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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 15
    ऋषिः - भृगुः देवता - अजः पञ्चौदनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अज सूक्त
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    ए॒तास्त्वा॒जोप॑ यन्तु॒ धाराः॑ सो॒म्या दे॒वीर्घृ॒तपृ॑ष्ठा मधु॒श्चुतः॑। स्त॑भान पृ॑थि॒वीमु॒त द्यां नाक॑स्य पृ॒ष्ठेऽधि॑ स॒प्तर॑श्मौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ता: । त्वा॒ । अ॒ज॒ । उप॑ । य॒न्तु॒ । धारा॑: । सो॒म्या: । दे॒वी: । घृ॒तऽपृ॑ष्ठ: । म॒धु॒ऽश्चुत॑: । स्त॒भा॒न् । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् । नाक॑स्य । पृ॒ष्ठे । अधि॑ । स॒प्तऽर॑श्मौ ॥५.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतास्त्वाजोप यन्तु धाराः सोम्या देवीर्घृतपृष्ठा मधुश्चुतः। स्तभान पृथिवीमुत द्यां नाकस्य पृष्ठेऽधि सप्तरश्मौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एता: । त्वा । अज । उप । यन्तु । धारा: । सोम्या: । देवी: । घृतऽपृष्ठ: । मधुऽश्चुत: । स्तभान् । पृथिवीम् । उत । द्याम् । नाकस्य । पृष्ठे । अधि । सप्तऽरश्मौ ॥५.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 15
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से सुख का उपदेश।

    पदार्थ

    (अज) हे जीवात्मा ! (त्वा) तुझको (एताः) ये सब (सोम्याः) अमृतमय, (देवीः) उत्तम गुणवाली, (घृतपृष्ठाः) प्रकाश [वा सार तत्त्व] से सींचनेवाली, (मधुश्चुतः) मधुरपन बरसानेवाली (धाराः) धारण शक्तियाँ (उप) आदर से (यन्तु) प्राप्त हों। (सप्तरश्मौ) व्याप्त किरणोंवाले, यद्वा, सात प्रकार की [शुक्ल, नील, पील, रक्त, हरित, कपिश और चित्र] किरणोंवाले सूर्य [पूर्ण प्रकाश] में (नाकस्य) सुख के (पृष्ठे) पीठ [आश्रय] में (अधि) अधिकारपूर्वक (पृथिवीम्) पृथिवी (उत) और (द्याम्) अन्तरिक्षलोक को (स्तभान) सहारा दे ॥१५॥

    भावार्थ

    उद्योगी पुरुष अनेक प्रकार से धारण शक्तियाँ प्राप्त करके सूर्य के समान ज्ञान में प्रकाशित होकर आनन्दपूर्वक संसार भर का उपकार करते हैं ॥१५॥ निरुक्त ४।२६। में कहा है−“सात फैली हुई संख्या है, सात सूर्य की किरणें हैं,” और निरुक्त ४।२७। में वर्णन है−“सप्तनामा सूर्य है, सात किरणें इसकी ओर रसों को झुकाती हैं, अथवा सात ऋषि [इन्द्रियाँ] इसकी स्तुति करते हैं ॥”

    टिप्पणी

    १५−(एताः) (त्वा) त्वाम् (अज) हे जीवात्मन् (उप) आदरेण (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (धाराः) धारणशक्तयः (सोम्याः) अ० ३।१४।३। अमृतमय्यः (देवीः) दिव्यगुणयुक्ताः (घृतपृष्ठाः) अ० २।१३।१। प्रकाशेन सेचयित्र्यः (मधुश्चुतः) अ० ७।५६।२। माधुर्य्यस्य क्षरणशीलाः (स्तभान) दृढीकुरु (पृथिवीम्) पृथिवीस्थपदार्थानित्यर्थः। (उत) अपि च (द्याम्) अन्तरिक्षस्थान् पदार्थानित्यर्थः (नाकस्य) सुखस्य (पृष्ठे) आश्रये (अधि) अधिकृत्य (सप्तरश्मौ) सप्यशूभ्यां तुट्च। उ० १।१५७। षप समवाये-कनिन् तुट् च, यद्वा, क्त प्रत्ययः। सप्तः सृप्ता संख्या, सप्तादित्यरश्मयः-निरु० ४।२६। सप्तनामादित्यः सप्तास्मै रश्मयो रसानभिसन्नामयन्ति सप्तैनमृषयः स्तुवन्तीति वा-निरु० ४।२७। व्याप्तकिरणे, यद्वा शुक्लनीलपीतादिवर्णाः सप्तकिरणाः सन्ति यस्मिन् तस्मिन् सूर्यलोके ॥

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    विषय

    प्रकाशमय व आनन्दमय लोक में

    पदार्थ

    १. हे (अज) = गति के द्वारा बुराइयों को परे फेंकनेवाले जीव! (एता:) = ये (सोम्या:) = सोम सम्बन्धी [वीर्य की] (धारा:) = धारणशक्तियाँ (त्वा उपयन्तु) = तुझे समीपता से प्रात हों। ये धाराएँ (देवी:) = सब रोगों की विजिगीषावाली है-नीरोग बनानेवाली हैं, (घृतपृष्ठा:) = ज्ञानदीप्ति से सिक्त करनेवाली हैं [प्रष् सेचने] और (मधुश्चत:) = हृदय में माधुर्य को क्षरित [संचरित] करनेवाली हैं। शरीर में सुरक्षित सोम हमें नीरोग, ज्ञानदीप्त व मधुर स्वभावाला बनाता है। २. इस सोमरक्षण के द्वारा तू (पृथिवीम्) = इस शरीररूप पृथिवी को (उत) = और (द्याम्) = मस्तिष्करूप धुलोक को (स्तभान) = थाम। तू सोम-रक्षण करता हुआ शरीर को शक्ति-सम्पन्न व मस्तिष्क को ज्ञान-सम्पन्न बना। ऐसा करता हुआ तू (नाकस्य पृष्ठे) = आनन्दमय लोक के आधार में स्थित हो तथा (सप्तरश्मौ अधि) = सत छन्दोमयी ज्ञान किरणोंवाली इस वेदवाणी में स्थित हो।

    भावार्थ

    सोमरक्षण के द्वारा हम जीवन को नीरोग, ज्ञानदीत व मधुर बनाएँ। शरीर व मस्तिष्क का धारण करते हुए प्रकाशमय व आनन्दमय लोकों में विचरे।

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    भाषार्थ

    (अज) हे जन्म मरण से रहित परमेश्वर ! (सोम्याः) सोम का, (देवीः, घृतपृष्ठाः, मधुश्चुतः) दिव्य, घृतस्पर्शी तथा मधुमिश्रित (एताः धारा) ये धाराएं (त्वा उपयन्तु) तुझे प्राप्त हों। (नाकस्य पृष्ठे) नाक की पीठ पर (सप्तरश्मौ) सात प्रकार की रश्मियों वाले सूर्य में (अधि) अधिष्ठित हुआ तू (पृथिवीम् उत द्याम्) पृथिवी और द्युलोक को (स्तभान) थाम।

    टिप्पणी

    [मन्त्र १३ में अग्निस्वरूप परमेश्वर के प्रकाश से मुमुक्षु “अज” अर्थात् जन्मरहित है, इस निमित्त मन्त्र १४ में यज्ञ कराने सम्बन्धी दक्षिणा का वर्णन हुआ है, और मन्त्र १५ में घृत तथा मधु से मिश्रित सोमयाग की कर्त्तव्यता का निर्देश किया है। सूर्य को सप्तरश्मि कहा है। इस की शुभ्र रश्मियां फट कर, सातरंगों की रश्मियों में परिवर्तित हो जाती हैं। ये सातरंगी रश्मियां वर्षर्तु में मेघीय इन्द्र-धनुष् में दीखती हैं। यजुर्वेद (४०।१७) में भी परमेश्वर की स्थिति आदित्य में दर्शाई है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Soul, the Pilgrim

    Meaning

    O Aja, immortal soul, let these streams of divine soma of exhilaration, brilliant, replete with ghrta and honey sweets of bliss, reach you, sustaining yourself on earth and in the heaven of seven lights of solar divinity on top of the bliss of Supreme Brahma.

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    Translation

    O unborn, may these’ streams of divine Soma juice (cure juice) with purified butter on their surface and dripping honey reach you. May you steady the earth and also the sky on the top of the sorrowless world, above the seven-rayed sun.

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    Translation

    O eternal soul ! let these streams or sustaining powers which are full of worldly. pleasures, which are supernatural or wondrous, which are full of ghee or light and which are full of honey or sweet come to you. You establish yourself on earth, in heavenly region, in firmament and in the sun.

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    Translation

    O soul, may these beautiful, lustrous, pleasure-promulgating powers of God, reach thee. God, in His divine, supreme state, reigning high above the seven-rayed Sun, is supporting Heaven and Earth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १५−(एताः) (त्वा) त्वाम् (अज) हे जीवात्मन् (उप) आदरेण (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (धाराः) धारणशक्तयः (सोम्याः) अ० ३।१४।३। अमृतमय्यः (देवीः) दिव्यगुणयुक्ताः (घृतपृष्ठाः) अ० २।१३।१। प्रकाशेन सेचयित्र्यः (मधुश्चुतः) अ० ७।५६।२। माधुर्य्यस्य क्षरणशीलाः (स्तभान) दृढीकुरु (पृथिवीम्) पृथिवीस्थपदार्थानित्यर्थः। (उत) अपि च (द्याम्) अन्तरिक्षस्थान् पदार्थानित्यर्थः (नाकस्य) सुखस्य (पृष्ठे) आश्रये (अधि) अधिकृत्य (सप्तरश्मौ) सप्यशूभ्यां तुट्च। उ० १।१५७। षप समवाये-कनिन् तुट् च, यद्वा, क्त प्रत्ययः। सप्तः सृप्ता संख्या, सप्तादित्यरश्मयः-निरु० ४।२६। सप्तनामादित्यः सप्तास्मै रश्मयो रसानभिसन्नामयन्ति सप्तैनमृषयः स्तुवन्तीति वा-निरु० ४।२७। व्याप्तकिरणे, यद्वा शुक्लनीलपीतादिवर्णाः सप्तकिरणाः सन्ति यस्मिन् तस्मिन् सूर्यलोके ॥

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