अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 96/ मन्त्र 23
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-९६
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अङ्गेअ॑ङ्गे॒ लोम्नि॑लोम्नि॒ यस्ते॒ पर्व॑णिपर्वणि। यक्षं॑ त्वच॒स्यं ते व॒यं क॒श्यप॑स्य वीब॒र्हेण॒ विष्व॑ञ्चं॒ वि वृ॑हामसि ॥
स्वर सहित पद पाठअङ्गे॑ऽअङ्गे । लोम्नि॑ऽलोम्नि । ते॒ । पर्व॑णिऽपर्व॑णि ॥ यक्ष्म॑म् । त्व॒च॒स्य॑म् । ते॒ । व॒यम् । क॒श्यप॑स्य । वि॒ऽब॒र्हेण॑ । वि॒ष्व॑ञ्चम् । वि । वृहा॒म॒सि॒ ॥९६.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
अङ्गेअङ्गे लोम्निलोम्नि यस्ते पर्वणिपर्वणि। यक्षं त्वचस्यं ते वयं कश्यपस्य वीबर्हेण विष्वञ्चं वि वृहामसि ॥
स्वर रहित पद पाठअङ्गेऽअङ्गे । लोम्निऽलोम्नि । ते । पर्वणिऽपर्वणि ॥ यक्ष्मम् । त्वचस्यम् । ते । वयम् । कश्यपस्य । विऽबर्हेण । विष्वञ्चम् । वि । वृहामसि ॥९६.२३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
शारीरिक विषय में शरीररक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो [क्षयी रोग] (ते) तेरे (अङ्गे अङ्गे) अङ्ग-अङ्ग में, (लोम्निलोम्नि) रोम-रोम में और (पर्वणिपर्वणि) गाँठ-गाँठ में है। (वयम्) हम (ते) तेरे (त्वचस्यम्) त्वचा के और (विष्वञ्चम्) सब अवयवों में व्यापक (यक्ष्मम्) क्षयी रोग को (कश्यपस्य) ज्ञानदृष्टिवाले विद्वान् के (विबर्हेण) विविध उद्यम से (वि वृहामसि) जड़ से उखाड़ते हैं ॥२३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपसंहार वा समाप्ति है, अर्थात् प्रसिद्ध अवयवों का वर्णन करके अन्य सब अवयवों का कथन है। जिस प्रकार, सद्वैद्य निदानपूर्वक रोगों के जोड़-जोड़ में से रोग का नाश करता है, वैसे ही ज्ञानी पुरुष निदिध्यासनपूर्वक आत्मिक दोषों को मिटाकर प्रसन्नचित्त होता है ॥२३॥
टिप्पणी
१७-२३−व्याख्याताः-अ० २।३३।१-७ ॥
विषय
प्रत्यंग रोग-विनाश
पदार्थ
१. हे रुग्ण! (ते) = तेरे (अङ्गे अङ्गे) = सब अवयवों में, (लोम्नि लोम्नि) = सब रोमकूपों में (पर्वणि पर्वणि) = सब पर्वो में-सन्धियों में होनेवाले यक्ष्मम् रोग को (विवाहामसि) = पृथक करते है। २. (वयम्) = हम (ते) = तेरे (त्वचस्यम्) = त्वचा में होनेवाले (विष्वञ्चम्) = चक्षु आदि सब अवयवों में व्यास होनेवाले रोग को (कश्यपस्य) = ज्ञानी पुरुष के (वीबर्हेण) = रोगघातक प्रयोग से नष्ट करते हैं।
भावार्थ
ज्ञानी वैद्य रोग के मूलकारण को समझकर अंग-प्रत्यंग से रोगों को विनष्ट करता रोग-विनाश द्वारा सर्वाङ्ग स्वस्थ होकर यह 'प्रचेता' प्रकृष्ट ज्ञानी बनता है और पाप को अपने से दूर भगाता हुआ कहता है
भाषार्थ
हे रोगी! (ते) तेरे (अङ्गे-अङ्गे) अङ्ग-अङ्ग में, (लोम्नि-लोम्नि) रोम-रोम में (पर्वणि-पर्वणि) जोड़-जोड़ में स्थित (ते) तेरे (त्वचस्यम्) त्वचा-संस्थान सम्बन्धी (यक्ष्मम्) यक्ष्म-रोग को, तथा (विष्वञ्चम्) सर्वत्र फैले यक्ष्मा रोग को, (वयम्) हम चिकित्सक, (कश्यपस्य) कश्यप के (वीबर्हेण) जड़ काट देनेवाले साधन द्वारा (वि वृहामसि) दूर करते हैं।
टिप्पणी
[“कश्यप का वीबर्ह” क्या है, यह विचारणीय है। अथर्ववेदीय चिकित्साशास्त्र (स्वामी ब्रह्ममुनि जी, दयानन्द संस्थान, दिल्ली) में चन्द्रमा और सूर्य को “कश्यप” कहा है, और उनकी किरणों को “वीबर्ह” कहा है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Brhaspati Devata
Meaning
The consumptive cancerous disease which has spread all over your skin and body in every part, every pore and hair, and every joint, we remove and uproot with the diagnosis and judicious treatment by the kashyapa, enlightened physician.
Translation
I drive away disease from every member of the body, from every hair, from every joints and drive away infection from skin and all disease through the endevour of the men possessing the knowledge of rare things.
Translation
I drive away disease from every member of the body, from every hair, from every joints and drive away infection from skin and all disease through the endeavor of the men possessing the knowledge of rare things.
Translation
O the depressor of the mind, evil though or bad dream, get away; depart and vanish far away. Order the evil tendency to be away. Manifold is the working of mind of the living soul.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७-२३−व्याख्याताः-अ० २।३३।१-७ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মন্ত্রাঃ ১৭-২৩-শারীরিকবিষয়ে শরীররক্ষোপদেশঃ
भाषार्थ
(যঃ) যে [ক্ষয়ী রোগ] (তে) তোমার (অঙ্গে-অঙ্গে) অঙ্গে-অঙ্গে, (লোম্নি–লোম্নি) লোমে-লোমে (পর্বণি–পর্বণি) গাঁটে-গাঁটে আছে। (বয়ম্) আমরা (তে) তোমার (ৎবচস্যম্) ত্বকের এবং (বিষ্বঞ্চম্) সব অবয়বে ব্যাপক (যক্ষ্মম্) ক্ষয়ীরোগকে (কশ্যপস্য) জ্ঞানদৃষ্টি-সম্পন্ন বিদ্বানের (বিবর্হেণ) বিবিধ উদ্যম দ্বারা (বি বৃহামসি) সমূলে উৎখাত করে দিই ॥২৩॥
भावार्थ
এই মন্ত্রে উপসংহার বা সমাপ্তি আছে অর্থাৎ প্রসিদ্ধ অবয়বের বর্ণনা করে অন্য সব অবয়বের কথন আছে। যেভাবে সদ্বৈদ্য নিদানপূর্বক রোগীর জোড়-জোড় থেকে রোগের নাশ করে, সেভাবেই জ্ঞানী পুরুষ নিদিধ্যাসনপূর্বক আত্মিক দোষ দূর করে প্রসন্নচিত্ত হয় ॥২৩॥
भाषार्थ
হে রোগী! (তে) তোমার (অঙ্গে-অঙ্গে) অঙ্গ-অঙ্গে, (লোম্নি-লোম্নি) লোম-লোমে (পর্বণি-পর্বণি) পর্বে-পর্বে স্থিত (তে) তোমার (ত্বচস্যম্) ত্বক-সংস্থান সম্বন্ধীয় (যক্ষ্মম্) যক্ষ্মা-রোগ, তথা (বিষ্বঞ্চম্) সর্বত্র বিস্তৃত যক্ষ্মা রোগ, (বয়ম্) আমরা চিকিৎসক, (কশ্যপস্য) কশ্যপ-এর (বীবর্হেণ) মূল কর্তনকারী সাধন দ্বারা (বি বৃহামসি) দূর করি।
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