अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 31
यो वै नैदा॑घं॒ नाम॒र्तुं वेद॑। ए॒ष वै नैदा॑घो॒ नाम॒र्तुर्यद॒जः पञ्चौ॑दनः। निरे॒वाप्रि॑यस्य॒ भ्रातृ॑व्यस्य॒ श्रियं॑ दहति॒ भव॑त्या॒त्मना॑। यो॒जं पञ्चौ॑दनं॒ दक्षि॑णाज्योतिषं॒ ददा॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठय: । वै । नैदा॑घम्। नाम॑ । ऋ॒तुम् । वेद॑ । ए॒ष: । वै । नैदा॑घ: । नाम॑ । ऋ॒तु: । यत् । अ॒ज: । पञ्च॑ऽओदन: । नि: । ए॒व । अप्रि॑यस्य । भ्रातृ॑व्यस्य । श्रिय॑म् । द॒ह॒ति॒ । भव॑ति । आ॒त्मना॑ । य: । अ॒जम् । पञ्च॑ऽओदनम् । दक्षि॑णाऽज्योतिषम् । ददा॑ति ॥५.३१॥
स्वर रहित मन्त्र
यो वै नैदाघं नामर्तुं वेद। एष वै नैदाघो नामर्तुर्यदजः पञ्चौदनः। निरेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियं दहति भवत्यात्मना। योजं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥
स्वर रहित पद पाठय: । वै । नैदाघम्। नाम । ऋतुम् । वेद । एष: । वै । नैदाघ: । नाम । ऋतु: । यत् । अज: । पञ्चऽओदन: । नि: । एव । अप्रियस्य । भ्रातृव्यस्य । श्रियम् । दहति । भवति । आत्मना । य: । अजम् । पञ्चऽओदनम् । दक्षिणाऽज्योतिषम् । ददाति ॥५.३१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ब्रह्मज्ञान से सुख का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो [परमेश्वर] (वै) निश्चय करके (नैदाघम्) अतितापवाले (नाम) प्रसिद्ध (ऋतुम्) ऋतु को (वेद) जानता है, (एषः वै) वही (नैदाघः) अतितापवाले (नाम) प्रसिद्ध (ऋतुः) ऋतु [के समान] (यत्) पूजनीय ब्रह्म (अजः) अजन्मा (पञ्चौदनः) पाँच भूतों [पृथिवी आदि] का सींचनेवाला [परमेश्वर] है। वह [मनुष्य अपने] (एव) निश्चय करके (अप्रियस्य) अप्रिय (भ्रातृव्यस्य) शत्रु की (श्रियम्) श्री को (निर्दहति) जला देता है, और (आत्मना) अपने आत्मबल के साथ (भवति) रहता है। (यः) जो [पुरुष] (पञ्चौदनम्) पाँच भूतों [पृथिवी आदि] के सींचनेवाले, (दक्षिणाज्योतिषम्) दानक्रिया की ज्योति रखनेवाले (अजम्) अजन्मे वा गतिशील परमात्मा को [अपने आत्मा में] (ददाति) समर्पित करता है ॥३१॥
भावार्थ
सूर्य और पृथिवी का घुमाव उष्ण, शीत आदि ऋतुओं का कारण है, उन सूर्य आदि लोकों का आदि कारण परमेश्वर है, ऐसा साक्षात् करनेवाला पुरुष निर्विघ्न होकर आनन्द भोगता है ॥३१॥
टिप्पणी
३१−(यः) परमेश्वरः (वै) निश्चयेन (नैदाघः) तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। निदाघस्य महातापस्य सम्बन्धिनम् (नाम) प्रसिद्धौ (ऋतुम्) कालविशेषम् (वेद) जानाति (एषः) परमेश्वरः (नैदाघः) महातापसम्बन्धी (नाम) (ऋतुः) कालविशेषः (यत्) त्यजितनियजिभ्यो डित्। उ० १।१३२। यज देवपूजासंगितकरणदानेषु-अदि, डित्। पूजनीयं ब्रह्म (अजः) म० १। अजन्मा (पञ्चौदनः) पञ्चभूतानां सेचनं यस्मात् सः (निः) नितराम् (एव) (अप्रियस्य) अहितस्य (भ्रातृव्यस्य) भ्रातृभावरहितस्य (श्रियम्) लक्ष्मीम् (दहति) भस्मीकरोति (भवति) वर्तते (आत्मना) आत्मबलेन सह। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
नैदाघ, कुर्वन, संयन्
पदार्थ
१. (यः) = जो (वै) = निश्चय से (नैदाघम् नाम ऋतं वेद) = 'नैदाघ' नामवाली ऋतु को जानता है, (यत्) = कि (एष:) = यह (पञ्चौदन:) = पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान-भोजन को ग्रहण करनेवाला अज: गति के द्वारा बुराई को परे फेंकनेवाला जीव ही (वै) = निश्चय से (नैदाघः नाम ऋतुः) = नैदाघ नामक ऋतु हैं। यह जीव नियमपूर्वक गतिवाला होने से ऋतु है [ऋ गतौ] अपने को ज्ञान व तपस्या की अग्नि में खूब ही दग्ध करनेवाला होने से नैदाघ' है। (यः) = जो नैदाघ (पञ्चौदनम्) = प्रलयकाल के समय पाँचों भूतों से बने संसार को अपना ओदन बना लेनेवाले (दक्षिणाग्योतिषम्) = दान की ज्योतिवाले-सर्वत्र प्रकट दानोंवाले (अजम्) = अजन्मा प्रभु के प्रति (ददाति) = अपने को दे डालता है, वह (अप्रियस्य भ्रातृव्यस्य) = अप्रीतिकर शत्रुभूत 'काम' की (श्रियं निर्दहति एव) = शोभा को, दग्ध ही कर देता है और (आत्मना भवति) = अपने साथ होता है, अर्थात् अपना सन्तुलन नहीं खोता, शान्त रहता है। २. (यः वै कुर्वन्तं नाम ऋतुं वेद) = जो 'कुर्वन्' नामवाली ऋतु को जानता है, (यत्) = कि (एष:) = यह (पञ्चौदन: अजः) = पञ्चौदन अज ही (वै) = निश्चय से कुर्वन् नाम ऋतु: कुर्वन् नामक ऋतु है। नियमित गतिवाला होने से ऋतु है तथा निरन्तर क्रियाशील होने से 'कुर्वन्' है। यह (अप्रियस्य भातृव्यस्य) = अप्रीतिकर शत्रुभूत 'क्रोध' की (कुर्वती कुर्वतीम्) = उन-उन कार्यों को करती हुई (श्रियम् आदते) = श्री को छीन लेता है। क्रोध को श्रीशून्य [पराजित-विनष्ट] करके यह अपने कर्तव्य-कर्मों को करने में लगा रहता है। ३. (यः संयन्तं नाम ऋतुं वेद) = जो 'संयन्' नामवाली ऋतु को जानता है, (यत्) = कि (एष:) = यह (पञ्चौदन: अज:) = पञ्चौदन अज ही (वै) = निश्चय से (संयन् नाम ऋतु:) = संयन् नामवाला ञातु है। नियमित गति के कारण ऋतु है, तो संयम के कारण 'संयन्' है। यह पुरुष (अप्रियस्य भातृव्यस्य) = अप्रीतिकर लोभ' रूप शत्रु की संयती (संयतीम् एव) = हमें बारम्बार बाँधनेवाली (श्रियम्) = श्री को आदते छीन लेता है। लोभ को विनष्ट करके यह इन्द्रियों का संयम करता हुआ सचमुच 'संयन्' बनता है।
भावार्थ
हम अपने को ज्ञान व तपस्या में दग्ध करके 'नैदाघ' बनें, निरन्तर कर्म करते हुए 'कुर्वन्' बनें, संयम को सिद्ध करते हुए 'संयन्' हों। "नैदाघ' बनकर काम पर विजय करें, 'कुर्वन्' बनते हुए 'क्रोध' से दूर रहें तथा 'लोभ' को नष्ट करके 'संयन्' हों। इन सब बातों के लिए प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें।
भाषार्थ
(यः) जो (वै) वस्तुतः (नैवाघम् नाम ऋतुम्) निदाघ-सम्बन्धी ऋतु को उसके नामानुसार (वेद) जानता है, - (एष वै नैदाघः) यह है वस्तुतः नैदाघ (नाम ऋतुः) नाम वाली ऋतु (यद् अजः पञ्चौदनः) जोकि पांच इन्द्रिय भोगों-का-स्वामी, अजन्मा परमेश्वर है, - [अध्यात्म गुरु] (अप्रियस्य भ्रातृव्यस्य) अप्रिय भ्रातृव्य की (श्रियम्) शोभा सम्पत्ति को (निर्दहति) दग्ध कर देता है, (भवति आत्मना) और उस पर स्वयं प्रभुता को प्राप्त करता है, (यः) जोकि (पञ्चौदनम् अजम्) पांच-इन्द्रिभोगों के स्वामी, अजन्मा परमेश्वर को (दक्षिणाज्योतिषम्) दक्षिणा के फलस्वरूप पारमेश्वरीय ज्योति के रूप में गृहस्थ के प्रति (ददाति) प्रदान करता है।
टिप्पणी
[निदाघ है ग्रीष्मकाल, जोकि नितरां दग्ध कर देता है, जिसमें कि ओषधियां वनस्पतियां सूख सी जाती हैं, और अति गर्मी के कारण प्राणी भी कमजोर पड़ जाते हैं। यह काल ज्येष्ठ-आषाढ़ मासों का होता है। “पञ्चौदन अज” को नैदाघ- ऋतुरूप कहा है, अर्थात् प्रत्यक्षीकृत परमेश्वर उपासक की अविद्या और तज्जन्य कामादि वासनाओं को ऐसे दग्ध कर देता है जैसे कि उग्र नैदाघ ऋतु दग्ध करती है। वैदिक साहित्य में देवों और असुरों को प्रजापति की सन्तानें कहा हैं, यथा “देवाश्चासुराश्चोभये प्राजापत्या अस्पर्धन्त” (श० ब्रा० कण्डि ६।८।१।१)। इनमें परस्पर स्पर्धा रही। इस कारण असुर, देवों के भाई होते हुए भी अप्रिय अर्थात् शत्रु हुए। और इनकी सन्तानों को भ्रातृव्य अर्थात् भाई की सन्तानें होते हुए भी शत्रु कहा। ये देव और असुर कोई मानुष जाति के नहीं, अपितु आध्यात्मिक “देवासुर संग्राम” के आध्यात्मिक तत्त्व हैं। इसी प्रकार “पञ्चौदन अज” भी अध्यात्मिक तत्त्व हैं। परमेश्वर द्वारा शक्ति को प्राप्त कर देवों ने आसुरी अर्थात् तामसिक तथा राजसिक विचारों और भावनाओं से उत्पन्न उग्र काम, क्रोध, लोभ आदि की श्री को दग्ध कर दिया, और स्वयं उन्होंने जीवन में प्रभुता पाई, जीवन में दिव्य विचारों, दिव्य भावनाओं और तज्जन्य उदारता, परोपकार, दिव्य कामनाओं का राज्य हुआ। यह वर्णन अध्यात्म-गुरु सम्बन्धी हुआ है, जोकि गृहस्थी का पञ्चौदनों के स्वामी अजन्मा परमेश्वर की दिव्य ज्योति का दर्शन करा देता है। मन्त्र २८ में वर का विवाह पुनर्भूः के साथ हुआ है। विवाह तो पुरोहित ही ने कराया, अतः मन्त्र २९ में उसे यथोचित दक्षिणा प्राप्त हुई, अतः दक्षिणा के फलरूप में पुरोहित ने विवाहित पुरुष को परमेश्वर के दर्शन करा दिये। विवाहित पुरुष भी परमेश्वर की दिव्य ज्योति को प्राप्त कर, निज जीवन में आसुरी श्री को दग्ध कर, दैवी श्री को प्राप्त करता है। ऐसी ही भावनाएं मन्त्र ३२ से ३६ में समझनी चाहियें]
इंग्लिश (4)
Subject
The Soul, the Pilgrim
Meaning
Whoever the five-fold conditioned immortal that attains to the summer season of life and knows for certain that this is the season of heat and passion, who surrenders his mortal identity of immortality clad in light and generosity to the home, the family and the Lord Divine totally bums out the power and fortune of his hateful rival and rises in life with self-confidence.
Translation
He who surely knows the season called; scorching;- this, indeed, is the season called scorching that is the pancaudana aja - burns out the splendour of his hated enemy, and prospers by himself; he, whoso offers a pancaudana aja brightened with sacrificial gifts.
Translation
He who knows the season of scorching heat, in reality, the eternal soul brings in the body of five elements which is the season of scorching heat, burns up the glory of his nated rival certainly and decidedly lives with his spirit if he surrenders the eternal soul living in the body of five elements and possessing light of knowledge, to God.
Translation
God, Who verily knows the scorching season, being Unborn and the Absorber of five elements, is worthy of worship like the sultry season. He, who dedicates himself to the Unborn God, the Absorber of five elements at the time of Dissolution, illumined with charity, rests on the strength of his soul, and eclipses the force of his unfriendly foes, like lust, anger and avarice.
Footnote
Scorching season: Summer. Just as summer is worthy of respect, as without its heat there can be no rainy season, and no cultivation of crops, so God is worthy of worship, without whose mercy there can be no spiritual advancement.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३१−(यः) परमेश्वरः (वै) निश्चयेन (नैदाघः) तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। निदाघस्य महातापस्य सम्बन्धिनम् (नाम) प्रसिद्धौ (ऋतुम्) कालविशेषम् (वेद) जानाति (एषः) परमेश्वरः (नैदाघः) महातापसम्बन्धी (नाम) (ऋतुः) कालविशेषः (यत्) त्यजितनियजिभ्यो डित्। उ० १।१३२। यज देवपूजासंगितकरणदानेषु-अदि, डित्। पूजनीयं ब्रह्म (अजः) म० १। अजन्मा (पञ्चौदनः) पञ्चभूतानां सेचनं यस्मात् सः (निः) नितराम् (एव) (अप्रियस्य) अहितस्य (भ्रातृव्यस्य) भ्रातृभावरहितस्य (श्रियम्) लक्ष्मीम् (दहति) भस्मीकरोति (भवति) वर्तते (आत्मना) आत्मबलेन सह। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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