अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 13
ऋषिः - अथर्वा
देवता - शतौदना (गौः)
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शतौदनागौ सूक्त
1
यत्ते॒ शिरो॒ यत्ते॒ मुखं॒ यौ कर्णौ॒ ये च॑ ते॒ हनू॑। आ॒मिक्षां॑ दुह्रतां दा॒त्रे क्षी॒रं स॒र्पिरथो॒ मधु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ते॒ । शिर॑: । यत् । ते॒ । मुख॑म् । यौ । कर्णौ॑ । ये इति॑ । च॒ । ते॒ । हनू॒ इति॑ । अ॒मिक्षा॑म् । दु॒ह्र॒ता॒म् । दा॒त्रे । क्षी॒रम् । स॒र्पि:। अथो॒ इति॑ । मधु॑ ॥९.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते शिरो यत्ते मुखं यौ कर्णौ ये च ते हनू। आमिक्षां दुह्रतां दात्रे क्षीरं सर्पिरथो मधु ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ते । शिर: । यत् । ते । मुखम् । यौ । कर्णौ । ये इति । च । ते । हनू इति । अमिक्षाम् । दुह्रताम् । दात्रे । क्षीरम् । सर्पि:। अथो इति । मधु ॥९.१३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
वेदवाणी की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जो (ते) तेरा (शिरः) शिर, (यत्) जो (ते) तेरा (मुखम्) मुख, (यौ) जो (कर्णौ) दो कान, (च) और (ये) जो (ते) तेरे (हनू) दो जावड़े हैं, वे सब (आमिक्षाम्) आमिक्षा [पकाये उष्ण दूध में दही मिलाने से उत्पन्न वस्तु], (क्षीरम्) दूध, (सर्पिः) घी (अथो) और भी (मधु) मधु ज्ञान [ब्रह्मविद्या] (दात्रे) दाता को (दुह्रताम्) भरपूर करें ॥१३॥
भावार्थ
यहाँ से मन्त्र २४ तक वेदवाणी को गौ आदि के समान आकारवाली मानकर वर्णन है। तात्पर्य्य यह है कि जैसे शरीर के अङ्ग प्राणियों के लिये अनेक प्रकार उपकारी बने हैं, वैसे ही वेदवाणी से अनेक उपकार लेकर मनुष्य शारीरिक और आत्मिक पुष्टि करें ॥१३॥
टिप्पणी
१३−(हनू) अ० १।२१।३। कपोलद्वयोपरिमुखभागौ (आमिक्षाम्) अ० ९।४।४। आङ्+मिष सेचने-सक्। पक्वोष्णक्षीरे दध्ना कृतं द्रव्यम् (दुह्रताम्) अ० ७।८२।६। दुहताम्। प्रपूरयन्तु (दात्रे) दानशीलाय। अन्यत् स्पष्टं गतं च−म० १२ ॥
विषय
आमिक्षा, क्षीर, सर्पि, मधु
पदार्थ
१. हे वेदधेनो! (यत् ते शिर:) = जो तेरा सिर है, (यत् ते मुखम्) = जो तेरा मुख है, (यौ कर्णौ) = जो कान हैं, (ये च ते हनू) = और जो तेरे जबड़े हैं। इसी प्रकार (यौ ते ओष्ठौ) = जो तेरे ओष्ठ हैं, ये नासिके जो नासाछिद्र हैं, (ये शङ्गे) = जो सींग हैं, (ये च ते अक्षिणी) = जो तेरी आँखें हैं। (यत् ते क्लोमा) = जो तेरा फेफड़ा है (यत् हृदयम्) = जो हृदय है, (सहकण्ठिका पुरीतत्) = कण्ठ के साथ मल की बड़ी आँत है, (यत् ते यकृत्) = जो तेरा कलेजा है, (ये मतस्ने) = जो गुर्दे हैं, (यत् आन्त्रम्) = जो आँत है, (याः च ते गुदा) = और जो तेरी मलत्याग करनेवाली नाडियाँ हैं। (यः ते प्लाशि:) = जो तेरी अन्न की आधारभूत आँत है, (य: वनिष्ठुः) = जो अन्त:रक्त को बाँटनेवाली आँत है, (यौ कक्षी) = जो कुक्षिप्रदेश हैं, (यत् च ते चर्म) = और जो तेरी चमड़ी है, २. ये सब-के-सब अवयव अर्थात् भिन्न-भिन्न लोक-लोकान्तरों व पदार्थों का ज्ञान (दात्रे) = तेरे प्रति अपने को देनेवाले के लिए [दादाने] वासनाओं का विनाश करनेवाले के लिए [दाप लवने] और इसप्रकार अपने जीवन को शुद्ध बनानेवाले के लिए [दैप शोधने] (आमिक्षाम्) = [तसे पयसि दध्यानयति सा वैश्वदेवी आमिक्षा भवति] गर्म दूध में दही के मिश्रण से उत्पन्न पदार्थ को (क्षीरः सर्पिः अथो मधु) = दूध, घृत व शहद को (दुह्रताम्) = दूहें-प्राप्त कराएं।
भावार्थ
वेदज्ञान हमारे लिए 'आमिक्षा-सर्पि, क्षीर व मधु' को प्राप्त कराता है, अर्थात् हमें इनके प्रयोग के लिए प्रेरित करता है।
भाषार्थ
(यत् ते शिरः) जो तेरा शिर (यत् ते मुखम्) जो तेरा मुख, (यौ कर्णौ) जो दो कान, (यौ च) और जो (ते) तेरे (हनूः) दो जबाड़े है [वे सब] आमिक्षा, क्षीर [दूध] घृत और मधु (दात्रे) दाता के लिये (दुह्रताम्) दोहन करें प्रदान करें।
टिप्पणी
[आमिक्षा = प्रतप्त दूध में दधि सींचने पर जो स्थूल भाग अर्थात् पनीर पृथक् होता है वह आमिक्षा है। आमिक्षा = आ+मिषु (सेचने, भ्वादिः)। मन्त्र १३ से २४ तक, शतौदना के भिन्न-भिन्न अवयवों से आमिक्षा आदि की प्राप्ति वर्णित हुई है, इस का यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि सब अङ्गों वाली शतौदना का दूध उपयोगी होता है, असम्पूर्णाङ्गी तथा विकृताङ्गो का अनुपादेय है। शतौदना द्वारा पारमेश्वरी माता का ग्रहण करने पर शिर, मुख आदि का क्या अभिप्राय सम्भव है, इसका वर्णन यथामन्त्र साथ-साथ दर्शाया जायेगा। अर्थ दर्शाने से पूर्व दो बातों को ध्यान में रखना चाहिये। (१) मारी गई, काटी गई, और अग्नि पर भूनी गई और दिव में हुई शतौदना के जब अङ्ग ही न रहे (देखो मन्त्र ७,४,११) तव बह दिविषद्, अन्तरिक्षसद् तथा भूमिष्ठ देवों को आमिक्षा आदि कैसे दे सकती है। वैदिक दर्शनानुसार वेद में मन्त्ररचना बुद्धि पूर्वक हुई है, यथा "बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे" तब मन्त्रार्थ बुद्धिसंगत ही होने चाहिये, बुद्धि विपरीत नहीं। विशेषतया तब जब कि वेदों को परमेश्वरीय रचना माना जाता है। (२) मन्त्र १३-१४ में प्रतीयमान गोप्राणी तथा उसके सिरः आदि अवयव, ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड के अवयवों के रूप में भी कथित हुए हैं। अथर्व० काण्ड ९, सूक्त १२, (७) मन्त्र २४ में "एतद्वै विश्वरूपं सर्वरूपं गोरूपम्" द्वारा ब्रह्माण्ड को गोरूप कहा है, तथा इस सूक्त में गौ के कतिपय अवयवों को भी के ब्रह्माण्ड के अवयवों के रूप में वर्णित किया है। जहां-जहां सुक्त में इस प्रकार का वर्णन हुआ है, उन-उन का निर्देश, मन्त्रार्थो के साथ दर्शा दिया जायेगा। तथा यह भी स्मरण रखना चाहिये कि १३-२४ मन्त्रों में जो "मधु" का वर्णन हुआ है वह शतौदना-गोप्राणी द्वारा अप्राप्य है। उसकी प्राप्ति भी परमेश्वर के नियमानुसार पारमेश्वरी माता द्वारा ही होती है। मन्त्र १३; शिरः= इन्द्रः। हनूः= द्यौरुत्तरहनुः, पृथिव्यधरहनुः (अथर्व० ९।१२।१,२)। मुखम्=अग्निः (यजु० ३१।१२)। कर्णौ=दिशः, "दिशः श्रोत्रात्" (यजु० ३१।१३)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Shataudana Cow
Meaning
Let your head, your mouth, your ears and your jaws yield cheese and curd, milk, ghrta, and the honey sweets of life’s nourishments for the generous giver. (From mantra 13 to 24, the description of parts of the cow’s body system suggests that the ‘cow’ is not literally the domestic cow, but the cosmic cow, as is described in Atharva-veda 9, 7, 25: “Thus this is the cow of the cosmic form (or cosmos of the cow form).” So in mantra 13, the head stands for Indra (electric energy) the jaws are heaven and earth (Atharva 9, 7, 1- 2), the mouth is Agni and the quarters of space are the ears (Yajurveda 31, 12-13). The metaphor has been worked out in detail with Vedic evidence by Professor Vishvanath Vidyalankar in his commentary on Atharva-veda.
Translation
May your this head, your this mouth, these two ears and your these two jaws, yield to your donor mingled curd (āmiksā), milk, melted butter, and honey as well.
Translation
Let the head of this cow, let the mouth of it, let the ears of it and let those jaws of it pour Amiksha, (the curd mingled in boiling milk) and the sweet milk for the giver.
Translation
Let thy head, let thy mouth, let both thine ears, and let those two jaws of thine, grant for a charitably disposed person, curd, milk, butter and knowledge of God.
Footnote
From the 13th to the 24th verse Vedic speech has been compared to a cow. The parts of the body of the cow are the different forces of the Vedic speech. What significance each part conveys with reference to Vedic knowledge is not clear.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३−(हनू) अ० १।२१।३। कपोलद्वयोपरिमुखभागौ (आमिक्षाम्) अ० ९।४।४। आङ्+मिष सेचने-सक्। पक्वोष्णक्षीरे दध्ना कृतं द्रव्यम् (दुह्रताम्) अ० ७।८२।६। दुहताम्। प्रपूरयन्तु (दात्रे) दानशीलाय। अन्यत् स्पष्टं गतं च−म० १२ ॥
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