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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 136 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 136/ मन्त्र 16
    ऋषिः - देवता - प्रजापतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
    1

    यः कु॑मा॒री पि॑ङ्गलि॒का वस॑न्तं पीव॒री ल॑भेत्। तैल॑कुण्ड॒मिमा॑ङ्गु॒ष्ठं रोद॑न्तं शुद॒मुद्ध॑रेत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । कु॑मा॒री । पि॑ङ्गलि॒का । वस॑न्तम् । पीव॒री । ल॑भेत् ॥ तैल॑कुण्ड॒म्ऽइम । अ॑ङ्गु॒ष्ठम् । रोदन्तम् । शुद॒म् । उद्ध॑रेत् ॥१३६.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः कुमारी पिङ्गलिका वसन्तं पीवरी लभेत्। तैलकुण्डमिमाङ्गुष्ठं रोदन्तं शुदमुद्धरेत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । कुमारी । पिङ्गलिका । वसन्तम् । पीवरी । लभेत् ॥ तैलकुण्डम्ऽइम । अङ्गुष्ठम् । रोदन्तम् । शुदम् । उद्धरेत् ॥१३६.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (पीवरी) पुष्टाङ्गी, (पिङ्गलिका) शोभायमान, (कुमारी) कामनायोग्य कुमारी [कन्या] (यः) प्रयत्न से (वसन्तम्) वसन्त राग को (लभेत्) प्राप्त होवे। [वैसे ही राजा] (तैलकुण्डम्) [तपते हुए] तेलकुण्ड में डाले हुए (अङ्गुष्ठम् इम) अंगूठे [अंगुली] को जैसे [वैसे] (रोदन्तम्) रोते हुए (शुदम्) ज्ञानदाता का (उद्धरेत्) उद्धार करे [ऊँचा उठावे] ॥१६॥

    भावार्थ

    जैसे स्त्रियाँ प्रसन्न होकर वसन्त राग को गाती हैं, वैसे ही राजा प्रसन्न होकर क्लेश में पड़े हुए विद्वानों को उठावे, जैसे तपे हुए तेल में से अंगुली को उठा लेते हैं ॥१६॥

    टिप्पणी

    इति कुन्तापसूक्तानि समाप्तानि ॥ १६−(यः) यसु प्रयत्ने−क्विप्, विभक्तेर्लुक्। यसा। प्रयत्नेन (कुमारी) म० १४। कमु कान्तौ−आरन्, ङीप्। कमनीया कन्या (पिङ्गलिका) म० १४। शोभमाना (वसन्तम्) तॄभूवहिवसि०। उ० ३।१२८। वस निवासे−झच्। रागविशेषम् (पीवरी) म० १२। पीवर-ङीप्। पुष्टाङ्गी (लभेत्) प्राप्नुयात् (तैलकुण्डम्) पचाद्यच्। तप्ततैलकुण्डेन युक्तम् (इम) म० १३। इव। यथा (अङ्गुष्ठम्) अङ्गु+ष्ठा गतिनिवृत्तौ−क। अम्बाम्बगोभू०। पा० ८।३।९७। इति षत्वम्। अङ्गौ हस्ते पादे वा तिष्ठतीति। अम्बाम्बेति सूत्रे, अङ्गु शब्दप्रयोगः। वृद्धाङ्गुलिम्। अङ्गुलिम् (रोदन्तम्) रोदनं कुर्वन्तम् क्लेशं प्राप्तम् (शुदम्) शुन गतौ−डु+ददातेः−क। ज्ञानदातारम् (उद्धरेत्) हृञ् हरणे ऊर्ध्वमानयेत् ॥

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    विषय

    'यः वसन्, तैलकुण्ड, अंगुष्ठ, रोदन'

    पदार्थ

    १. (कुमारी) = शत्रओं को बुरी तरह से मारनेवाली [कु-मार] (पिंगलिका) = तेजस्विनी (पीवरी) = हष्ट पुष्ट सेना जब (यः वसन्तम्) = [यस् प्रयत्ने भावे क्विप्] सदा प्रयत्न में निवास करनेवाले, (तैल कुण्डम्) = राग की चिकनाई का दहन कर देनेवाले-परिवार के राग में ही न फंसे हुए-इम [इमम्]-इस (अंगष्टम) = सदा गति में निवास करनेवाले-क्रियामय जीवनवाले, (रोदन्तम्) = प्रजा के कष्टों पर रोदन करनेवाले [Shedding tears] (शु-दम्) = शीन ही वेतन दे देनेवाले राजा को (लभेत्) = प्राप्त करती है तो उद्धरेत्-यह राष्ट्र का उद्धार करनेवाली होती है। २. राजा सदा प्रजा कल्याण के प्रयत्नों में लगा हुआ [यः वसन्], परिवार के राग में न फंसा हुआ [तैल-कुण्ड] गतिशील [अंगु-8], प्रजा के कष्टों को अनुभव करनेवाला [रोदन] तथा समय पर सेना को वतेन देनेवाला [शु-द] होना चाहिए। सेना भी शत्रुसंहार करनेवाली [कु-मारी], तेजस्विनी [पिंगलिका] तथा सबल [पीवरी] होनी चाहिए। ऐसा होने पर ही राष्ट्र का उत्थान होता है।

    भावार्थ

    राजा व सेना दोनों के उत्तम होने पर राष्ट्र का उत्थान सम्भव होता है।

    सूचना

    इति कुन्तापसूक्तानि यहाँ कन्ताप सक्तों की समाप्ति होती है। इनमें बुराई के विनाश का उपदेश था [कु+तप] अन्तिम सूक्त में राजा राष्ट्र के सब मलों का विनाश करके राष्ट्र का उत्थान करता है। इस राष्ट्र में लोग 'शिरिम्बिठि'-[बिठम् अन्तरिक्ष, श] हृदयान्तरिक्ष से वासनाओं को विनष्ट करनेवाले होते हैं [१३७.१] 'बुध'-ज्ञानी बनते हैं [१३७.२] 'वामदेव'-सुन्दर दिव्यगुणोंवाले होते हैं [१३७.३], 'पयाति:'-खूब ही यत्नशील होते हैं [१३७.४-६], 'तिरश्ची-अंगिरसः द्युतान:'-[तिरः अञ्च] हृदय-गुहा में तिरोहित प्रभु की ओर चलनेवाले, अंग-प्रत्यंग में रसमय, ज्ञान-ज्योति का विस्तार करनेवाले होते हैं [१३७.७-११]। ये "सुकक्ष'-लक्ष्य तक पहुँचने के लिए उत्तमता से कटिबद्ध होते हैं [१३७.१२-१४]। अगले सूक्त में ये ही मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं -

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    भाषार्थ

    (पिङ्गलिका) पीली पड़ी हुई, (पीवरी) मोटी (कुमारी) कुमारी, यदि (वसन्तम्) बसे हुए, (तैलकुण्डमिव) तेल के कूण्डे के सदृश स्निग्ध, अर्थात् स्नेहभरे हृदयवाले, (शुदम्) पत्नी की मांग पर उसे शीघ्र सहायता देनेवाले, (अङ्गुष्ठम्) अंगूठे के समान मोटे और नाटे पति को—(लभेत्) प्राप्त कर लेती है, तो (रोदन्तम्) कष्टों और विपत्तियों के कारण रोते हुए पति का (उद्धरेत्) उद्धार—सान्त्वना-सेवा आदि उपायों से पत्नी अवश्य करे। (यः) इसी प्रकार जो पति—पीली पड़ी, मोटी, नाटी, परन्तु स्नेहार्द्र-हृदया, शीघ्र सहायता देनेवाली पत्नी को प्राप्त कर ले, तो पति या पत्नी का उद्धार उसके कष्टों में अवश्य किया करे।

    टिप्पणी

    [उपयुक्त मन्त्रों में साध्वी स्त्री के सद्गुणों, और अपठिता मूर्खा और कामुकी स्त्री के दुर्गुणों का वर्णन हुआ है। शुदम्=आशु+द (दातारम्)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prajapati

    Meaning

    As a youthful maiden, brave and comely, may attain and welcome the spring season after winter, she deserves it, so should the good and great ruler and leader protect the pure and innocent people against want and suffering as you would urgently protect your finger from a cauldron of boiling oil.

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    Translation

    As the beautiful strong maiden welcomes the spring season, as a man seves his finger in hot oil-vessal so the king should save the pure pious man from fallen troubles.

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    Translation

    As the beautiful strong maiden welcomes the spring season, as a man seves his finger in hot oil-vessal so the king should save the pure pious man from fallen troubles.

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    Translation

    Just as fat, young girl, getting a thin and lean person for her husband is not satisfied with him, similarly a strong parliament, finding a weakling as king, roots him out like the finger out of the hot oil in cauldron.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    इति कुन्तापसूक्तानि समाप्तानि ॥ १६−(यः) यसु प्रयत्ने−क्विप्, विभक्तेर्लुक्। यसा। प्रयत्नेन (कुमारी) म० १४। कमु कान्तौ−आरन्, ङीप्। कमनीया कन्या (पिङ्गलिका) म० १४। शोभमाना (वसन्तम्) तॄभूवहिवसि०। उ० ३।१२८। वस निवासे−झच्। रागविशेषम् (पीवरी) म० १२। पीवर-ङीप्। पुष्टाङ्गी (लभेत्) प्राप्नुयात् (तैलकुण्डम्) पचाद्यच्। तप्ततैलकुण्डेन युक्तम् (इम) म० १३। इव। यथा (अङ्गुष्ठम्) अङ्गु+ष्ठा गतिनिवृत्तौ−क। अम्बाम्बगोभू०। पा० ८।३।९७। इति षत्वम्। अङ्गौ हस्ते पादे वा तिष्ठतीति। अम्बाम्बेति सूत्रे, अङ्गु शब्दप्रयोगः। वृद्धाङ्गुलिम्। अङ्गुलिम् (रोदन्तम्) रोदनं कुर्वन्तम् क्लेशं प्राप्तम् (शुदम्) शुन गतौ−डु+ददातेः−क। ज्ञानदातारम् (उद्धरेत्) हृञ् हरणे ऊर्ध्वमानयेत् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (পীবরী) পুষ্টাঙ্গী, (পিঙ্গলিকা) শোভায়মান, (কুমারী) কামনাযোগ্য কুমারী [কন্যা] (যঃ) প্রযত্ন দ্বারা (বসন্তম্) বসন্ত রাগ/সুর (লভেৎ) প্রাপ্ত হয়। [তেমনই রাজা] (তৈলকুণ্ডম্) [উত্তপ্ত] তেলকুণ্ডে নিমজ্জিত (অঙ্গুষ্ঠম্ ইম) আঙুলকে যেমন [তেমন] (রোদন্তম্) রোদনকারী (শুদম্) জ্ঞানদাতাকে (উদ্ধরেৎ) উদ্ধার করে/করুক ॥১৬॥

    भावार्थ

    নারীরা যেমন প্রসন্ন হয়ে বসন্ত রাগ/সুর গায়, তেমনি রাজা প্রসন্ন হয়ে ক্লেশে পতিত বিদ্বানদের উদ্ধার করুক, যেমন তপ্ত তেল থেকে অঙ্গুলি উঠিয়ে নেওয়া হয় ॥১৬॥

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    भाषार्थ

    (পিঙ্গলিকা) ভীতসন্ত্রস্ত, (পীবরী) মোটা (কুমারী) কুমারী, যদি (বসন্তম্) স্থিতিশীল, (তৈলকুণ্ডমিব) তেলের কূণ্ডের সদৃশ স্নিগ্ধ, অর্থাৎ স্নেহর্দ্র হৃদয়া, (শুদম্) পত্নীর কামনায় তাঁকে শীঘ্র সহায়তা প্রদানকারী, (অঙ্গুষ্ঠম্) আঙুলের সমান মোটা এবং খাঁটো পতি—(লভেৎ) প্রাপ্ত করে, তবে (রোদন্তম্) কষ্ট এবং বিপত্তির কারণে ক্রন্দনরতা পতির (উদ্ধরেৎ) উদ্ধার—সান্ত্বনা-সেবা আদি উপায় দ্বারা পত্নী অবশ্য করে/করুক। (যঃ) এইভাবে যে পতি—ভীতসন্ত্রস্ত, মোটা, খাটো, কিন্তু স্নেহার্দ্র-হৃদয়া, শীঘ্র সহায়তা প্রদানকারী পত্নীকে প্রাপ্ত করে, তবে পতি বা পত্নীর উদ্ধার তাঁর কষ্টে অবশ্য করে/করুক।

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