अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 22
ऋषिः - भृगुः
देवता - अजः पञ्चौदनः
छन्दः - पञ्चपदानुष्टुबुष्णिग्गर्भोपरिष्टाद्बार्हताभुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अज सूक्त
0
अप॑रिमितमे॒व य॒ज्ञमा॒प्नोत्यप॑रिमितं लो॒कमव॑ रुन्द्धे। यो॒जं पञ्चौ॑दनं॒ दक्षि॑णाज्योतिषं॒ ददा॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑रिऽमितम् । ए॒व । य॒ज्ञम् । आ॒प्नोति॑ । अप॑रिऽमितम् । लो॒कम् । अव॑ । रु॒न्ध्दे॒ । य: । अ॒जम् । पञ्च॑ऽओदनम् । दक्षि॑णाऽज्योतिषम् । ददा॑ति ॥५.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
अपरिमितमेव यज्ञमाप्नोत्यपरिमितं लोकमव रुन्द्धे। योजं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥
स्वर रहित पद पाठअपरिऽमितम् । एव । यज्ञम् । आप्नोति । अपरिऽमितम् । लोकम् । अव । रुन्ध्दे । य: । अजम् । पञ्चऽओदनम् । दक्षिणाऽज्योतिषम् । ददाति ॥५.२२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ब्रह्मज्ञान से सुख का उपदेश।
पदार्थ
वह [पुरुष] (अपरिमितम्) परिमाणरहित (यज्ञम्) पूजनीय परमेश्वर को (एव) ही (आप्नोति) पाता है, और (अपरिमितम्) तोल-नाप रहित (लोकम्) दर्शनीय परमात्मा को (अव रुन्द्धे) ध्यान में रखता है, (यः) जो पुरुष (पञ्चौदनम्) पाँच भूतों [पृथिवी आदि] के सींचनेवाले, (दक्षिणाज्योतिषम्) दानक्रिया की ज्योति रखनेवाले (अजम्) अजन्मे वा गतिशील परमात्मा को [अपने आत्मा में] (ददाति) समर्पित करता है ॥२२॥
भावार्थ
आत्मसमर्पक पुरुष पूर्ण भक्ति से उस अनन्त जगदीश्वर को पाता है ॥२२॥
टिप्पणी
२२−(अपरिमितम्) अनन्तम् (एव) अवश्यम् (यज्ञम्) यष्टव्यम् (आप्नोति) प्राप्नोति (अपरिमितम्) (लोकम्) दर्शनीयं जगदीश्वरम् (अव रुन्द्धे) दक्षतया धारयति (यः) (अजम्) जगदीश्वरम् (पञ्चौदनम्) पञ्चभूतसेचकम् (दक्षिणाज्योतिषम्) दक्षिणा दानं ज्योतिः प्रकाशो यस्य तम् (ददाति) समर्पयति स्वहृदये ॥
विषय
प्रभु व प्रभु-प्रकाश की प्राप्ति
पदार्थ
१. (य:) = जो (पञ्चौदनम्) = प्रलयकाल के समय पाँचों भूतों को अपना ओदन बना लेनेवाले (दक्षिणाज्योतिषम्) = दान के प्रकाशवाले-सर्वत्र प्रकट दानोंवाले (अजम्) = अजन्मा प्रभु को-प्रभु के ज्ञान को (ददाति) = पात्रभूत शिष्यों के लिए देता है, वह (अपरिमितम्) = उस असीम (यज्ञम्) = पूजनीय प्रभु को (एवं आप्नोति) = ही प्राप्त होता है और (अपरिमितं लोकम्) = अपने में अनन्त ज्ञान को (अवरुन्धे) = रोकनेवाला बनता है-खूब ही ज्ञान के प्रकाशवाला होता है।
भावार्थ
औरों को प्रभु का ज्ञान देता हुआ ज्ञानी प्रभु को व प्रभु-प्रकाश को प्राप्त करता है।
भाषार्थ
(अपरिमितम् एव) परिमाणरहित अर्थात् सर्वव्यापक (यज्ञम्) यज्ञनामक परमेश्वर को ही (आप्नोति) वह प्राप्त करता है, और (अपरिमितम्) व्यापी (लोकम्) लोक को (अवरुन्धे) रोक लेता है, स्वायत्त कर लेता है, अपना बना लेता है (यः) जो अध्यात्म गुरु (पञ्चौदनम्) पांच भोगों के स्वामी, (अजम्) अकाय, तथा (दक्षिणा१ज्योतिषम्) ज्योतिः स्वरूप परमेश्वर को, दक्षिणा के फलस्वरूप में (ददाति) शिष्य को प्रदान करता है।
टिप्पणी
[मन्त्र में अध्यात्म गुरु का वर्णन हुआ है। जो अध्यात्मगुरु शिष्य को परमेश्वर की प्राप्ति करा देता है, और इस अध्यात्म यज्ञ की सफलता में शिष्य से दक्षिणा प्राप्त कर लेता है, वह दक्षिणा के फलरूप में शिष्य को परमेश्वर का दर्शन करा देता है। इससे शिष्य भी अपरिमित यज्ञ परमेश्वर को और अपरिमित लोक को प्राप्त करता है, और अध्यात्म गुरु भी। “अपरिमितलोक प्राप्त करना” अर्थात् सब लोकलोकान्तरों में गमन की योग्यता] [१.दक्षिणायां ज्योतिः = दक्षिणा देने पर प्राप्त हुई ज्योतिः। समसान्तः टच्। अथवा दक्षिणा निमित्तं ज्योतिः। दक्षिणार्थं ज्योतिः, वा।]
इंग्लिश (4)
Subject
The Soul, the Pilgrim
Meaning
Whoever the person, conditioned by five elements of Prakrti and five-fold experience and sufferance yet enlightened by divine vision and yajnic spirit of self-sacrifice, that offers the immortal soul to the Eternal Master attains to the state of unbounded yajna of divine creativity and secures the state of boundless bliss for the soul.
Translation
Verily, a limitless sacrifice does he obtain and a limitless world does he capture, who so offers a pancaudana aja brightened with sacrificial gifts.
Translation
He who surrenders to God this eternal soul living in the body and possessing the light of knowledge, attain to know this unlimited yajna and the unlimited Loka Divinity.
Translation
He, who dedicates himself to the Eternal God, the Absorber of five elements, illumined with charity, attains to the unlimited God, and realizes in his heart, the unlimited, beautiful God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२२−(अपरिमितम्) अनन्तम् (एव) अवश्यम् (यज्ञम्) यष्टव्यम् (आप्नोति) प्राप्नोति (अपरिमितम्) (लोकम्) दर्शनीयं जगदीश्वरम् (अव रुन्द्धे) दक्षतया धारयति (यः) (अजम्) जगदीश्वरम् (पञ्चौदनम्) पञ्चभूतसेचकम् (दक्षिणाज्योतिषम्) दक्षिणा दानं ज्योतिः प्रकाशो यस्य तम् (ददाति) समर्पयति स्वहृदये ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal