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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 96/ मन्त्र 14
    ऋषिः - रक्षोहाः देवता - गर्भसंस्रावप्रायश्चित्तम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९६
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    यस्त॑ ऊ॒रू वि॒हर॑त्यन्त॒रा दम्प॑ती॒ शये॑। योनिं॒ यो अ॒न्तरा॒रेढि तमि॒तो ना॑शयामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । ते॒ । ऊ॒रू इति॑ । वि॒ऽहर॑ति । अ॒न्त॒रा । दम्प॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । शये॑ ॥ योनि॑म् । य: । अ॒न्त: । आ॒ऽरेल्हि॑ । तम् । इ॒त: । ना॒श॒या॒म॒सि॒ ॥९६.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्त ऊरू विहरत्यन्तरा दम्पती शये। योनिं यो अन्तरारेढि तमितो नाशयामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । ते । ऊरू इति । विऽहरति । अन्तरा । दम्पती इति दम्ऽपती । शये ॥ योनिम् । य: । अन्त: । आऽरेल्हि । तम् । इत: । नाशयामसि ॥९६.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    गर्भरक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो कोई [रोग] (ते) तेरी (ऊरू) दोनों जंघाओं को (विहरति) फैला दे और (दम्पती अन्तरा) पति-पत्नी के बीच में (शये) पड़ जावे और (यः) जो कोई [रोग] (योनिम्) योनि को (अन्तः) भीतर से (आरेढि) चाट लेवे, (तम्) उस [रोग] को (इतः) यहाँ से (नाशयामसि) हम नाश करें ॥१४॥

    भावार्थ

    जिस रोग से स्त्री की जांघें फैल जावें, और जिस रोग से सन्तान उत्पन्न करने में स्त्री-पुरुषों को विघ्न होवें और योनि आदि में सूखा का रोग लग जावे, उस सबका औषध करना चाहिये ॥१४॥

    टिप्पणी

    १४−(यः) रोगः (ते) तव (ऊरू) जङ्घे। पादमूलौ (विहरति) विश्लिष्टे करोति (दम्पती अन्तरा) जायापत्न्योर्मध्ये (शये) शेते। वर्तते (योनिम्) गर्भाशयम् (यः) रोगः (अन्तः) मध्ये (आरेढि) लिह आस्वादने, आदादिकः, कपिलकादित्वाल् लत्वविकल्पः। आस्वादयति। शोषयति निषक्तं रेतः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    पति-पत्नी के शरीर-दोषों का निराकरण

    पदार्थ

    १. हे नारि! (यः) = जो (ते) = तेरी (विहरति) = जाँघों में विहार करता है, (तम्) = उस रोगकृमि को हम (इत:) = यहाँ से (नाशयामसि) = नष्ट करते हैं। २. जो भी रोग (दम्पती) = पति-पत्नी के (अन्तरा) = देह के मध्य में गुप्तरूप से रहता है, उसको भी नष्ट करते हैं। ३. और (य:) = जो तेरी (योनिम अन्त:) = योनि में प्रविष्ट होकर (आरेढि) = आहित वीर्य को ही चाट जाता है, उस कृमि को भी हम विनष्ट करते

    भावार्थ

    हम पति-पत्नी के शरीर-दोषों को दूर करते हैं, जिससे सन्तान नीरोग हों।

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    भाषार्थ

    हे स्त्री! (यः) जो रोगोत्पादक कृमि (ते) तेरी (ऊरू) दो जांघों के (अन्तरा) बीच अर्थात् मध्य में विद्यमान योनि में (विहरति) विचरता है, अथवा जो रोगोत्पादक कृमि (दम्पती) पति-पत्नी के सहवास (अन्तरा) में (आ शये) आकर मानो कुछ काल तक सोया सा रहता है, और कालान्तर में जिसके लक्षण प्रकट होते हैं, या (यः) जो रोगोत्पादक कृमि (अन्तरा) तेरे गर्भाशय में घुसा हुआ (आरेल्हि) तेरे गर्भ को चट कर देता है, (तम्) उस कृमि को (इतः) इन उपर्युक्त ओषधियों द्वारा (नाशयामसि) हम चिकित्सक विनष्ट करते हैं।

    टिप्पणी

    [सिफ़लिस या गनोरिया आदि रोग या तो पत्नी में हो, या पति के सहवास द्वारा पति से प्राप्त हो—उसके विनाश का वर्णन मन्त्र में हुआ है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    Whatever disturbs your thighs, interferes with the conjugal relation of the wife and husband, disturbs the couple in sleep or destroys the seed and the embryo in the womb, we destroy and eliminate from here.

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    Translation

    I, the physician exterminate that germ of disease which divide your legs, which being a third lies between the married pair and which penetrates and licks your side.

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    Translation

    I, the physician exterminate that germ of disease which divide your legs, which being a third lies between the married pair and which penetrates and licks your side.

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    Translation

    O woman, we will altogether exterminate, from this world, the wicked person, who enjoys thee in the assumed garb of a brother, husband or the lover, and kills thy progeny.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(यः) रोगः (ते) तव (ऊरू) जङ्घे। पादमूलौ (विहरति) विश्लिष्टे करोति (दम्पती अन्तरा) जायापत्न्योर्मध्ये (शये) शेते। वर्तते (योनिम्) गर्भाशयम् (यः) रोगः (अन्तः) मध्ये (आरेढि) लिह आस्वादने, आदादिकः, कपिलकादित्वाल् लत्वविकल्पः। आस्वादयति। शोषयति निषक्तं रेतः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মন্ত্র ১১-১৬-গর্ভরক্ষোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যঃ) যা কিছু [রোগ] (তে) তোমার (ঊরূ) উভয় উরুকে (বিহরতি) বিস্তৃত করে দেয় এবং (দম্পতী অন্তরা) পতি-পত্নীর মধ্যে (শয়ে) স্থিত থাকে/হয় এবং (যঃ) যে/যা কিছু [রোগ] (যোনিম্) যোনির (অন্তঃ) অভ্যন্তর (আরেঢি) শুষ্ক করে, (তম্) সেই [রোগকে] (ইতঃ) এখান থেকে (নাশয়ামসি) আমরা বিনাশ করি ॥১৪॥

    भावार्थ

    যে রোগের ফলে স্ত্রী-এর উরু বিস্তৃত হয়, এবং যে রোগের ফলে সন্তান উৎপন্ন করার ক্ষেত্রে স্ত্রী-পুরুষদের মধ্যে বাধা হয় এবং যোনিদেশ শুষ্ক করে, সেই সকল রোগকে ঔষধি দ্বারা নাশ করা উচিৎ ॥১৪॥

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    भाषार्थ

    হে স্ত্রী! (যঃ) যে রোগোৎপাদক কৃমি (তে) তোমার (ঊরূ) দুই ঊরুর (অন্তরা) মাঝখানে বিদ্যমান যোনিতে (বিহরতি) বিচরণ করে, অথবা যে রোগোৎপাদক কৃমি (দম্পতী) পতি-পত্নীর সহবাস (অন্তরা) অন্তরায়ে (আ শয়ে) এসে মানো কিছু কাল পর্যন্ত শয়ন করে, এবং কালান্তরে যার লক্ষণ প্রকট হয়, বা (যঃ) যে রোগোৎপাদক কৃমি (অন্তরা) তোমার গর্ভাশয়ে প্রবিষ্ট (আরেঢি) তোমার গর্ভ নষ্ট করে, (তম্) সেই কৃমিকে (ইতঃ) এই উপর্যুক্ত ঔষধি-সমূহ দ্বারা (নাশয়ামসি) আমরা চিকিৎসক বিনষ্ট করি।

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