अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 96/ मन्त्र 7
ऋषिः - पूरणः
देवता - इन्द्राग्नी, यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-९६
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यदि॑ क्षि॒तायु॒र्यदि॑ वा॒ परे॑तो॒ यदि॑ मृ॒त्योर॑न्ति॒कं नीत ए॒व। तमा ह॑रामि॒ निरृ॑तेरु॒पस्था॒दस्पा॑र्शमेनं श॒तशा॑रदाय ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । क्षि॒तऽआ॑यु: । यदि॑ । वा॒ । परा॑ऽइत: । यदि॑ । मृ॒त्यो: । अ॒न्ति॒कम् । नि॒ऽइ॑त: । ए॒व ॥ तम् । आ । ह॒रा॒मि॒ । नि:ऽऋ॑ते: । उ॒पऽस्था॑त् । अस्पा॑र्शम् । ए॒न॒म् । श॒तऽशा॑रदाय ॥९६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
यदि क्षितायुर्यदि वा परेतो यदि मृत्योरन्तिकं नीत एव। तमा हरामि निरृतेरुपस्थादस्पार्शमेनं शतशारदाय ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । क्षितऽआयु: । यदि । वा । पराऽइत: । यदि । मृत्यो: । अन्तिकम् । निऽइत: । एव ॥ तम् । आ । हरामि । नि:ऽऋते: । उपऽस्थात् । अस्पार्शम् । एनम् । शतऽशारदाय ॥९६.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
रोग नाश करने का उपदेश।
पदार्थ
(यदि) चाहे [यह] (क्षितायुः) टूटी आयुवाला (यदि वा) अथवा (परेतः) अङ्गभङ्ग है, (यदि) चाहे, (मृत्योः) मृत्यु के (अन्तिकम्) समीप (एव) ही (नीतः=नि-इतः) आ चुका है। (तम्) उसको (निर्ऋतेः) महामारी की (उपस्थात्) गोद से (आ हरामि) लिये आता हूँ, (एनम्) इसको (शतशारदाय+जीवनाय) सौ शरद् ऋतुओंवाले [जीवन] के लिये (अस्पार्शम्) मैंने छुआ है ॥७॥
भावार्थ
जैसे चतुर वैद्य यत्न करके भारी-भारी रोगियों को चंगा करता है, ऐसे ही मनुष्य शरीरिक, आत्मिक और सामाजिक कठिन संकट पड़ने पर अपने आत्मा को प्रबल रक्खे ॥७॥
टिप्पणी
७−(अस्पार्शम्) स्पृष्टवानस्मि। अन्यद् गतम् ॥
विषय
निर्ऋति की गोद से बाहर
पदार्थ
१. (यदि) = यदि क्षितायु:-यह रुग्ण पुरुष क्षीण आयुष्यवाला हो गया है। यदि वा अथवा परा इत: रौग में बहुत दूर पहुँच गया है। यदि-यदि मृत्योः अन्तिकम् मृत्यु के समीप नीतः एव-पहुँच ही गया है तो भी तम्-उसको निते:-दुर्गति की उपस्थात्-गोद से आहरामि-छीन लाता हूँ। २. इसप्रकार एनम् इसे रोगमुक्त करके शतशारदाय-पूरे सौ वर्ष के जीवन के लिए अस्पार्षम्-[स्मृ बलप्रीणनयोः] बलयुक्त करता हूँ।
भावार्थ
अग्निहोत्र के द्वारा तीव्रतम रोगों से भी मुक्ति होकर दीर्घजीवन की प्राप्ति होती हैं।
भाषार्थ
(यदि क्षितायुः) यदि रोगी समझता है कि उसकी आयु अर्थात् जीवन-काल समाप्त हो गया है, (यदि वा) अथवा (परेतः) जीवन से रोगी यदि पराङ्मुख हो गया है, और (यदि) अगर (मृत्योः) मृत्यु के (अन्तिकम्) समीप वह (नीत एव) पहुँच ही गया है, तब भी मैं चिकित्सक (निऋर्तेः) रोगजन्य कष्ट की (उपस्थात्) गोद से (तम्) उसे (आहरामि) छीन लाता हूँ; मैंने (एनम्) इस रोगी को, (शतशारदाय) सौ वर्षों तक जीने के लिए, (अस्पार्शम्) हस्तस्पर्श कर दिया है।
टिप्पणी
[पूर्व मन्त्र ६ में रोगी को रोग से छुड़ाने के दो उपाय दर्शाए हैं—(१) उचित ओषधियों को अग्नि में डाल कर, निकले धूम्र का पान। इसके द्वारा ओषधि का सूक्ष्मांश फेफड़ों में पहुंचकर, रक्तप्रवाह द्वारा, रोग का शीघ्र विनाश करता है। साथ ही गृहशुद्धि भी हो जाती है। (२) परमेश्वरीय-प्रार्थना। मन्त्र ७ में हस्तस्पर्श-चिकित्सा का वर्णन हुआ। हस्तस्पर्श-चिकित्सा का उत्तम वर्णन निम्नलिखित मन्त्रों में भी हुआ है। यथा— अ॒यं मे॒ हस्तो॒ भग॑वान॒यं मे॒ भग॑वत्तरः। अ॒यं मे॑ वि॒श्वभे॑षजो॒यं शि॒वाभि॑मर्शनः॥ हस्ता॑भ्यां॒ दश॑शाखाभ्यां जि॒ह्वा वा॒चः पु॑रोग॒वी। अ॒ना॒म॒यि॒त्नुभ्यां॒ हस्ता॑भ्यां॒ ताभ्यां॑ त्वा॒भि मृ॑शामसि॥ अथर्व০ ४.१३.६, ७॥ इन दो मन्त्रों का अंग्रेजी अनुवाद—”This is my fortunate hand, this may more fortunate one, this may all-healing one, this is of propitious touch with two ten-branched hands- the tongue is forerunner of voice-with two disease-removing hands : with them do we touch thee”. [इन दो मन्त्रों में हस्तस्पर्श के साथ-साथ, जिह्वा द्वारा बोल कर रोगी को रोगोन्मुक्ति के आश्वासन भी देने चाहिएँ। मन्त्र ७ में यह भी दर्शाया है कि जीवन की कोई नियत अवधि नहीं होती। स्वास्थ्य के नियमों के पालन से तथा यथोचित उपचार द्वारा १०० वर्षों की आयु सम्भव है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Brhaspati Devata
Meaning
If the patient is extremely debilitated, sunk beyond hope, almost gone to the brink of death, I touch and bring him back from the depth of despair to live his full hundred years of life. (The word ‘asparsham’ suggests the efficacy of touch therapy.)
Translation
Be his days ended, be he in a serious condition and be he brought to death already I, the physician bring him out of the lap of destruction and save him to live a life lasting hundred autumns.
Translation
Be his days ended, be he in a serious condition and be he brought to death already I, the physician bring him out of the lap of destruction and save him to live a life lasting a hundred autumns.
Translation
See Ath. 3.11. 3
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(अस्पार्शम्) स्पृष्टवानस्मि। अन्यद् गतम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
৬-১০-রোগনাশনোপদেশঃ
भाषार्थ
(যদি) হোক [এ] (ক্ষিতায়ুঃ) ভঙ্গুর আয়ুসম্পন্ন, (যদি বা) অথবা (পরেতঃ) অঙ্গ-ভঙ্গ রয়েছে, (যদি) হোক (মৃত্যোঃ) মৃত্যুর (অন্তিকম্) কাছে (এব) ই (নীতিঃ=নি−ইতঃ) এসে গেছে। (তম্) তাঁকে (নির্ঋতেঃ) মহামারীর (উপস্থাৎ) কোল থেকে (আ হরাভি) নিয়ে আসি, (এনম্) একে (শতশারদায়+জীবনায়) শত শরৎ ঋতুসম্পন্ন [জীবন] এর জন্য (অস্পার্শম্) আমি স্পর্শ করেছি॥৭॥
भावार्थ
যেভাবে চতুর বৈদ্য যত্ন করে কঠিন-কঠিন রোগীদের সতেজ করে, এভাবেই মনুষ্য শারীরিক, আত্মিক ও সামাজিক কঠিন সংকট পড়লে নিজের আত্মাকে প্রবল রাখুক ॥৭॥
भाषार्थ
(যদি ক্ষিতায়ুঃ) যদি রোগী মনে করে, তাঁর আয়ু অর্থাৎ জীবন-কাল সমাপ্ত হয়েছে, (যদি বা) অথবা (পরেতঃ) জীবন থেকে রোগী যদি পরাঙ্মুখ হয়েছে, এবং (যদি) যদি (মৃত্যোঃ) মৃত্যুর (অন্তিকম্) সমীপে সেই (নীত এব) পৌঁছে গেছে, তবুও আমি চিকিৎসক (নিঋর্তেঃ) রোগজন্য কষ্টের (উপস্থাৎ) কোল থেকে (তম্) তাঁকে (আহরামি) হরণ করি/করে নিয়ে আসি; আমি (এনম্) এই রোগীকে, (শতশারদায়) শত বর্ষ পর্যন্ত জীবনধারণের জন্য, (অস্পার্শম্) হস্তস্পর্শ করেছি।
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