह पैदा करनेवाला उपासक। अन्वैतद्=अन्वैत तद् ?। इससे द्वितीय पाद के ग्यारह अक्षर हो जाते हैं। मन्त्र के शेष तीन पादों के ग्यारह-ग्यारह अक्षर हैं। इस प्रकार मन्त्र त्रिष्टुप् छन्द का हो जाता है। अक्षरपरिमाणं छन्दः बृहत्सर्वानुक्रमणी। “अक्षरेण प्रति मिमीते अर्कम्” का सामान्य अर्थ यह भी हो सकता है कि “अक्षरों की संख्या द्वारा मन्त्रों को मापता है”। प्रत्येक मन्त्र के छन्द को अक्षरसंख्या द्वारा निश्चित किया जाता है। अर्क= मन्त्र। “अर्कः मन्त्रो भवति यदनेनार्चन्ति ” (निरु० ५।१।४)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Man through meditation on Aum rises and covers three phases of the existential world and the corresponding three pervasive phases of Supreme Brahma, and moves on to the fourth, Turiya phase, the silent phase of Aum and transcendent phase of Brahma, through continued meditation in relentless discipline. Thus by Akshara, the Word, Aum, he realises the self- refulgent eternal Brahma and ultimately sanctifies himself absolutely at the very centre seed and origin of Rtam, constant existence beyond the mutable. (Reference for four phases of Aum and Brahma may be made to Mandukyopanishad, and to Chhandogyopanishad 1, 1-7 for meditative study of Aum).

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    Translation

    Three steps the form ascended, it went after the four-footed one with its course; it matches the song with the syllable; in the navel of right it purifies.

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    Translation

    The man possessing brilliance of knowledge ascends to know three Padas, the kinds of speech (i. e. pashyanti, madhyama and vaikhari) and after this knows the fourth speech through practice of devout austerity. He with syllable Aum measure the Rik and purifies him in the mind of God who is the centre of law eternal.

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    Translation

    The soul masters the three-fold knowledge of the Vedas. Through the vow of celibacy it studies the four Vedas. With the help of the Immortal Om it visualizes the Adorable God in each object. It purifies itself realizing through engrossment, God, the Refuge of the world.

    Footnote

    Threefold: Knowledge (Jnana) Action (Karma) Contemplation (Upasana). Four Vedas: Rig, Yajur, Sama, Atharva. See Rig, 10-13-3. Griffith remarks this verse is unintelligible. He has failed to understand its significance.]

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४०−(त्रीणि) त्रिसंख्याकानि (पदानि) प्राप्तव्यानि भूतभविष्यद्वर्तमानवस्तूनि (रुपः) च्युवः किच्च। उ० ३।२४। रुङ् गतिरेषणयोः, रु शब्दे वा-पप्रत्ययः, कित्।गतिमान्। स्तोतव्यः पुरुषः (अनु) अनुसृत्य (अरोहत्) प्रादुरभवत् (चतुष्पदीम्)चतुर्वर्गे धर्मार्थकाममोक्षेषु पुरुषार्थेषु पदमधिकारो यस्यास्तां वेदवाणीम् (अनु) अनुसृत्य (ऐतत्) इण् गतौ-लङ्, तकारश्छान्दसः। ऐत्। प्राप्नोत् (व्रतेन)ब्रह्मचर्यादितपश्चरणेन (अक्षरेण) अ० ९।१०।२। अशू व्याप्तौ-सर। यद्वा नञ्+क्षरसंचलने-अच्। व्यापकेन विनाशरहितेन, इति प्रणवेन सह (प्रति) प्रत्यक्षम् (मिमीते) माङ् माने। करोति (अर्कम्) कृदाधारार्चिकलिभ्यः कः। उ० ३।४०। अर्चपूजायाम्-क, यद्वा, अर्च-घञ्, कुत्वम्। अर्को मन्त्रो भवति यदनेनार्चन्ति-निरु०५।४। पूजनीयं विचारम् (ऋतस्य) सत्यधर्मस्य (नाभौ) मध्यस्थाने (अभि) सर्वतः (सम्)सम्यक् (पुनाति) शोधयति सर्वान् ॥

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