अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 136/ मन्त्र 4
यद्दे॒वासो॑ ललामगुं॒ प्रवि॑ष्टी॒मिन॑माविषुः। स॑कु॒ला दे॑दिश्यते॒ नारी॑ स॒त्यस्या॑क्षि॒भुवो॒ यथा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । दे॒वास॑ । ल॒लाम॑ऽगुम् । प्र । वि॒ष्टी॒मिन॑म् । आवि॑षु: ॥ स॒कु॒ला । दे॒दि॒श्य॒ते॒ । नारी॑ । स॒त्यस्य॑ । अ॑क्षि॒भुव॑: । य॒था॒ ॥१३६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्देवासो ललामगुं प्रविष्टीमिनमाविषुः। सकुला देदिश्यते नारी सत्यस्याक्षिभुवो यथा ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । देवास । ललामऽगुम् । प्र । विष्टीमिनम् । आविषु: ॥ सकुला । देदिश्यते । नारी । सत्यस्य । अक्षिभुव: । यथा ॥१३६.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जैसे (देवासः) विद्वान् लोग (ललामगुम्) प्रधानता पहुँचानेवाले (विष्टीमिनम्) कोमलता से युक्त न्याय में (प्र आविषुः) प्रविष्ट हुए हैं। और (यथा) जैसे (सकुला) बाल बच्चोंवाली (नारी) नारी [स्त्री] (अक्षिभुवः) आँखों से हुए [प्रत्यक्ष] (सत्यस्य) सत्य का (देदिश्यते) बार-बार उपदेश करती है [वैसे ही राजा न्याय और उपदेश करे] ॥४॥
भावार्थ
जैसे पूर्वज लोग न्याय करने से प्रधान हुए हैं, और जैसे माता सत्य का उपदेश करके सन्तानों को गुणी बनाती है, वैसे ही राजा प्रजा का हित करता रहे ॥४॥
टिप्पणी
यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−२३।२९। और महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ ३३४ में व्याख्यात है ॥ ४−(यत्) यथा (देवासः) विद्वांसः (ललामगुम्) प्रथेरमच्। उ० ।६८। लल ईप्सायाम्−अमच् पृषोदरादिदीर्घः। गच्छतेः-डु। ललामं पुच्छपुण्ड्राश्वभूषाप्राधान्यकेतुषु−अमरः २३।१४२। प्राधान्यस्य गमयितारं प्रापयितारम् (प्र) (विष्टीमिनम्) वि+ष्टीम क्लेदे−घञ्। अत इनिठनौ। पा० ।२।११। विष्टीम−इनि। विशेषेण आर्द्रभावेन कोमलत्वेन युक्तं, न्यायम् (आविषुः) अव रक्षणगतिप्रवेशादिषु−लुङ्। प्रविष्टवन्तः (सकुला) कुलैः सन्तानैः सह वर्त्तमाना (देदिश्यते) दिश दाने−यङ्प्रत्ययः। पुनः पुनरुपदेशं करोति (नारी) नरस्य स्त्री (सत्यस्य) यथार्थज्ञानस्य (अक्षिभुवः) अक्षि+भू−क्विप्। अक्षिभ्यां भवस्य प्रत्यक्षस्य (यथा) ॥
विषय
राजा तथा सभ्य कैसे हों?
पदार्थ
१. राजा की सभा में (यत्) = जब (ललामगुम्) = सुन्दर वाणीवाले [ललाम गो] तथा (प्रविष्टीमिनम्) = प्रजा के लिए विशेषरूप से करुणाईभाववाले [स्तीम् आद्रीभावे] राजा को (देवासः) = व्यवहारकुशल विद्वान् लोग (आविषुः) = समन्तात् व्याप्त कर लेते हैं, अर्थात् जब राजा खुशामदियों से न घिरा होकर इन विद्वानों से संगत होता है तब यह (नारी) = नरहितकारिणी राजसभा (सकुला) = [कुल-a noble family] कुलीन (देदिश्यते) = कही जाती है। २. यह सभा उतनी ही 'सकुला' कही जाती है (यथा) = जिस प्रकार इस सभा के साथ (सत्यस्य अक्षिभुवः) = सत्य की आँखों से देखनेवाले होते हैं। जितना-जितना सभ्य सत्य से न कि पक्षपात से प्रत्येक मामले [वस्तु] को देखेंगे उतना उतना ही यह राजसभा कुलीन पुरुषों की सभा कहलाएगी।
भावार्थ
राजा को सुन्दर वाणीवाला व प्रजा के प्रति प्रेमाईहदयवाला होना चाहिए तथा राजसभा के सभ्यों को सब मामलों को सत्य की दृष्टि से देखना चाहिए। राजा खुशामदियों से न घिरा रहकर सत्यवादी देवों से युक्त हो।
भाषार्थ
(इनम्) इस गृहस्थाश्रम में (प्रविष्टीम्) प्रविष्ट हुई (ललामगुम्) प्रशस्त इन्द्रियोंवाली तथा व्यवहारोंवाली वधू की—(देवासः यद्) श्वशुरगृह के देव अर्थात् पति, श्वशुर सास आदि जब (आविषुः) रक्षा करते हैं, तब (नारी) विवाहिता स्त्री (सकुला) कुलवाली हो गई है—ऐसा (देदिश्यते) निर्दिष्ट कर दिया जाता है—यह ऐसी सच्चाई है (यथा) जैसे कि (अक्षिभुवः) आखोंदृष्ट (सत्यस्य) सच्चाई का निर्देश किया जाता है।
इंग्लिश (4)
Subject
Prajapati
Meaning
Just as noble people go to an eminent and reasonable judge for justice, just as a noble woman is distinguished by her body, so do men of reason find out the truth by direct observation of evidence.
Translation
As the learned men enters into the proces of delicacy of justice and as the woman having children preaches the truth confirmed by eyes so the king should do likewise.
Translation
As the learned men enters into the process of delicacy of justice and as the woman having children preaches the truth confirmed by eyes so the king should do likewise.
Translation
When the victory-seeking people secure as head of the nation, the services of a person who is learned and sweet-tongued, the leading assembly under him unanimously directs the affairs of the state and its directions are as authentic as the true facts, seen by the eye.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−२३।२९। और महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ ३३४ में व्याख्यात है ॥ ४−(यत्) यथा (देवासः) विद्वांसः (ललामगुम्) प्रथेरमच्। उ० ।६८। लल ईप्सायाम्−अमच् पृषोदरादिदीर्घः। गच्छतेः-डु। ललामं पुच्छपुण्ड्राश्वभूषाप्राधान्यकेतुषु−अमरः २३।१४२। प्राधान्यस्य गमयितारं प्रापयितारम् (प्र) (विष्टीमिनम्) वि+ष्टीम क्लेदे−घञ्। अत इनिठनौ। पा० ।२।११। विष्टीम−इनि। विशेषेण आर्द्रभावेन कोमलत्वेन युक्तं, न्यायम् (आविषुः) अव रक्षणगतिप्रवेशादिषु−लुङ्। प्रविष्टवन्तः (सकुला) कुलैः सन्तानैः सह वर्त्तमाना (देदिश्यते) दिश दाने−यङ्प्रत्ययः। पुनः पुनरुपदेशं करोति (नारी) नरस्य स्त्री (सत्यस्य) यथार्थज्ञानस्य (अक्षिभुवः) अक्षि+भू−क्विप्। अक्षिभ्यां भवस्य प्रत्यक्षस्य (यथा) ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(যৎ) যেভাবে (দেবাসঃ) বিদ্বানগণ (ললামগুম্) প্রধানতা প্রেরণকারী (বিষ্টীমিনম্) কোমলতাযুক্ত ন্যায়ে (প্র আবিষুঃ) প্রবিষ্ট হয়/হয়েছে। এবং (যথা) যেভাবে (সকুলা) সন্তানের অধিকারী (নারী) নারী [স্ত্রী] (অক্ষিভুবঃ) চোখ দ্বারা দৃষ্ট [প্রত্যক্ষ] (সত্যস্য) সত্যের (দেদিশ্যতে) বার-বার উপদেশ করে [তেমনই রাজা ন্যায় এবং উপদেশ করে] ॥৪॥
भावार्थ
যেভাবে পূর্বজ ব্যক্তিরা ন্যায় করে প্রধান/শ্রেষ্ঠ হয়েছে, অথবা যেভাবে মাতা সত্যের উপদেশ করে সন্তানদের গুণী করে, সেই ভাবেই রাজা তার প্রজার কল্যান করতে থাকুক ॥৪॥ এই মন্ত্র কিছু ভেদপূর্বক যজুর্বেদে আছে−২৩।২৯। এবং মহর্ষিদয়ানন্দকৃত ঋগ্বেদাদিভাষ্যভূমিকা পৃষ্ঠা ৩৩৪ এ ব্যাখ্যাত আছে ॥
भाषार्थ
(ইনম্) এই গৃহস্থাশ্রমে (প্রবিষ্টীম্) প্রবিষ্ট (ললামগুম্) প্রশস্ত ইন্দ্রিয়সম্পন্ন তথা ব্যবহারসম্পন্ন বধূর—(দেবাসঃ যদ্) শ্বশুরগৃহের দেব অর্থাৎ পতি, শ্বশুর, শাশুড়ি প্রমুখ যখন (আবিষুঃ) রক্ষা করে, তখন (নারী) বিবাহিতা স্ত্রী (সকুলা) কুলসম্পন্ন হয়ে গেছে—এমনটা (দেদিশ্যতে) নির্দিষ্ট করা হয়—ইহাই সত্য/বাস্তব (যথা) যেমন (অক্ষিভুবঃ) চক্ষুদৃষ্ট (সত্যস্য) সত্যতার নির্দেশ করা হয়।
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