अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 20
ऋषिः - अथर्वा
देवता - वरणमणिः, वनस्पतिः, चन्द्रमाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सपत्नक्षयणवरणमणि सूक्त
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यथा॒ यशः॑ क॒न्यायां॒ यथा॒स्मिन्त्संभृ॑ते॒ रथे॑। ए॒वा मे॑ वर॒णो म॒णिः की॒र्तिं भूतिं॒ नि य॑च्छतु। तेज॑सा मा॒ समु॑क्षतु॒ यश॑सा॒ सम॑नक्तु मा ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । यश॑: । क॒न्या᳡याम् । यथा॑ । अ॒स्मिन् । सम्ऽभृ॑ते । रथे॑ । ए॒व । मे॒ । व॒र॒ण: । म॒णि: । की॒र्तिम् । भूति॑म् । नि । य॒च्छ॒तु॒ । तेज॑सा । मा॒ । सम् । उ॒क्ष॒तु॒ । यश॑सा । सम् । अ॒न॒क्तु॒ । मा॒ ॥३.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा यशः कन्यायां यथास्मिन्त्संभृते रथे। एवा मे वरणो मणिः कीर्तिं भूतिं नि यच्छतु। तेजसा मा समुक्षतु यशसा समनक्तु मा ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । यश: । कन्यायाम् । यथा । अस्मिन् । सम्ऽभृते । रथे । एव । मे । वरण: । मणि: । कीर्तिम् । भूतिम् । नि । यच्छतु । तेजसा । मा । सम् । उक्षतु । यशसा । सम् । अनक्तु । मा ॥३.२०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सब सम्पत्तियों के पाने का उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जैसा (यशः) यश (कन्यायाम्) कामनायोग्य [कन्या] में और (यथा) जैसा (अस्मिन्) इस (संभृते) सुन्दर बने (रथे) रथ में है, (एव) वैसे ही (मे) मेरे लिये.... म० १७ ॥२०॥
भावार्थ
जैसे सुशीला गुणवती कन्या से माता-पिता आदि कीर्ति पाते हैं और जैसे सुन्दर यान विमान आदि से बनानेवाले की शिल्पविद्या प्रख्यात होती हैं, वैसे ही सब मनुष्य अपनी कीर्ति बढ़ावें ॥२०॥
टिप्पणी
२०−(कन्यायाम्) अ० १।१४।२। कन प्रीतौ द्युतौ गतौ च-यक्, टाप्। कमनीयाया पुत्र्याम् (संभृते) सम्यक् पोषिते रचिते (रथे) यानविमानादौ। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
सूर्यः देवः
पदार्थ
१. (यथा) = जैसे (सूर्यः) = सूर्य (अतिभाति) अतिशयेन चमकता है, (यथा) = जैसे (अस्मिन) = इसमें (तेजः आहितम्) = तेज स्थापित हुआ है, (एव) = इसी प्रकार मे मेरे लिए (वरण: मणि:) = यह रोगनिवारक वीर्यमणि (कीर्तिम्) = कीर्ति [fame, glory] व (भूतिम्) = ऐश्वर्य को (नियच्छतु) = दे। यह (मा) = मुझे (तेजसा) = तेजस्विता से (समुक्षतु) = सिक्त करे, (यशसा) = [beauty, splendour] सौन्दर्य से (मा समनक्तु) = मुझे अलंकृत करे । २. (यथा) = जैसे( चन्द्रमसि) = चन्द्रमा में (यश:) = सौन्दर्य है, (च) = और (नृचक्षसि आदित्ये) = जैसा सौन्दर्य मनुष्यों को देखनेवाले-उनका पालन करनेवाले [look after] सूर्य में है, (यथा) = जैसा (यश:) = सौन्दर्य (प्रथिव्याम्) = इस पृथिवी में है, और (यथा) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् जातवेदसि) = इस अग्नि में है। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (कन्यायाम्) = इस युवति कन्या में है, और (यथा) = जैसा सौन्दर्य इस (संभृते रथे) = सम्यक् भृत-जिसके सब अवयव सम्यक् जुड़े हुए हैं, ऐसे रथ में हैं। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (सोमपीथे) = सोम [वीर्य] के शरीर में ही सुरक्षित करने में है और (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (मधुपर्के) = अतिथि को दिये जानेवाले पूजाद्रव्य में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य अग्निहोत्रे-अग्निहोत्र में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (वषट्कारे) = स्वाहाकार के उच्चारण में है। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (यजमाने) = यज्ञशील पुरुष में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् यज्ञे) = इस यज्ञ में (आहितम्) = स्थापित हुआ है। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (प्रजापतौ) = प्रजाओं के रक्षक राजा में है और (यथा) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् परमेष्ठिनि) = इस परमस्थान में स्थित प्रभु में है, इसी प्रकार यह वरणमणि मुझे यश [सौन्दर्य] से अलंकृत करे। ३. (यथा) = जैसे (देवेषु) = देववृत्ति के व्यक्तियों में (अमृतम्) = नीरोगता आहित होता है, (यथा) = जैसे (एषु) = इन देवों में (सत्यं आहितम्) = सत्य स्थापित होता है। देव नीरोग होते है और कभी अनृत नहीं बोलते, इसी प्रकार यह वरणमणि मुझे कीर्ति व ऐश्वर्य प्राप्त कराए। यह मुझे तेज से सिक्त करे और सौन्दर्य से अलंकृत करे।
भावार्थ
वरणमणि [वीर्य] के रक्षण से जीवन सूर्यसम दीप्तिवाला होता है, जीवन चन्द्र की भाँति चमकता है, शरीर-रथ संभृत होता है, हमारी प्रवृत्ति यज्ञशीलतावाली होती है व हम नीरोगता तथा सत्य का धारण करते हुए देव बनते हैं।
देववृत्ति का पुरुष अपने जीवन में 'गरुत्मान् तक्षक:'-[गरुतः अस्य सन्ति] विविध ज्ञानरूप पक्षावाला तथा निर्माता-निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त होता है। इसका चित्रण इसप्रकार है -
भाषार्थ
(यथा) जैसा (यशः) (कन्यायामु) कन्या में है, (यथा) जैसा यश (अस्मिन् रथे) इस रथ में (संभृतम्) हार आदि संभारों द्वारा एकत्रित हुआ है। (एवा) इसी प्रकार (मे) मुझ में (वरणः मणिः) श्रेष्ठरत्नरूप शत्रूनिवारक-सेनाध्यक्ष (कीर्तिम्, भूतिम्) कीर्ति और वैभव (नियच्छतु) नियत करे, स्थापित करे, (तेजसा) तेज द्वारा (मा) मुझे (समुक्षतु) सम्यक्-सींचे, (यशसा) यश से (मा) मुझे (समशक्तु) सम्यक्-कान्तिमान् करे।
टिप्पणी
[मन्त्र में विवाह-योग्य कन्या का, तथा विवाह के पश्चात् कन्या ने जिस रथ द्वारा पति की ओर जाना है, उस की सजावट का वर्णन हुआ है। कन्या के सम्बन्ध में कहा है कि "कन्या कमनीया भवति, "कनतेर्वा स्यात् कान्ति कर्मणः" (निरुक्त ४।२।१४)। अर्थात् कन्या को लोग चाहते हैं, या कन्या विवाह काल में कान्ति से सम्पन्न होती है। राजा भी इस यश को प्राप्त करना चाहता है। वह चाहता है कि सब प्रजाएं मुझे चाहें, यथा "विशस्त्वा सर्वा वाञ्छन्तु" (अथर्व० ४।८।६।८७।१) अर्थात् सब प्रजाएं तुझे चाहें। तथा राजा ऐसे रथ१ के सदृश राज्यश्री द्वारा सुशोभित भी होना चाहता है]। [१. कन्या का रथ, (अथर्व० १४।१।६१; २।१०,१२,३०)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Warding off Rival Adversaries
Meaning
As there is beauty of modesty and honour of grace in the maiden and grandeur in this luxurious chariot, so may this Varana-mani give me honour, fame and abundance of prosperity and good fortune. May it beatify me with light and lustre and anoint me with grace and glory.
Translation
Just as there is graciousness (glory) in a virgin (kanya) and in this well-equipped chariot, even so may this protective blessing grant me fame and prosperity, sprinkle me with lustre and anoint me with renown (glory).
Translation
As glory dwells in the girl and this well-constructed chariot so this mighty Varana plant give me prosperity and fame. Let it pour on me the lustre and unite me with fame.
Translation
As glory dwelleth in a noble girl, and in this car well constructed for the battle, so may the excellent Vedic knowledge give me fame and prosperity. With lustre let it sprinkle me, and balm me with magnificence.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२०−(कन्यायाम्) अ० १।१४।२। कन प्रीतौ द्युतौ गतौ च-यक्, टाप्। कमनीयाया पुत्र्याम् (संभृते) सम्यक् पोषिते रचिते (रथे) यानविमानादौ। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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