अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 37
ऋषिः - भृगुः
देवता - अजः पञ्चौदनः
छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री
सूक्तम् - अज सूक्त
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अ॒जं च॒ पच॑त॒ पञ्च॑ चौद॒नान्। सर्वा॒ दिशः॒ संम॑नसः स॒ध्रीचीः॒ सान्त॑र्देशाः॒ प्रति॑ गृ॒ह्णन्तु॑ त ए॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒जम् । च॒ । पच॑त । पञ्च॑ । च॒ । ओ॒द॒नान् । सर्वा॑: । दिश॑: । सम्ऽम॑नस: । स॒ध्रीची॑: । सऽअ॑न्तर्देशा: । प्रति॑ । गृ॒ह्ण॒न्तु॒ । ते॒ । ए॒तम् ॥५.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
अजं च पचत पञ्च चौदनान्। सर्वा दिशः संमनसः सध्रीचीः सान्तर्देशाः प्रति गृह्णन्तु त एतम् ॥
स्वर रहित पद पाठअजम् । च । पचत । पञ्च । च । ओदनान् । सर्वा: । दिश: । सम्ऽमनस: । सध्रीची: । सऽअन्तर्देशा: । प्रति । गृह्णन्तु । ते । एतम् ॥५.३७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ब्रह्मज्ञान से सुख का उपदेश।
पदार्थ
[हे विद्वानो !] (च) निश्चय करके (अजम्) अजन्मे वा गतिशील जीवात्मा को (च) और (पञ्च) पाँच [भूतों से युक्त] (ओदनान्) सेचक पदार्थों को (पचत) पक्का [दृढ़] करो। (सान्तर्देशाः) अन्तर्देशों के सहित (सध्रीचीः) साथ-साथ रहनेवाली, (सर्वाः) सब (दिशः) दिशाएँ (संमनसः) एक मन होके (ते) तेरे लिये, (एतम्) इस [जीवात्मा] को (प्रति गृह्णन्तु) स्वीकार करें ॥३७॥
भावार्थ
जो मनुष्य परमेश्वर में परिपक्वबुद्धि होकर पदार्थों से उपकार लेते हैं, उनके लिये संसार के सब पदार्थ सुखदायी होते हैं ॥३७॥ इस मन्त्र का दूसरा पाद आ चुका है-अ० ६।८८।३ ॥
टिप्पणी
३७−(अजम्) म० १। अजन्मानं गतिशीलं वा जीवात्मानम् (च) अवधारणे (पचत) परिपक्वं सुदृढस्वभावं कुरुत (पञ्च) पञ्चभूतयुक्तान् (च) समुच्चये (ओदनान्) म० १९। सेचकान्। प्रवर्धकान् पदार्थान् (सर्वाः) प्राच्यादयः (दिशः) दिशाः (संमनसः) समानमनस्काः (सध्रीचीः) अ० ६।८८।३। सध्रीच्यः। सहवर्तमानाः (सान्तर्देशाः) अन्तर्दिग्भिः सहिताः (प्रति गृह्णन्तु) स्वीकुर्वन्तु (ते) तुभ्यम् (एतम्) जीवात्मानम् ॥
विषय
अज व ओदनों का पाचन
पदार्थ
१. हे जीवो! (अजं च पचत) = उल्लिखित 'नैदाघ', 'कुर्वन्', "संयन्', 'पिन्वन्', 'उद्यन्' व 'अभिभू' नामक वृत्तियों से जीवात्मा का ठीकरूप में परिपाक करो (च) = और (पञ्च ओदनान) = पाँचों जानेन्द्रियों से प्राप्त होनेवाले ज्ञान-भोजनों का भी परिपाक करो। (सर्वा:) = सब (सान्तर्देशा:) = अन्तर्देशोसहित (दिश:) = दिशाएँ-दिशाओं में स्थित प्राणी (संमनस:) = उत्तम मनवाले होकर (सध्रीची:) = सम्मिलित गतिवाले होकर (ते) = तेरे (एतम्) = इस ज्ञान को (प्रतिगृह्णन्तु) = ग्रहण करनेवाले हों। ज्ञान परिपक्व व्यक्ति जब ज्ञान का प्रसार करे तब सब दिशाओं में स्थित प्राणी उस ज्ञान के ग्रहण की रुचिवाले हों। २. (ता:) = वे सब दिशाएँ (ते) = तेरी हों-तुझे उन दिशाओं की अनुकूलता प्राप्त हो। (तव) = तेरे (एतम्) = इस ज्ञान को [ज्ञान के ओदन को] (तुभ्यम्) = तेरे लिए (रक्षन्तु) = रक्षित करें। मैं (ताभ्य:) = उन सब दिशाओं के लिए उनकी अनुकूलता के लिए (इदम्) = उस (आग्यम्) = घृत को और (हवि:) = हवियों को (जुहोमि) = आहुत करता हूँ। अग्निहोत्र से वायु शुद्ध होकर नीरोगता प्राप्त होती है। ज्ञान-प्राति के लिए नीरोगता की नितान्त आवश्यकता है।
भावार्थ
हम तपस्या की अग्नि में आत्मा का परिपाक करें तथा पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त होनेवाले ज्ञानों को प्राप्त करें। इस ज्ञान को सब दिशाओं में स्थित मनुष्य ग्रहण करें। हमें इन दिशाओं की अनुकूलता प्राप्त हो। अग्निहोत्र द्वारा ये सब दिशाएँ शुद्ध वायुबाली होकर नीरोगता को सिद्ध करें।
भाषार्थ
(अजम् च पचत) अज को परिपक्व करो, (पञ्च च ओदनान्) और पांच इन्द्रिय भोगों को परिपक्व करो। (सान्तर्देशाः) अवान्तर देशों समेत (सर्वाः दिशः) सब दिशाएं अर्थात् सब दिशाओं के वासी प्रजाजन (सध्रीचीः) परस्पर मिल कर और (संमनसः) एक मन हो कर (ते) हे पुरोहित ! या अध्यात्म गुरु ! तेरे (एतम्) इस गृहस्थी का (प्रतिगृह्णन्तु) प्रतिगृह करें, इसे स्वीकृत करें, सम्मानित करे। ‘सान्तर्देशाः’ में देशशब्द देशवासियों का सूचक है।
टिप्पणी
[पचत का अभिप्राय अग्नि पर पकाना नहीं, अपितु निज जीवनों में उन का परिपाक करना है, परिपक्व करना है। “अज” का अर्थ है अजन्मा परमेश्वर, न कि बकरा। इसी प्रकार “पांच ओदनों” का अभिप्राय है पांच प्रकार के “ऐन्द्रियिक भोगाः" रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्श रूपी भोग। इन पर विजय पाना है, इन का परिपक्व करना। जो व्यक्ति “अज” और “पञ्च ओदनों" का परिपाक निज जीवनों में कर लेते हैं उन का सम्मान सब प्रजाजन करते हैं।]
इंग्लिश (4)
Subject
The Soul, the Pilgrim
Meaning
O saints and sages, men and women, develop, season and perfect the immortal soul in its five-fold mortal condition. Strengthen, season and perfect the five-fold food for the body, mind and soul. O Lord, let all quarters of space together with their interspaces receive and approve it for you and return it to you with gratitude.
Translation
Cook the aja and five measures of messhed grain. May all the quarters, one-minded and agreeing with each other, along with the intermediate quarters give this offering of yours.
Translation
O ascetic! make ripe and mature the eternal soul by the practice of austerity and also make ripe and capable the five elements maintaining the body. Let all the regions and intermediate corners united together and accordant accept this soul for your well-being.
Translation
O learned persons fully meditate on the Eternal God, strengthen the five breaths that build our body. O man may the denizens of all quarters and sub-quarters accept this resolve of thine.
Footnote
May all persons be as determined in meditating on God and controlling the breaths as thou art.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३७−(अजम्) म० १। अजन्मानं गतिशीलं वा जीवात्मानम् (च) अवधारणे (पचत) परिपक्वं सुदृढस्वभावं कुरुत (पञ्च) पञ्चभूतयुक्तान् (च) समुच्चये (ओदनान्) म० १९। सेचकान्। प्रवर्धकान् पदार्थान् (सर्वाः) प्राच्यादयः (दिशः) दिशाः (संमनसः) समानमनस्काः (सध्रीचीः) अ० ६।८८।३। सध्रीच्यः। सहवर्तमानाः (सान्तर्देशाः) अन्तर्दिग्भिः सहिताः (प्रति गृह्णन्तु) स्वीकुर्वन्तु (ते) तुभ्यम् (एतम्) जीवात्मानम् ॥
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