अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 136/ मन्त्र 13
ऋषिः -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
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व॒शा द॒ग्धामि॑माङ्गु॒रिं प्रसृ॑जतो॒ग्रतं॑ परे। म॒हान्वै भ॒द्रो यभ॒ माम॑द्ध्यौद॒नम् ॥
स्वर सहित पद पाठवशा । द॒ग्धाम्ऽइ॒म । अङ्गुरिम् । प्रसृ॑जत । उ॒ग्रत॑म् । परे ॥ म॒हान् । वै । भ॒द्र: । यभ॒ । माम् । अ॑द्धि । औद॒नम् ॥१३६.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
वशा दग्धामिमाङ्गुरिं प्रसृजतोग्रतं परे। महान्वै भद्रो यभ मामद्ध्यौदनम् ॥
स्वर रहित पद पाठवशा । दग्धाम्ऽइम । अङ्गुरिम् । प्रसृजत । उग्रतम् । परे ॥ महान् । वै । भद्र: । यभ । माम् । अद्धि । औदनम् ॥१३६.१३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे विद्वानो !] (वशा) वन्ध्या [निष्फल] (उग्रतम्) उग्रता [प्रचण्ड नीति] को (दग्धाम्) जली हुई, (अङ्गुरिम् इम्) अङ्गुरी के समान (परे) दूर (प्रसृजत) सर्वथा छोड़ो। (महान्) महान् पुरुष (वै) ही (भद्रः) मङ्गलदाता है, (यम) हे न्यायकारी ! (माम्) मुझको (औदनम्) भोजन (अद्धि) तू खिला ॥१३॥
भावार्थ
जैसे साँप आदि के विष से जले हुए अङ्गुली आदि अङ्ग को शरीर की रक्षा के लिये शीघ्र काटकर फैंक देते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग निष्फल प्रचण्ड नीति को छोड़कर प्रजा को सुख देवें ॥१३॥
टिप्पणी
१३−(वशा) विभक्तेर्लुक्। वशाम्। वन्ध्याम्। निष्फलाम् (दग्धाम्) विषदग्धाम् (इम) वस्य मः। इव। यथा (अङ्गुरिम्) अङ्गुलिम्, (प्रसृजत) सर्वथा त्यजत (परे) दूरे (महान्) (वै) एव (भद्रः) मङ्गलप्रदः। अन्यद् गतम्−म० ११ ॥
विषय
वशादग्धा अंगुलि को काट देना
पदार्थ
१. सभा व समिति 'परा' हैं-उत्कृष्ट हैं अथवा राजा का पालन व पूरण करनेवाली हैं 'पृ पालनपूरणयो'। इन्हें प्रजापति की दुहिता [दुह प्रपूरणे] प्रपरकम् कहा ही गया है। ये (परे) = सभा व समिति दोनों (अग्रतम्) = सर्वप्रथम (वशा दग्धाम्) = [वशा-barren] बन्ध्य-विफल राजनीति से जली हुई इमा (अंगुरिम्) = इस अंगुलि को (प्रसृजत:) = प्रकर्षेण काट डालते हैं, अर्थात् ये राजकार्यों में जिस भी बात को अनुपयोगी देखते हैं उसे समास कर देते हैं। इसप्रकार प्रजा का कोई भी राजकार्य बिना शोभावाला नहीं दिखता। २. उस समय प्रजा यही कहती है कि यह (महान्) = महनीय राजा (वै) = निश्चय से (भद्रः) = बड़ा भला है-हमारा कल्याण करनेवाला है। प्रजा राजा से कहती है कि (माम् यभ) = मेरे साथ तेरा सहवास है, तू पति हो तो मैं पत्नी। तू (औदनम्) = सात्त्विक भोजन को ही (अद्धि) = खा, जिससे तेरी वृत्ति सदा सात्त्विक बनी रहे।
भावार्थ
सभा व समिति राजनीति के दोषों को दूर करती हुई राजा को प्रजा का प्रिय बनाती है। यह राजा सात्विक भोजन से सात्विक वृत्तिवाला होकर प्रजा का वस्तुत: पति बनता है।
भाषार्थ
(परे) अन्य लोग, (अग्र=अग्रम्) घर के अग्रणी (तम्) उस पति को कहते हैं, कि (दग्धाम् इम् अंगुरीम्) जली हुई अङ्गुली के सदृश दुःखिया इस पत्नी को, (प्र सृजत) तुम घरवाले छोड़ दो, इसे तंग न करो। (वशा) यह तो सदा तुम्हारे वश में है। क्योंकि (महान्) घर में बड़े को, (वै) निश्चय से, (भद्रः) भद्र व्यवहारोंवाला होना चाहिए। पत्नी खुश होकर कहने लगती है कि हे पति! (मां यभ) मेरे साथ तू गृहस्थधर्म का पालन कर। और मुझ द्वारा (ओदनम्) पकाये गये भात को (आ अद्धि) प्रसन्नतपूर्वक खाया कर।
इंग्लिश (4)
Subject
Prajapati
Meaning
O people, a policy which is fruitless and uncreative, even if it is strong and passionate, is no good, throw it far off. Do not burn your fingers. Well being is great, and the Great is well being. O Yama, lord of law and human destiny, give me the rice meal, simple and pure.
Translation
O statesmen, you like the burnt finger throw away the policy though strong yet fruitless. The great man does good of all. O man of justice, you feed me with food.
Translation
O statesmen, you like the burnt finger throw away the policy though strong yet fruitless. The great man does good of all. O man of justice, you feed me with food.
Translation
Just as the well-controlled earth or the subjects, like a milched cow, yields the revenue worth acquiring, without raising a finger even, (i.e., spontaneously). Mighty is the king, who is strong and thorny like the Bilva tree and peace-showering, at the same time. O king, enjoy the authority and for¬ tunes of the state along with me, (the parliament) like a husband, enjoined his wife.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३−(वशा) विभक्तेर्लुक्। वशाम्। वन्ध्याम्। निष्फलाम् (दग्धाम्) विषदग्धाम् (इम) वस्य मः। इव। यथा (अङ्गुरिम्) अङ्गुलिम्, (प्रसृजत) सर्वथा त्यजत (परे) दूरे (महान्) (वै) एव (भद्रः) मङ्गलप्रदः। अन्यद् गतम्−म० ११ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
[হে বিদ্বান!] (বশা) বন্ধ্যা [নিষ্ফল] (উগ্রতম্) উগ্রতা [প্রবল নীতি] (দগ্ধাম্) দগ্ধ, (অঙ্গুরিম্ ইম্) অঙ্গুলির মতো (পরে) দূর (প্রসৃজত) সর্বদা ত্যাগ করো। (মহান্) মহান্ পুরুষ (বৈ) ই (ভদ্রঃ) মঙ্গলদাতা হয়, (যম) হে ন্যায়কারী! (মাম্) আমাকে (ঔদনম্) ভোজন (অদ্ধি) করাও॥১৩॥
भावार्थ
যেমন সাপ আদির বিষে দগ্ধ অঙ্গুলী আদি অঙ্গকে শরীরের রক্ষার জন্য শীঘ্র কেটে ফেলে দিতে হয়, তেমনই বিদ্বানগণ নিষ্ফল প্রচণ্ড নীতি ত্যাগ করে প্রজাদের সুখ প্রদান করুক ॥১৩॥
भाषार्थ
(পরে) অন্যরা, (অগ্র=অগ্রম্) ঘরের অগ্রণী (তম্) সেই পতিকে বলে, (দগ্ধাম্ ইম্ অঙ্গুরীম্) দগ্ধ আঙুলের সদৃশ দুঃখী এই পত্নীকে, (প্র সৃজত) তুমি ছেড়ে দাও, একে উৎপীড়িত করো না। (বশা) এ তো সদা তোমার বশবর্তী। কারণ (মহান্) ঘরে জৈষ্ঠদের, (বৈ) নিশ্চিতরূপে, (ভদ্রঃ) ভদ্র আচরণকারী হওয়া উচিৎ। পত্নী খুশি হয়ে বলে, হে পতি! (মাং যভ) আমার সাথে তুমি গৃহস্থধর্ম পালন করো। এবং আমার দ্বারা (ওদনম্) পরিপক্বকৃত ভাত (আ অদ্ধি) প্রসন্নতপূর্বক খাও/ভক্ষণ করো।
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