अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 136/ मन्त्र 6
म॑हान॒ग्न्युलूखलमति॒क्राम॑न्त्यब्रवीत्। यथा॒ तव॑ वनस्पते॒ निर॑घ्नन्ति॒ तथै॑वेति ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हा॒न् । अ॒ग्नी इति॑ । उ॑लूखलम् । अतिक्राम॑न्ति । अब्रवीत् ॥ यथा॒ । तव॑ । वनस्पते॒ । निर॑घ॒न्ति॒ । तथा॑ । एवति॑ ॥१३६.६॥।
स्वर रहित मन्त्र
महानग्न्युलूखलमतिक्रामन्त्यब्रवीत्। यथा तव वनस्पते निरघ्नन्ति तथैवेति ॥
स्वर रहित पद पाठमहान् । अग्नी इति । उलूखलम् । अतिक्रामन्ति । अब्रवीत् ॥ यथा । तव । वनस्पते । निरघन्ति । तथा । एवति ॥१३६.६॥।
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(महान्) महान् पुरुष (अग्नी) दोनों अग्नियों [आत्मिक और सामाजिक बलों] से (उलूखलम्) ओखली को (अतिक्रामन्ति) लाँघता है और (अब्रवीत्) कहता है−(वनस्पते) हे वनस्पति ! [काठ के पात्र] (यथा) जैसे (तव) तुझमें (निरघ्नन्ति) [लोग] कूटते हैं, (तथा) वैसे ही (एवति) ज्ञान के विषय में [होवे] ॥६॥
भावार्थ
जैसे ओखली में कूटकर सार पदार्थ लेते हैं, वैसे ही मनुष्य परिश्रम करके ज्ञान प्राप्त करें ॥६॥
टिप्पणी
६−(महान्) (अग्नी) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः, प्रगृह्यत्वाभावश्च। अग्निभ्याम्। आत्मिकसामाजिकबलाभ्याम् (उलूखलम्) धान्यादिकण्डनपात्रम् (अतिक्रामन्ति) एकवचनस्य बहुवचनम्। अतिक्रामति। उल्लङ्घयति (अब्रवीत्) ब्रवीति (यथा) (तव) त्वयि (वनस्पते) हे काष्ठमय पात्र (निरघ्नन्ति) अकारश्छान्दसः। निर्घ्नन्ति। नितरामाहननं कुर्वन्ति मनुष्याः (तथा) (एवति) वर्तमाने पृषद्बृहन्मह०। उ० २।८४। इवि व्याप्तौ−अति, नकारलोपः। ज्ञानविषये ॥
विषय
'सभा व समिति'-उलूखलम्
पदार्थ
१. (महान्) = गतमन्त्र का महनीय राजा (अब्रवीत्) = कहता है कि (अग्नी) = राष्ट्र को आगे ले चलनेवाली ये सभा व समितिरूप अग्नियाँ (उलूखलम्) = [उरुकरं नि० ९.२०]-खूब ही कार्य करनेवाली हैं तथा (अतिक्रामन्ति) = ये सभा व समिति के सदस्य सब समस्याओं को दुर्गम परिस्थितियों को लाँघ जाते हैं। दुर्गम परिस्थितियों में न घबराकर ये उपाय का चिन्तन करते हैं। २. राजा कहता है कि हे (वनस्पते) = वनस्पति-विकार-वनस्पति के बने हुए ऊखल! (यथा) = जैसे (तव निरघ्नन्ति) = तुझमें स्थित वस्तु को लोग खूब ही कूटते हैं-विभक्त करते हैं, (तथा) = उसी प्रकार ये सभा व समिति (एवति) = [इवि व्याप्तौ] विजय का व्यापन करती हैं-विषय के एक-एक पहलू को विभक्त करके देखती हैं।
भावार्थ
राजा की दृष्टि में सभा व समिति एक उलूखल के समान हैं। ये महान् कार्यों को करती हैं तथा प्रत्येक विषय का सूक्ष्मता से विचार करती हैं।
भाषार्थ
(महानग्नी) महा-अपठिता महामूर्खा स्त्री, (उलूखलम्) ऊखल के कार्यों को (अतिक्रामन्ती) न करती हुई (अब्रवीत्) कहती है कि (वनस्पते) हे लकड़ी के बने ऊखल! (यथा) जैसे (तव) तेरी, (निरघ्नन्ति) मुसली द्वारा निरन्तर पिटाई करते हैं, (तथैवति) वैसी ही पिटाई मुझ पर भी होती रहती है।
इंग्लिश (4)
Subject
Prajapati
Meaning
The man of two great fires should go beyond the mortar and pestle and say: O Vanaspati, lord of the woods, as we pound the grain in the mortar to refine it, so may we reflect upon our consciousness within and refine ourselves with knowledge.
Translation
The great men have under their control the two fires and also the Ulukhala and say...As in this fire (Vanaspati) people burn everything so they do in the matter of knowledge.
Translation
The great men have under their control the two fires and also the Ulukhala and say...As in this fire (Vanaspati) people burn everything so they do in the matter of knowledge.
Translation
The assembly, like a beautiful lady, presenting the precedent of pestle and mortar says, “O king, the master of great actions, we, the members of the assembly thoroughly discuss the matters and arrive at certain decisions and then act accordingly, just as paddy is completely thrashed before the rice is separated from the chaff and then made use of.”
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(महान्) (अग्नी) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः, प्रगृह्यत्वाभावश्च। अग्निभ्याम्। आत्मिकसामाजिकबलाभ्याम् (उलूखलम्) धान्यादिकण्डनपात्रम् (अतिक्रामन्ति) एकवचनस्य बहुवचनम्। अतिक्रामति। उल्लङ्घयति (अब्रवीत्) ब्रवीति (यथा) (तव) त्वयि (वनस्पते) हे काष्ठमय पात्र (निरघ्नन्ति) अकारश्छान्दसः। निर्घ्नन्ति। नितरामाहननं कुर्वन्ति मनुष्याः (तथा) (एवति) वर्तमाने पृषद्बृहन्मह०। उ० २।८४। इवि व्याप्तौ−अति, नकारलोपः। ज्ञानविषये ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(মহান্) মহান পুরুষ (অগ্নী) উভয় অগ্নি [আত্মিক এবং সামাজিক বল] দ্বারা (উলূখলম্) উদূখল (অতিক্রামন্তি) অতিক্রম করে এবং (অব্রবীৎ) বলে− (বনস্পতে) হে বনস্পতি! [কাঠের পাত্র] (যথা) যেভাবে (তব) তোমার মধ্যে (নিরঘ্নন্তি) [মানুষ] চূর্ণ করে, (তথা) তেমনই (এবতি) জ্ঞানের বিষয়ে [হোক] ॥৬॥
भावार्थ
উদূখলে চূর্ণ করে যেমন সার পদার্থ নেয়া হয়, তেমনই মনুষ্য পরিশ্রম করে জ্ঞান প্রাপ্ত করুক ॥৬॥
भाषार्थ
(মহানগ্নী) মহা-অপঠিতা মহামূর্খা স্ত্রী, (উলূখলম্) উদূখলের কার্য (অতিক্রামন্তী) না করে (অব্রবীৎ) বলে, (বনস্পতে) হে কাষ্ঠের উদূখল! (যথা) যেমন (তব) তোমার, (নিরঘ্নন্তি) মুসল দ্বারা নিরন্তর হনন করে, (তথৈবতি) তেমনই হনন আমার প্রতিও হতে থাকে।
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