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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अथर्वा देवता - शतौदना (गौः) छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शतौदनागौ सूक्त
    1

    स स्व॒र्गमा रो॑हति॒ यत्रा॒दस्त्रि॑दि॒वं दि॒वः। अ॑पू॒पना॑भिं कृ॒त्वा यो ददा॑ति श॒तौद॑नाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । स्व॒:ऽगम् । आ । रो॒ह॒ति॒ । यत्र॑ । अ॒द: । त्रि॒ऽदि॒वम् । दि॒व: । अ॒पू॒पऽना॑भिम् । कृ॒त्वा । य: । ददा॑ति । श॒तऽओ॑दनाम् ॥९.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स स्वर्गमा रोहति यत्रादस्त्रिदिवं दिवः। अपूपनाभिं कृत्वा यो ददाति शतौदनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । स्व:ऽगम् । आ । रोहति । यत्र । अद: । त्रिऽदिवम् । दिव: । अपूपऽनाभिम् । कृत्वा । य: । ददाति । शतऽओदनाम् ॥९.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    वेदवाणी की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [पुरुष] (स्वर्गम्) स्वर्ग [सुख विशेष] को (आ रोहति) ऊँचा होकर पाता है, (यत्र) जहाँ पर (दिवः) विजय के (अदः) उस (त्रिदिवम्) तीन [आय, व्यय, वृद्धि] के व्यवहार का स्थान है। (यः) जो (शतौदनाम्) सैकड़ों प्रकार सींचनेवाली [वेदवाणी] को (अपूपनाभिम्) अक्षीणबन्धु (कृत्वा) बनाकर (ददाति) दान करता है ॥५॥

    भावार्थ

    जहाँ पर विद्या के लाभ, दान और वृद्धि का व्यवहार है, और जो मनुष्य पूर्ण हितकारिणी वेदवाणी का प्रचार करते हैं, वे उन्नति करके सुख विशेष पाते हैं ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(सः) पुरुषः (स्वर्गम्) सुखविशेषम् (आरोहति) उन्नत्या प्राप्नोति (यत्र) यस्मिन् स्वर्गे (अदः) तत्। प्रसिद्धम् (त्रिदिवम्) अ० ९।५।१०। त्रि+दिवु व्यवहारे-क। त्रयाणां दिवानामायव्ययवृद्धिव्यवहाराणां स्थानम् (दिवः) दिवु विजिगीषायाम्−डिवि। विजयस्य (अपूपनाभिम्) पानीविषिभ्यः पः। उ० ३।२३। नञ् पूयी विशरणे दुर्गन्धे च−प प्रत्ययः, यलोपः। नहो भश्च। उ० ४।१२६। णह बन्धने-इञ्, नस्य भः। अपूपमविशीर्णम् अक्षीणं नाभिं बन्धुम् (कृत्वा) मत्वा (यः) (ददाति) प्रयच्छति (शतौदनाम्) म० १। बहुप्रकारसेचिकां वेदवाणीम् ॥

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    विषय

    अपूपनाभिं कृत्वा

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (अपूपनाभिं कृत्वा) = [इन्द्रियम् अपूपः-ऐ०२।१४, णह बन्धने] इन्द्रियों को बाँधकर [देशबन्ध: चित्तस्य धारणा]-इन्द्रियों व मन को हृदयदेश में बाँधकर-(शतौदनाम्) = इस शतवर्षपर्यन्त आनन्दसिक्त करनेवाली वेदवाणी को (ददाति) = औरों के लिए प्राप्त कराता है, अर्थात् जो स्वाध्याय-प्रवचन को ही अपना ध्येय बना लेता है, (स:) = वह उस (स्वर्गं आरोहति) = स्वर्ग में आरोहण करता है, (यत्र) = जहाँ कि (दिवः) = ज्ञान की ज्योति से (अदः त्रिदिवम्) = वे 'शरीर, हृदय व मस्तिष्क' [पृथिवी, अन्तरिक्ष व धुलोक] तीनों ही प्रकाशमय-तेजोदीस-हैं।

    भावार्थ

    'स्वाध्याय और प्रवचन'-मनुष्यों को सब प्रकार की आसक्तियों से ऊपर उठाकर इन्हें 'तेजस्वी शरीर, पवित्र हृदय व दीत मस्तिष्क' वाला बनाता है, अतः हमें जितेन्द्रिय बनकर स्वाध्याय-प्रवचन को ही अपना मुख्य कार्य बनाना चाहिए।

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    भाषार्थ

    (यः) जो अध्यात्म गुरु, (अपूपनाभिम्) अपूप का बन्धन (कृत्वा) कर के, (शतौदनाम्) सैंकड़ों ओदनादि भोज्य पदार्थ देने वाली पारमेश्वरी माता का (ददाति) दान करता है, (सः) वह (स्वर्गम्) सुख प्राप्ति के स्थान पर (आरोहति) आरोहण करता है (यत्र) जहां कि (दिवः) दिव् का (अदः) वह (त्रिदिवम्) त्रिदिव रूप है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में मस्तिष्क को स्वर्ग कहा है। मस्तिष्कनिष्ठ सहस्रार चक्र स्वर्गरूप है, जहां परमेश्वर का पूर्ण साक्षात् कर अध्यात्म गुरु, सुख विशेष पाता है। परमेश्वर के आनन्द रस का पान कर आनन्दी हो जाता है। मस्तिष्क दिव् है। (देखो मन्त्र ३)। मस्तिष्क तीन विभागों में विभक्त है। इसे त्रिदिव कहा है। यथा, बृहत् मस्तिष्क और लघु मस्तिष्क। बृहत् मस्तिष्क के दो भाग है, दाहिना गोलाएं और बायां गोलार्ध। लघु मस्तिष्क बृहत् मस्तिक के नीचे की ओर लगा रहता है। इस प्रकार मस्तिष्क तीन भागों में विभक्त होता है, जिन्हें कि त्रिदिव कहा है। अपूपनाभिम् = अपूप का अर्थ है पूड़ा। यह मीठा और स्वादु होता है। अध्यात्म गुरु शिष्य के भोजनार्थ अपूप आदि को नाभि अर्थात् बन्धन बना कर, शिष्य को अपने साथ बान्धे रखता है। नाभि = नह् बन्धने। अन्तव्यवस्था के विना, शिष्य का बन्धन, गुरु के साथ नहीं हो सकता। क्योंकि अन्न के लिये गुरु का आश्रम त्याग कर उसे अन्यत्र भी जाना पड़ता है। अतः गुरु निज आश्रम में ही शिष्य के लिये अन्न व्यवस्था कर उसे अपने साथ बान्धे रखता है, और उसे शतौदना प्रदान करता है, पारमेश्वरी माता का ज्ञान प्रदान करता है, उस के स्वरूप का दर्शन कराता है। ऐसा योग्य गुरु निज आध्यात्मिक शक्तियों में समुन्नत हुआ, स्वर्गारोहण का अधिकारी होता है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Shataudana Cow

    Meaning

    The yajaka rises to heavenly peace and happiness where the light of knowledge and worship lead him, if he, having made the holy voice of a hundred gifts as the centre and sacred object of yajna, gives a gift of the ‘cow’ to the priest.

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    Translation

    He, who/gives away a Sataudana with cakes (apūpa) ascends to heaven, where that third height (tridiva) of the sky lies.

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    Translation

    He who gives Shataudana in gift by making it Apupnabhi, the proligerous one ascends to the state of the enlightenment where in reigns the plenty of light, pleasure and painlessness.

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    Translation

    He, who makes the Vedic speech his inseparable companion and preaches its truths to mankind attains to extreme felicity, the centre of threefold victory.

    Footnote

    Threefold: Income, Expenditure and Advancement.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(सः) पुरुषः (स्वर्गम्) सुखविशेषम् (आरोहति) उन्नत्या प्राप्नोति (यत्र) यस्मिन् स्वर्गे (अदः) तत्। प्रसिद्धम् (त्रिदिवम्) अ० ९।५।१०। त्रि+दिवु व्यवहारे-क। त्रयाणां दिवानामायव्ययवृद्धिव्यवहाराणां स्थानम् (दिवः) दिवु विजिगीषायाम्−डिवि। विजयस्य (अपूपनाभिम्) पानीविषिभ्यः पः। उ० ३।२३। नञ् पूयी विशरणे दुर्गन्धे च−प प्रत्ययः, यलोपः। नहो भश्च। उ० ४।१२६। णह बन्धने-इञ्, नस्य भः। अपूपमविशीर्णम् अक्षीणं नाभिं बन्धुम् (कृत्वा) मत्वा (यः) (ददाति) प्रयच्छति (शतौदनाम्) म० १। बहुप्रकारसेचिकां वेदवाणीम् ॥

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