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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 24
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वरणमणिः, वनस्पतिः, चन्द्रमाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सपत्नक्षयणवरणमणि सूक्त
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    यथा॒ यशः॑ प्र॒जाप॑तौ॒ यथा॒स्मिन्प॑रमे॒ष्ठिनि॑। ए॒वा मे॑ वर॒णो म॒णिः की॒र्तिं भूतिं॒ नि य॑च्छतु। तेज॑सा मा॒ समु॑क्षतु॒ यश॑सा॒ सम॑नक्तु मा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । यश॑: । प्र॒जाऽप॑तौ । यथा॑ । अ॒स्मिन् । प॒र॒मे॒ऽस्थिनि॑ । ए॒व । मे॒ । व॒र॒ण: । म॒णि: । की॒र्तिम्‌ । भूति॑म् । नि । य॒च्छ॒तु॒ । तेज॑सा । मा॒ । सम् । उ॒क्ष॒तु॒ । यश॑सा । सम् । अ॒न॒क्तु॒ । मा॒ ॥३.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा यशः प्रजापतौ यथास्मिन्परमेष्ठिनि। एवा मे वरणो मणिः कीर्तिं भूतिं नि यच्छतु। तेजसा मा समुक्षतु यशसा समनक्तु मा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । यश: । प्रजाऽपतौ । यथा । अस्मिन् । परमेऽस्थिनि । एव । मे । वरण: । मणि: । कीर्तिम्‌ । भूतिम् । नि । यच्छतु । तेजसा । मा । सम् । उक्षतु । यशसा । सम् । अनक्तु । मा ॥३.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 3; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सब सम्पत्तियों के पाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (यथा) जैसा (यशः) यश (प्रजापतौ) प्रजापालक [राजा] में और (यथा) जैसा [यश] (अस्मिन्) इस (परमेष्ठिनि) सब से ऊँची स्थितिवाले [परमात्मा] में है, (एव) वैसे ही (मे) मेरे लिये... म० १७ ॥२४॥

    भावार्थ

    स्पष्ट है ॥२४॥

    टिप्पणी

    २४−(प्रजापतौ) प्रजापालके नृपतौ (परमेष्ठिनि) सर्वोपरिस्थिते परमात्मनि। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    सूर्यः देवः

    पदार्थ

    १. (यथा) = जैसे (सूर्यः) = सूर्य (अतिभाति)  अतिशयेन चमकता है, (यथा) = जैसे (अस्मिन) = इसमें (तेजः आहितम्) = तेज स्थापित हुआ है, (एव) = इसी प्रकार मे मेरे लिए (वरण: मणि:) = यह रोगनिवारक वीर्यमणि (कीर्तिम्) = कीर्ति [fame, glory] व (भूतिम्) = ऐश्वर्य को (नियच्छतु) = दे। यह (मा) = मुझे (तेजसा) = तेजस्विता से (समुक्षतु) = सिक्त करे, (यशसा) = [beauty, splendour] सौन्दर्य से (मा समनक्तु) = मुझे अलंकृत करे । २. (यथा) = जैसे( चन्द्रमसि) = चन्द्रमा में (यश:) = सौन्दर्य है, (च) = और (नृचक्षसि आदित्ये) = जैसा सौन्दर्य मनुष्यों को देखनेवाले-उनका पालन करनेवाले [look after] सूर्य में है, (यथा) = जैसा (यश:) = सौन्दर्य (प्रथिव्याम्) = इस पृथिवी में है, और (यथा) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् जातवेदसि) = इस अग्नि में है। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (कन्यायाम्) = इस युवति कन्या में है, और (यथा) = जैसा सौन्दर्य इस (संभृते रथे) = सम्यक् भृत-जिसके सब अवयव सम्यक् जुड़े हुए हैं, ऐसे रथ में हैं। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (सोमपीथे) = सोम [वीर्य] के शरीर में ही सुरक्षित करने में है और (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (मधुपर्के) = अतिथि को दिये जानेवाले पूजाद्रव्य में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य अग्निहोत्रे-अग्निहोत्र में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (वषट्कारे) = स्वाहाकार के उच्चारण में है। (यथा यश:) =  जैसा सौन्दर्य (यजमाने) = यज्ञशील पुरुष में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् यज्ञे) = इस यज्ञ में (आहितम्) = स्थापित हुआ है। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (प्रजापतौ) = प्रजाओं के रक्षक राजा में है और (यथा) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् परमेष्ठिनि) = इस परमस्थान में स्थित प्रभु में है, इसी प्रकार यह वरणमणि मुझे यश [सौन्दर्य] से अलंकृत करे। ३. (यथा) = जैसे (देवेषु) = देववृत्ति के व्यक्तियों में (अमृतम्) = नीरोगता आहित होता है, (यथा) = जैसे (एषु) = इन देवों में (सत्यं आहितम्) = सत्य स्थापित होता है। देव नीरोग होते है और कभी अनृत नहीं बोलते, इसी प्रकार यह वरणमणि मुझे कीर्ति व ऐश्वर्य प्राप्त कराए। यह मुझे तेज से सिक्त करे और सौन्दर्य से अलंकृत करे।

    भावार्थ

    वरणमणि [वीर्य] के रक्षण से जीवन सूर्यसम दीप्तिवाला होता है, जीवन चन्द्र की भाँति चमकता है, शरीर-रथ संभृत होता है, हमारी प्रवृत्ति यज्ञशीलतावाली होती है व हम नीरोगता तथा सत्य का धारण करते हुए देव बनते हैं।

    देववृत्ति का पुरुष अपने जीवन में 'गरुत्मान् तक्षक:'-[गरुतः अस्य सन्ति] विविध ज्ञानरूप पक्षावाला तथा निर्माता-निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त होता है। इसका चित्रण इसप्रकार है -

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    भाषार्थ

    (यथा) जैसा (यशः) यश (प्रजापतौ) प्रजापति में, तथा (यथा) जैसा (अस्मिन्) इस (परमेष्ठिनि) परमेष्ठी में हैं। (एवा) इसी प्रकार (मे) मुझ में (वरणः मणिः) श्रेष्ठ रत्नरूपी शत्रुनिवारक-सेनाध्यक्ष (कीर्तिम) कीर्ति को और (भूतिम्) वैभव को (नियच्छतु) नियत करे, स्थापित करे, (तेजसा) तेज से (मा) मुझे (समुक्षतु) सम्यक्-सींचे, (यशसा) यश द्वारा (मा) मुझे (समनक्तु) सम्यक्-कान्तिमान् करे।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में प्रजापति और परमेष्ठी इन दो स्वरूपों का कथन किया है। "प्रजापति” द्वारा ब्रह्मरूप का, तथा “परमेष्ठी" द्वारा जगत्स्रष्टृत्वरूप परमेश्वर का। इसीलिये "परमेष्ठिनि" का निर्देश "अस्मिन्” पद द्वारा किया है, जो कि संमुख तथा समीपस्थ है। परमेष्ठी के स्वरूप के सम्बन्ध में कहा है कि "ये पुरुषे ब्रह्म विदुस्ते विदुस्ते विदुः परमेष्ठिनम्" (अथर्व० १०।७।१७), अर्थात् जो तत्त्ववेत्ता, पुरुष अर्थात् शरीर-पुरी में शयन करने वाले या वसने वाले जीवात्मा में ब्रह्म को स्थित हुआ जानते हैं, वे ब्रह्म के परमेष्ठी स्वरूप को जानते हैं। परमेष्ठी का अर्थ है "परम स्थान में स्थित। परमेश्वर की स्थिति के दो स्थान हैं "प्रकृति और प्राकृतिक पदार्थ" तथा जीवात्मा। "प्रकृति और प्राकृतिक पदार्थ "अवर" हैं, और जीवात्मा "परम" है। इस "परम" में स्थित को समीपस्थ जान कर इसे "अस्मिन्" पद द्वारा निर्दिष्ट किया है। तथा "परमेष्ठी" के लिये देखो (अथर्व० १०।२।२०।२१)। वहां प्रकरणानुरूप "परमेष्ठी१" का अर्थ जीवात्मा किया है। (अथर्व० १०।२।२०, २१) के २१ वें मन्त्र में "ब्रह्म-और परमेष्ठी” इन दो का वर्णन हुआ है, और व्याख्येय मन्त्र में "प्रजापति-और परमेष्ठी" का वर्णन हुआ है। अतः व्याख्येय मन्त्र में प्रजापति द्वारा ब्रह्म का ग्रहण सुसंगत प्रतीत होता है। "प्रजापति" का यश है कि वह सब प्रजाओं का पति होता हुआ, प्रलय काल में निर्लिप्त हुआ, शयन सा कर रहा होता है, और वही सर्जन काल में प्रबुद्ध सा हुआ परमेष्ठीरूप हो जाता है। जैसे कि शयन कर रहा धनपति, शयनावस्था में भी निजधन का पति होता है, और प्रबुद्ध हो जाने पर निजधन द्वारा व्यापारादि कर्म करता है। राजा भी शासन में दो स्वरूपों का यश चाहता है। अप्रबुद्धावस्था२ में भी वह शासक होने का यश चाहता है, और प्रबुद्धावस्था में भी इन दोनों अवस्थाओं में उसके शासकत्व की सुरक्षा "वरणमणि" करता है]। [१. वैदिक पदों के यौगिकार्थ की दृष्टि से, प्रकरणानुरूप, भिन्न-भिन्न अर्थ भी उपादेय है। २. देखो मन्त्र (६)।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Warding off Rival Adversaries

    Meaning

    As there is grandeur and glory in Prajapati, guardian of humanity, and as it is in the Lord Supreme, so may this Varana-mani bring me honour, fame and abundance of prosperity and good fortune. May it beatify me with light and lustre and anoint me with grace and glory.

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    Translation

    Just as there is graciousnešs in the Lord of creatures and as in this Lord of the highest abode, even so niay this protective blessing grant me fame and prosperity, sprinkle me with lustre and anoint me with renown (glory).

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    Translation

    As glory dwells in the Lord of the World or creatures and as it dwells in the Chief priest of the Yajna so this mighty Varnna plant give me prosperity and fame. Let it pour on me the lustre and unite me with fame.

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    Translation

    As glory dwelleth in the king, the Lord of his subjects, and in-this God supreme, so may the Vedic knowledge give me fame and prosperity. With lustre let it sprinkle me, and balm me with magnificence.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४−(प्रजापतौ) प्रजापालके नृपतौ (परमेष्ठिनि) सर्वोपरिस्थिते परमात्मनि। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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