अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 28
ऋषिः - अथर्वा
देवता - भैषज्यम्, आयुष्यम्, ओषधिसमूहः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - ओषधि समूह सूक्त
0
उत्त्वा॑हार्षं॒ पञ्च॑शला॒दथो॒ दश॑शलादु॒त। अथो॒ यम॑स्य॒ पड्वी॑शा॒द्विश्व॑स्माद्देवकिल्बि॒षात् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । त्वा॒ । अ॒हा॒र्ष॒म् । पञ्च॑ऽशलात् । अथो॒ इति॑ । दश॑ऽशलात् । उ॒त । अथो॒ इति॑ । य॒मस्य॑ । पड्वी॑शात् । विश्व॑स्मात् । दे॒व॒ऽकि॒ल्बि॒षात् ॥७.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्त्वाहार्षं पञ्चशलादथो दशशलादुत। अथो यमस्य पड्वीशाद्विश्वस्माद्देवकिल्बिषात् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । त्वा । अहार्षम् । पञ्चऽशलात् । अथो इति । दशऽशलात् । उत । अथो इति । यमस्य । पड्वीशात् । विश्वस्मात् । देवऽकिल्बिषात् ॥७.२८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
रोग के विनाश का उपदेश।
पदार्थ
(अथो) अव (त्वा) तुझको (पञ्चशलात्) पञ्चभूतों में व्यापक (उत) और (दशशलात्) दश दिशाओं में व्यापक परमेश्वर का आश्रय लेकर (अथो) और (यमस्य) न्यायकारी राजा के (पड्वीशात्) बेड़ी डालने से (उत) और (विश्वस्मात्) सब (देवकिल्बिषात्) परमेश्वर के प्रति अपराध से [पृथक्] करके (उत् अहार्षम्) मैंने ऊँचा पहुँचाया है ॥२८॥
भावार्थ
मनुष्य सर्वव्यापक परमेश्वर का आश्रय लेकर सब दुराचार को छोड़कर उन्नति करें ॥२८॥ इस मन्त्र का उत्तर भाग आ चुका है-अ० ६।९६।२। तथा ७।११२।२ ॥
टिप्पणी
२८−(उत्) ऊर्ध्वम् (त्वा) त्वाम् (अहार्षम्) प्रापितवानस्मि (पञ्चशलात्) शल गतौ-अच्। पञ्चमीविधाने ल्यब्लोपे कर्मण्युपसंख्यानम्। वा० पा० २।३।२८। पञ्चसु भूतेषु व्यापकं परमेश्वरमाश्रित्य (अथो) इदानीम् (दशशलात्) पूर्ववत् पञ्चमी। दशदिक्षु व्यापकं परमेश्वरमाश्रित्य (उत) अपि च। अन्यत्पूर्ववत्-अ० ६।९६।२। तथा ७।११२।२ ॥
विषय
पञ्चशलात् दशशलात्
पदार्थ
१.(त्वा) = तुझे (पञ्चशलात्) = पाँच भूतों से बने इस शरीर में [शल गतौ] गति करनेवाले रोग से (उत आहार्षम्) = ऊपर उठाता हूँ, (अथो) = और अब इस नीरोग शरीर में (दशशलात् उत) = दस इन्द्रियों में गति करनेवाले शक्तिक्षीणतारूप दोष से भी ऊपर उठाता हूँ। २. (अथो) = अब (यमस्य पड्बीशात्) = यम के पादबन्धन से तुझे मुक्त करता हूँ-दीर्घजीवी बनाता हूँ और (विश्वस्मात) = सम्पूर्ण (देवकिल्बिषात्) = देवों के विषय में किये गये पापों से भी तुझे ऊपर उठाता हूँ।
भावार्थ
हम शरीर व इन्द्रियों में स्वस्थ बनें। हमें अजितेन्द्रियता के कारण असमय की मृत्यु प्राप्त न हो। हम प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन न करते हुए प्रभु के प्रिय बनें।
अपने को तपस्या की अग्नि में परिपक्व करनेवाला यह उपासक भृगु' कहलाता है-अङ्ग प्रत्यङ्ग में रसवाला होने से 'अङ्गिराः'है, यही अगले सूक्त का ऋषि है।
भाषार्थ
(पञ्चशलात्) पाँच विषयरूपी पांच शल्यों अर्थात् वाणों से, (उत) तथा (दशशलात्) दसविषयरूपी दश शल्यों अर्थात् वाणों से, (अथो) और (यमस्य) मृत्यु के (पड्वीशात्) पादबन्धन से, तथा (विश्वस्मात्) सब (देवकिल्विषात्) ऐन्द्रियिक पापों से (त्वा) तुझे (उत् अहार्षम्) मैंने उद्धृत किया है, तेरा उद्धार किया है।
टिप्पणी
[मुख्यरूप से पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ, पांचविषयरूपी पांच बाणों का प्रहार करती हैं। तत्पश्चात् ज्ञान द्वारा प्रेरित होकर पञ्चकर्मेन्द्रियां विषयों प्रति गमन करती हैं। अतः मन्त्र में पञ्चशल और दशशल का निर्देश हुआ है१। शल = शल्य, वाण। देव = इन्द्रियां, यथा "नैनद् देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत्" (यजु० ४०।४)]। [१. पञ्चविध ज्ञानवाण, पञ्चविध कर्मवाणों में परिणत होकर, १० वाण हो जाते हैं।]
इंग्लिश (4)
Subject
Health and Herbs
Meaning
I have redeemed you from the onslaughts of the five, i.e., from disturbance of the balance of five elements in the body system. I have delivered you from the onslaughts of ten, i.e., from disturbance of ten senses and ten pranas in the system. I have saved you from the fetters of Yama, i.e., the pain of death. I have strengthened your body and mind so as not to commit violations of the discipline of nature by habit and action in behaviour.
Translation
From the five-pointed and also from the ten-pointed sufferings, and even from the fetters of the controller Lord (death), I have delivered and raised you up, and also out of all offence committed against the enlightened ones.
Translation
I deliver you, O man! from the Pain in five cognitive organs, from the pain in ten organs, from the fetter of all-binding death and from all the troubles and pains caused by disobedience of the law of nature.
Translation
I have delivered thee from the sufferings of five breaths (Pranas), from the sufferings of ten organs. I have freed thee from Death’s fetter and from all offence against the behest of God.
Footnote
Thee: The patient.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२८−(उत्) ऊर्ध्वम् (त्वा) त्वाम् (अहार्षम्) प्रापितवानस्मि (पञ्चशलात्) शल गतौ-अच्। पञ्चमीविधाने ल्यब्लोपे कर्मण्युपसंख्यानम्। वा० पा० २।३।२८। पञ्चसु भूतेषु व्यापकं परमेश्वरमाश्रित्य (अथो) इदानीम् (दशशलात्) पूर्ववत् पञ्चमी। दशदिक्षु व्यापकं परमेश्वरमाश्रित्य (उत) अपि च। अन्यत्पूर्ववत्-अ० ६।९६।२। तथा ७।११२।२ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal