अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 22
ऋषिः - अथर्वा
देवता - वरणमणिः, वनस्पतिः, चन्द्रमाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सपत्नक्षयणवरणमणि सूक्त
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यथा॒ यशो॑ऽग्निहो॒त्रे व॑षट्का॒रे यथा॒ यशः॑। ए॒वा मे॑ वर॒णो म॒णिः की॒र्तिं भूतिं॒ नि य॑च्छतु। तेज॑सा मा॒ समु॑क्षतु॒ यश॑सा॒ सम॑नक्तु मा ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । यश॑: । अ॒ग्नि॒ऽहो॒त्रे । व॒ष॒ट्ऽका॒रे । यथा॑ । यश॑:। ए॒व । मे॒ । व॒र॒ण: । म॒णि: । की॒र्तिम् । भूति॑म् । नि । य॒च्छ॒तु॒ । तेज॑सा । मा॒ । सम् । उ॒क्ष॒तु॒ । यश॑सा । सम् । अ॒न॒क्तु॒ । मा॒ ॥३.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा यशोऽग्निहोत्रे वषट्कारे यथा यशः। एवा मे वरणो मणिः कीर्तिं भूतिं नि यच्छतु। तेजसा मा समुक्षतु यशसा समनक्तु मा ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । यश: । अग्निऽहोत्रे । वषट्ऽकारे । यथा । यश:। एव । मे । वरण: । मणि: । कीर्तिम् । भूतिम् । नि । यच्छतु । तेजसा । मा । सम् । उक्षतु । यशसा । सम् । अनक्तु । मा ॥३.२२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सब सम्पत्तियों के पाने का उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जैसा (यशः) यश (अग्निहोत्रे) अग्निहोत्र [अग्नि में सुगन्धित द्रव्य चढ़ाने वा अग्नि का शिल्प विद्या में प्रयोग करने] में और (यथा) जैसा (यशः) यश (वषट्कारे) दान कर्म में है, (एव) वैसे ही (मे) मेरे लिये.... म० १७ ॥२२॥
भावार्थ
जैसे अग्निहोत्र से वायुशुद्धि और शिल्पविद्या की उन्नति होती है और जैसे सुपात्रों को दान देने से कीर्ति बढ़ती है, वैसे ही मनुष्य अपना यश बढ़ावें ॥२२॥
टिप्पणी
२२−(अग्निहोत्रे) हुयामाश्रुभसिभ्यस्त्रन्। उ० ४।१६८। हु दानादानादनेषु−त्रन्। अग्नौ सुगन्धितद्रव्यदाने, अथवा अग्नेः शिल्पविद्यायां प्रयोगे (वषट्कारे) अ० ५।२६।१२। वह प्रापणे डषटि। दानकर्मणि। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
सूर्यः देवः
पदार्थ
१. (यथा) = जैसे (सूर्यः) = सूर्य (अतिभाति) अतिशयेन चमकता है, (यथा) = जैसे (अस्मिन) = इसमें (तेजः आहितम्) = तेज स्थापित हुआ है, (एव) = इसी प्रकार मे मेरे लिए (वरण: मणि:) = यह रोगनिवारक वीर्यमणि (कीर्तिम्) = कीर्ति [fame, glory] व (भूतिम्) = ऐश्वर्य को (नियच्छतु) = दे। यह (मा) = मुझे (तेजसा) = तेजस्विता से (समुक्षतु) = सिक्त करे, (यशसा) = [beauty, splendour] सौन्दर्य से (मा समनक्तु) = मुझे अलंकृत करे । २. (यथा) = जैसे( चन्द्रमसि) = चन्द्रमा में (यश:) = सौन्दर्य है, (च) = और (नृचक्षसि आदित्ये) = जैसा सौन्दर्य मनुष्यों को देखनेवाले-उनका पालन करनेवाले [look after] सूर्य में है, (यथा) = जैसा (यश:) = सौन्दर्य (प्रथिव्याम्) = इस पृथिवी में है, और (यथा) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् जातवेदसि) = इस अग्नि में है। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (कन्यायाम्) = इस युवति कन्या में है, और (यथा) = जैसा सौन्दर्य इस (संभृते रथे) = सम्यक् भृत-जिसके सब अवयव सम्यक् जुड़े हुए हैं, ऐसे रथ में हैं। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (सोमपीथे) = सोम [वीर्य] के शरीर में ही सुरक्षित करने में है और (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (मधुपर्के) = अतिथि को दिये जानेवाले पूजाद्रव्य में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य अग्निहोत्रे-अग्निहोत्र में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (वषट्कारे) = स्वाहाकार के उच्चारण में है। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (यजमाने) = यज्ञशील पुरुष में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् यज्ञे) = इस यज्ञ में (आहितम्) = स्थापित हुआ है। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (प्रजापतौ) = प्रजाओं के रक्षक राजा में है और (यथा) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् परमेष्ठिनि) = इस परमस्थान में स्थित प्रभु में है, इसी प्रकार यह वरणमणि मुझे यश [सौन्दर्य] से अलंकृत करे। ३. (यथा) = जैसे (देवेषु) = देववृत्ति के व्यक्तियों में (अमृतम्) = नीरोगता आहित होता है, (यथा) = जैसे (एषु) = इन देवों में (सत्यं आहितम्) = सत्य स्थापित होता है। देव नीरोग होते है और कभी अनृत नहीं बोलते, इसी प्रकार यह वरणमणि मुझे कीर्ति व ऐश्वर्य प्राप्त कराए। यह मुझे तेज से सिक्त करे और सौन्दर्य से अलंकृत करे।
भावार्थ
वरणमणि [वीर्य] के रक्षण से जीवन सूर्यसम दीप्तिवाला होता है, जीवन चन्द्र की भाँति चमकता है, शरीर-रथ संभृत होता है, हमारी प्रवृत्ति यज्ञशीलतावाली होती है व हम नीरोगता तथा सत्य का धारण करते हुए देव बनते हैं।
देववृत्ति का पुरुष अपने जीवन में 'गरुत्मान् तक्षक:'-[गरुतः अस्य सन्ति] विविध ज्ञानरूप पक्षावाला तथा निर्माता-निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त होता है। इसका चित्रण इसप्रकार है -
भाषार्थ
(यथा) जैसा (यशः) यश (अग्निहोत्रे) अग्निहोत्र में है; (यथा) जैसा (वषट्कारे) वषट् के उच्चारण में है। (एवा) इसी प्रकार (मे) मुझ में (वरणः मणिः) श्रेष्ठ तथा रत्नरूप शत्रुनिवारक सेनाध्यक्ष (कीर्तिम्) कीर्ति को (भूतिम्) वैभव को (नियच्छतु) नियत करे, स्थापित करे, (तेजसा) तेज द्वारा (मा) मुझे (समुक्षतु) सम्यक् सींचे, (यशसा) यश द्वारा (मा) मुझे (समनक्तु) सम्यक्-कान्तिमान् करे।
टिप्पणी
[मन्त्र में अग्निहोत्र तथा याज्यामन्त्रों द्वारा सम्पाद्य यज्ञ का वर्णन हुआ है। "वषट्" शब्द के उच्चारण पूर्वक आहुति प्रदान, याज्यामन्त्र की समाप्ति पर किया जाता है। अग्निहोत्र में आहुति-प्रदान, "स्वाहा" शब्द के उच्चारण पूर्वक होता है। स्वाहा + सु (उत्तम पूर्वक) + आ (पूर्णतया) + हा (त्याग); “ओहाक् त्यागे" (जुहोत्यादिः)। “वषट्” शब्द भी त्यागार्थक है। वह (प्रापणे) + अस् (भुवि) + शतृ = व + स् + अत्= वसत् = वषट् । "ह और-अ" का लोप, तथा स्-को-ष्, वर्ण विकार द्वारा। अतः वषट् का अर्थ "वह" (प्रापणे) के सदृश ही है। राजा भी राष्ट्रयज्ञ रचाता हुआ, त्यागभावना का अभिलाषी हो कर, यश का भागी होना चाहता है। तथा राज्य में अग्निहोत्र तथा यज्ञों का प्रचार-विस्तार चाहता हुआ, इस यश का भी भागी होना चाहता है]।
इंग्लिश (4)
Subject
Warding off Rival Adversaries
Meaning
As there is honour in Agnihotra and piety and prestige in the offer of homage and hospitality to divine seniors and holy men, so may this Varana-mani bring me honour, fame and abundance of prosperity and good fortune. May it beatify me with light and lustre and anoint me with grace and glory.
Translation
Just as there is graciousness (glory) in the sacrifice to the adorable Lord and-as there is graciousness in the offerings made’ with the utterance of, Vasat, even so may this protective blessing grant me fame and prosperity, sprinkle me with lustre and anoint me with renown (glory).
Translation
AS glory dwells in Agnihotra and as fame dwells in Vashatkara so this mighty Varana plant give me prosperity and fame. Let it pour on me the lustre and unite me with fame.
Translation
As glory dwelleth in the performance of Havan and the application of fire for scientific works, and liberal charity, so may the excellent Vedic knowledge give me fame and prosperity. With lustre let it sprinkle me, and balm me with magnificence.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२२−(अग्निहोत्रे) हुयामाश्रुभसिभ्यस्त्रन्। उ० ४।१६८। हु दानादानादनेषु−त्रन्। अग्नौ सुगन्धितद्रव्यदाने, अथवा अग्नेः शिल्पविद्यायां प्रयोगे (वषट्कारे) अ० ५।२६।१२। वह प्रापणे डषटि। दानकर्मणि। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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