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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 38
    ऋषिः - भृगुः देवता - अजः पञ्चौदनः छन्दः - एकावसाना द्विपदा साम्नी त्रिष्टुप् सूक्तम् - अज सूक्त
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    तास्ते॑ रक्षन्तु॒ तव॒ तुभ्य॑मे॒तं ता॑भ्य॒ आज्यं॑ ह॒विरि॒दं जु॑होमि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता: । ते॒ । र॒क्ष॒न्तु॒ । तव॑ । तुभ्य॑म् । ए॒तम् । ताभ्य॑: । आज्य॑म् । ह॒वि: । इ॒दम् । जु॒हो॒मि॒ ॥५.३८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तास्ते रक्षन्तु तव तुभ्यमेतं ताभ्य आज्यं हविरिदं जुहोमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता: । ते । रक्षन्तु । तव । तुभ्यम् । एतम् । ताभ्य: । आज्यम् । हवि: । इदम् । जुहोमि ॥५.३८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 38
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से सुख का उपदेश।

    पदार्थ

    (ताः) वे सब [दिशाएँ] (ते) तेरे लिये, (तुभ्यम्) तेरे लिये (तव) तेरे (एतम्) इस [जीवात्मा] की (रक्षन्तु) रक्षा करें, (ताभ्यः) उन सबसे (इदम्) इस (आज्यम्) प्रकाश करने योग्य (हविः) ग्राह्यकर्म को (जुहोमि) मैं ग्रहण करता हूँ ॥३८॥

    भावार्थ

    मनुष्य सब पदार्थों से गुण ग्रहण करके संसार में विख्यात करें ॥३८॥

    टिप्पणी

    ३८−(ताः) पूर्वोक्ता दिशाः (ते) तुभ्यम् (रक्षन्तु) पान्तु (तव) (तुभ्यम्) वीप्सायां द्विर्वचनम् (एतम्) जीवात्मानम् (ताभ्यः) दिशानां सकाशात् (आज्यम्) अ० ५।८।१। आङ्+अञ्जू व्यक्तीकरणे-क्यप्। व्यक्तीकरणीयम्। व्याख्यातव्यम् (हविः) ग्राह्यं कर्म (इदम्) (जुहोमि) आददे। गृह्णामि ॥

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    विषय

    अज व ओदनों का पाचन

    पदार्थ

    १. हे जीवो! (अजं च पचत) = उल्लिखित 'नैदाघ', 'कुर्वन्', "संयन्', 'पिन्वन्', 'उद्यन्' व 'अभिभू' नामक वृत्तियों से जीवात्मा का ठीकरूप में परिपाक करो (च) = और (पञ्च ओदनान) = पाँचों जानेन्द्रियों से प्राप्त होनेवाले ज्ञान-भोजनों का भी परिपाक करो। (सर्वा:) = सब (सान्तर्देशा:) = अन्तर्देशोसहित (दिश:) = दिशाएँ-दिशाओं में स्थित प्राणी (संमनस:) = उत्तम मनवाले होकर (सध्रीची:) = सम्मिलित गतिवाले होकर (ते) = तेरे (एतम्) = इस ज्ञान को (प्रतिगृह्णन्तु) = ग्रहण करनेवाले हों। ज्ञान परिपक्व व्यक्ति जब ज्ञान का प्रसार करे तब सब दिशाओं में स्थित प्राणी उस ज्ञान के ग्रहण की रुचिवाले हों। २. (ता:) = वे सब दिशाएँ (ते) = तेरी हों-तुझे उन दिशाओं की अनुकूलता प्राप्त हो। (तव) = तेरे (एतम्) = इस ज्ञान को [ज्ञान के ओदन को] (तुभ्यम्) = तेरे लिए (रक्षन्तु) = रक्षित करें। मैं (ताभ्य:) = उन सब दिशाओं के लिए उनकी अनुकूलता के लिए (इदम्) = उस (आग्यम्) = घृत को और (हवि:) = हवियों को (जुहोमि) = आहुत करता हूँ। अग्निहोत्र से वायु शुद्ध होकर नीरोगता प्राप्त होती है। ज्ञान-प्राति के लिए नीरोगता की नितान्त आवश्यकता है।

    भावार्थ

    हम तपस्या की अग्नि में आत्मा का परिपाक करें तथा पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त होनेवाले ज्ञानों को प्राप्त करें। इस ज्ञान को सब दिशाओं में स्थित मनुष्य ग्रहण करें। हमें इन दिशाओं की अनुकूलता प्राप्त हो। अग्निहोत्र द्वारा ये सब दिशाएँ शुद्ध वायुबाली होकर नीरोगता को सिद्ध करें।

    विशेष

    ॥ इति विंशः प्रपाठकः ।। विशेष-पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान के भोजन का परिपाक करनेवाला 'ब्रह्मा' अगले दो सूक्कों का ऋषि है अथैकविंश: प्रपाठकः

     

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    भाषार्थ

    (ताः) वे सब दिशाएं अर्थात् सब दिशाओं के वासी प्रजाएं (मन्त्र ३७) (ते) हे “पुनर्भूः” तेरे, (तव एतम्) अर्थात् तेरे इस पति की, (तुभ्यम्) तेरे लिये, (रक्षन्तु) रक्षा करें। (ताभ्यः) उन प्रजाओं के लिये (आज्यम्) घृत और (इदम् हविः) (जुहोमि) मैं पुरोहित आहुतियों के रूप में आहुत करता हूं।

    टिप्पणी

    [मन्त्रोक्त कथन “पुनर्भूः” को लक्ष्य करके हुआ है। पत्नी की प्रसन्नता इस में है कि उस का पति जीवित तथा सुरक्षित रहे। विशेष: - काण्ड ९।५।३१ में नैदाघ० ऋतु से वर्षारम्भ किया गया है। इसी प्रकार अथर्व० काण्ड १२ सूक्त १। मन्त्र ३६ भी ग्रीष्म ऋतु द्वारा प्रारम्भ हुआ है। यथा “ग्रीष्मस्ते भूमे वर्षाणि शरद्धेमन्तः शिशिरो वसन्तः" का ग्रीष्म या नैदाघ [ग्रीष्मः] ऋतु द्वारा वर्ष का आरम्भ किसी ज्योतिष काल गणना का सूचक है-इन पर विचार की आवश्यकता है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Atithi Yajna: Hospitality

    Meaning

    O Lord, may those quarters of space, interspaces and the divine and human powers therein protect and promote this immortal soul in the mortal state. It is yours, it is for you, it is for them, the spaces, the divinities, and humanity. I offer this soul as the holy material of oblation dedicated to your service and all these. This sukta is a celebration of hospitality to Atithis, chance visitors, who happen to come to the household during their holy rounds. This hospitality is called Atithi Yajna prescribed as a sacred duty in the Vedic tradition. Atithi Yajna is one of the five sacred duties to be performed by a house holder: Brahma yajna (Prayer), Deva yajna (agnihotra), Pitryajna (service to parents and other seniors), Atithiyajna (hospitality to visitors), and Balivaishvadeva yajna (feeding birds and animals. Atithi yajna as described in detail in this sukta is so sacred that it is a microcosmic version of the macrocosmic yajna which, in the Vedic tradition, the universe is. Brahma, Lord Supreme, is the performer of the macrocosmic yajna, and Brahma also is the supreme deity for which the yajna is performed. By analogy, in Atithi yajna, both the host and the guest are human versions of Brahma, one the performer, the other, the beneficiary. The sukta has 62 mantras divided over six parts. The part is called ‘Paryaya’. Paryaya 1

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    Translation

    May they preserve this of yours for you; to-them I offer this oblation, prepared with sacrificial butter.

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    Translation

    Let all these preserve this soul for your well-being. I, the yajman offer oblations of molten ghee to purify these regions and intermediate points.

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    Translation

    O man, may all persons preserve this resolve of thine. May they obey thy behest. May they be thy well-wishers, I, a spiritually advanced person, offer to them the knowledge of God, like an oblation of molten butter.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३८−(ताः) पूर्वोक्ता दिशाः (ते) तुभ्यम् (रक्षन्तु) पान्तु (तव) (तुभ्यम्) वीप्सायां द्विर्वचनम् (एतम्) जीवात्मानम् (ताभ्यः) दिशानां सकाशात् (आज्यम्) अ० ५।८।१। आङ्+अञ्जू व्यक्तीकरणे-क्यप्। व्यक्तीकरणीयम्। व्याख्यातव्यम् (हविः) ग्राह्यं कर्म (इदम्) (जुहोमि) आददे। गृह्णामि ॥

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