अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 6
ऋषिः - अथर्वा
देवता - शतौदना (गौः)
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शतौदनागौ सूक्त
1
स तांल्लो॒कान्त्समा॑प्नोति॒ ये दि॒व्या ये च॒ पार्थि॑वाः। हिर॑ण्यज्योतिषं कृ॒त्वा यो ददा॑ति श॒तौद॑नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । तान् । लो॒कान् । सम् । आ॒प्नो॒ति॒ । ये । दि॒व्या: । ये । च॒ । पार्थि॑वा: । हिर॑ण्यऽज्योतिषम् । कृ॒त्वा । य: । ददा॑ति । श॒तऽओ॑दनाम् ॥९.६॥
स्वर रहित मन्त्र
स तांल्लोकान्त्समाप्नोति ये दिव्या ये च पार्थिवाः। हिरण्यज्योतिषं कृत्वा यो ददाति शतौदनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । तान् । लोकान् । सम् । आप्नोति । ये । दिव्या: । ये । च । पार्थिवा: । हिरण्यऽज्योतिषम् । कृत्वा । य: । ददाति । शतऽओदनाम् ॥९.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
वेदवाणी की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(सः) वह [मनुष्य] (तान्) उन (लोकान्) दर्शनीय लोगों [जनों] को (सम्) यथावत् [आप्नोति] पाता है, (ये) जो [लोग] (दिव्याः) व्यवहार जाननेवाले (च) और (ये) जो (पार्थिवाः) चक्रवर्ती राजा हैं। (यः) जो (शतौदनाम्) सैकड़ों प्रकार सींचनेवाली [वेदवाणी] को (हिरण्यज्योतिषम्) सुवर्ण [वा वीर्य अर्थात् पराक्रम] को प्रकाश करनेवाली (कृत्वा) करके (ददाति) दान करता है ॥६॥
भावार्थ
जो मनुष्य वेदद्वारा धनी और पराक्रमी होते हैं, वे व्यवहारकुशल और सार्वभौम राजा बनते हैं ॥६॥
टिप्पणी
६−(सः) (तान्) प्रसिद्धान् (लोकान्) दर्शनीयान् जनान् (सम्) सम्यक् (आप्नोति) प्राप्नोति (ये) जनाः (दिव्याः) दिवु व्यवहारे-क्यप्। व्यवहारकुशलाः (ये) (च) (पार्थिवाः) सर्वभूमिपृथिवीभ्यामणञौ। पा० ५।१।४१। पृथिवी-अञ्। सार्वभौमाः। चक्रवर्तिनः (हिरण्यज्योतिषम्) हिरण्यस्य सुवर्णस्य वीर्यस्य पराक्रमस्य वा ज्योतिः प्रकाशो यया। ताम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
हिरण्यज्योतिषं कृत्वा
पदार्थ
१. (यः हिरण्यज्योतिषं कृत्वा) = जो हितरमणीय ज्योति [वेदज्ञान] का सम्पादन करके इस ज्योति को आचार्यकुल में प्राप्त करके-इस (शतौदनाम् ददाति) = शतवर्षपर्यन्त जीवन को आनन्द से सिक्त करनेवाली वेदवाणी को औरों के लिए देता है-प्रवचन द्वारा औरों के लिए इसका ज्ञान प्राप्त कराता है। (स:) = वह (तान्) = उन सब (लोकान् समाप्नोति) = लोकों को सम्यक् प्राप्त करता है, ये दिव्याः जो दिव्य हैं (ये च) = और जो (पार्थिवा:) = पार्थिव हैं। हृदयान्तरिक्ष व मस्तिष्क ही दिव्यलोक हैं तथा शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग ही पार्थिवलोक है। इन सबको वह 'तेजस्विता, पवित्रता व दीप्ति' वाला बनाने में सफल होता है।
भावार्थ
इस हितरमणीय ज्योतिवाली, जीवन को सदा आनन्दसिक्त करनेवाली' वेदवाणी का स्वाध्याय-प्रवचन हमें दीस 'दिव्य व पार्थिव' लोकोंवाला बनाता है-इससे हमारा शरीर तेजस्वी, मन ओजस्वी व मस्तिष्क ज्योतिर्मय बनता है।
भाषार्थ
(सः) वह अध्यात्म गुरु (तान् लोकान्) उन लोकों को (समाप्नोति) प्राप्त कर लेता है, (ये) जो (दिव्याः) दिव्य अर्थात् द्युलोक सम्बन्धी हैं। (ये च) और जो (पार्थिवाः) पृथिवी सम्बन्धी हैं, (यः) जो अध्यात्म गुरु (शतौदनाम्) परमेश्वरी माता को (हिरण्य ज्योतिषम्) हृदयरमणीय ज्योति वाली (कृत्वा) करके (ददाति) शिष्य को प्रदान करता है।
टिप्पणी
[हिरण्यम्="हृदयरमणं भवतीति वा" (निरुक्त २।३।१०)। ऐसा अध्यात्म गुरु जो कि शिष्य को उस के दृश्य में रमण करने वाली ज्योतिर्मयी पारमेश्वरी माता का दर्शन करा देता है, वह उच्च योग विभूतियों से सम्पन्न होने के कारण अव्याहित गति से, द्युलोक के लोकलोकान्तरों में, तथा पृथिवी के विविध प्रदेशों में सशरीर आ-जा सकता है, (देखो यजु० १७।६७)]।
इंग्लिश (4)
Subject
Shataudana Cow
Meaning
He, who raises a cow, i.e., the Vedic voice of freedom, to the golden beauty of a hundredfold fertility and generosity and gives it, as a gift, attains to those states of earthly as well as heavenly joy which he cherishes.
Translation
He obtains those worlds, that are celestial and also that are terrestrial he, who gives away a Satdudana, made bright with gold (krtvā). (krtva = fee paid in gold to priests),
Translation
He who gives the Shataudana, in gift making it shining with gold attains those worlds which are physical and which are spiritual or celestial.
Translation
He, who preaches Vedic speech to mankind, making it aglow with the Strength of its golden principles, comes in contact with persons who possess practical wisdom and are the rulers of the world.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(सः) (तान्) प्रसिद्धान् (लोकान्) दर्शनीयान् जनान् (सम्) सम्यक् (आप्नोति) प्राप्नोति (ये) जनाः (दिव्याः) दिवु व्यवहारे-क्यप्। व्यवहारकुशलाः (ये) (च) (पार्थिवाः) सर्वभूमिपृथिवीभ्यामणञौ। पा० ५।१।४१। पृथिवी-अञ्। सार्वभौमाः। चक्रवर्तिनः (हिरण्यज्योतिषम्) हिरण्यस्य सुवर्णस्य वीर्यस्य पराक्रमस्य वा ज्योतिः प्रकाशो यया। ताम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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