अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 21
ऋषिः - अथर्वा
देवता - भैषज्यम्, आयुष्यम्, ओषधिसमूहः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ओषधि समूह सूक्त
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उज्जि॑हीध्वे स्त॒नय॑त्यभि॒क्रन्द॑त्योषधीः। य॒दा वः॑ पृश्निमातरः प॒र्जन्यो॒ रेत॒साव॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । जि॒ही॒ध्वे॒ । स्त॒नय॑ति । अ॒भि॒ऽक्रन्द॑ति । ओ॒ष॒धी॒: । य॒दा । व॒: । पृ॒श्नि॒ऽमा॒त॒र॒: । प॒र्जन्य॑: । रेत॑सा । अव॑ति ॥७.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
उज्जिहीध्वे स्तनयत्यभिक्रन्दत्योषधीः। यदा वः पृश्निमातरः पर्जन्यो रेतसावति ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । जिहीध्वे । स्तनयति । अभिऽक्रन्दति । ओषधी: । यदा । व: । पृश्निऽमातर: । पर्जन्य: । रेतसा । अवति ॥७.२१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
रोग के विनाश का उपदेश।
पदार्थ
(ओषधीः) हे ओषधियो ! (पृश्निमातरः) हे पृथिवी को माता रखनेवालियो ! (उद् जिहीध्वे) तुम खड़ी हो जाती हो, (यदा) जब (पर्जन्यः) मेघ (स्तनयति) गरजता है और (अभिक्रन्दति) कड़कड़ाता है और (वः) तुमको (रेतसा) जल से (अवति) तृप्त करता है ॥२१॥
भावार्थ
सूर्य द्वारा वृष्टि होने से पृथिवी पर सब ओषधियाँ और अन्न आदि पदार्थ उत्पन्न होते हैं ॥२१॥
टिप्पणी
२१−(उज्जिहीध्वे) ओहाङ् गतौ-लट्। उद्गच्छथ (स्तनयति) गर्जति (अभिक्रन्दति) अभितो ध्वनति (ओषधीः) हे ओषधयः (यदा) (वः) युष्मान् (पृश्निमातरः) अ० ४।२७।२। घृणिपृश्निपार्ष्णि०। उ० ४।५२। स्पृश संस्पर्शे-नि, धातोः सलोपः। पृश्निरादित्यो भवति-प्राश्नुत एनं वर्ण इति नैरुक्ताः, संस्प्रष्टा रसान्, संस्प्रष्टा भासं ज्योतिषां, संस्पृष्टो भासेति वा-निरु० २।१४। पृश्निः पृथिवी इति रामजसनकोशः। पृथिवी माता उत्पादयित्री यासां तास्तत्सम्बुद्धौ (पर्जन्यः) अ० १।२।१। मेघः (रेतसा) अ० २।२८।५। उदकेन-निघ० १।१२। (अवति) तर्पयति ॥
विषय
पृश्निमातरः [ओषधीः]
पदार्थ
१. हे (पृश्निमातर:) = [पृश्नि-संस्पष्टा रसान्–नि०] रसों को अपने अन्दर ले-लेने में समर्थ पृथिवी माता से उत्पन्न (ओषधी:) = ओषधियो! (यदा) = जब (पर्जन्य:) = मेघ (स्तनयति) = गरजता है, (अभिक्रन्दति) = खूब ही ध्वनि करता है तब तुम (उजिहीध्वे) = ऊपर उठती हो-प्रसन्न होती हो। उस समय यह (मेघ व:) = तुम्हें (रेतसा) = उदक से-जल से (अवति) = प्रीणित करता है। २. मेष का गर्जन मानो भूमि में प्रसुप्त ओषधियों को ललकारता है, तब वे ओषधियाँ भी अपना सिर ऊपर उठाती हैं। यह पर्जन्य उन-उन ओषधियों को वृष्टि-जल से प्रीणित करता है। पृथिवी इन ओषधियों की माता है तो मेघ इनका पितृ-स्थानीय होता है।
भावार्थ
भूमि में वृष्टि-जल में उत्पन्न हुई ओषधियाँ वस्तुत: ओषधियाँ हैं-ये हमारे शरीर में उत्पन्न दोषों का दहन करनेवाली हैं।
भाषार्थ
(ओषधीः) हे ओषधियो ! (स्तनयति) मेघ के गर्जने और (अभिक्रन्दति) कड़कड़ाने पर (उज्जिहीध्वे) तुम बढ़ती हो। (पृश्निमातरः) नाना वर्णों वाली या पृथिवीरूप माता वाली हे ओषधियो ! (यदा) जबकि (वः) तुम्हें (पर्जन्यः) मेघ (रेतसा) जल द्वारा (अवति) तृप्त करता हैं, सींचता है।
टिप्पणी
[उज्जिहीध्वे = उद् + ओहाङ् गतौ (जुहोत्यादि)। पृश्निः= पृथिवी, प्राश्नुते एनं वर्णः (निरुक्त २।४।१४)। रेतः उदकनाम (निघं० १।१२)। ओषधियों का सम्बोधन कविता में किया है]।
इंग्लिश (4)
Subject
Health and Herbs
Meaning
O herbs and plants, colourful children of mother earth, when the cloud thunders and roars and showers you with living vitality, you spring to new life and grow.
Translation
When it thunders, it cries out to you. Rise up, O herbs, offsprings of mother earth. The cloud helps you with flow of rain water.
Translation
These medicinal plants the earth whose mother grow up when the cloud thunders and roars and this rain protect them with rainy water.
Translation
O healing plants, ye children of Earth, ye lift yourselves up, when the cloud thunders, roars, and blessed you with full flow of water.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२१−(उज्जिहीध्वे) ओहाङ् गतौ-लट्। उद्गच्छथ (स्तनयति) गर्जति (अभिक्रन्दति) अभितो ध्वनति (ओषधीः) हे ओषधयः (यदा) (वः) युष्मान् (पृश्निमातरः) अ० ४।२७।२। घृणिपृश्निपार्ष्णि०। उ० ४।५२। स्पृश संस्पर्शे-नि, धातोः सलोपः। पृश्निरादित्यो भवति-प्राश्नुत एनं वर्ण इति नैरुक्ताः, संस्प्रष्टा रसान्, संस्प्रष्टा भासं ज्योतिषां, संस्पृष्टो भासेति वा-निरु० २।१४। पृश्निः पृथिवी इति रामजसनकोशः। पृथिवी माता उत्पादयित्री यासां तास्तत्सम्बुद्धौ (पर्जन्यः) अ० १।२।१। मेघः (रेतसा) अ० २।२८।५। उदकेन-निघ० १।१२। (अवति) तर्पयति ॥
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