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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
    ऋषिः - भृगुः देवता - अजः पञ्चौदनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अज सूक्त
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    अ॒जो अ॒ग्निर॒जमु॒ ज्योति॑राहुर॒जं जीव॑ता ब्र॒ह्मणे॒ देय॑माहुः। अ॒जस्तमां॒स्यप॑ हन्ति दू॒रम॒स्मिंल्लो॒के श्र॒द्दधा॑नेन द॒त्तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ज: । अ॒ग्नि: । अ॒जम् । ऊं॒ इति॑ । ज्योति॑: । आ॒हु॒: । अ॒जम् । जीव॑ता । ब्र॒ह्मणे॑ । देय॑म् । आ॒हु॒: । अ॒ज: । तमां॑सि । अप॑ । ह॒न्ति॒ । दू॒रम् । अ॒स्मिन् । लो॒के । श्र॒त्ऽदधा॑नेन । द॒त्त: ॥५.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजो अग्निरजमु ज्योतिराहुरजं जीवता ब्रह्मणे देयमाहुः। अजस्तमांस्यप हन्ति दूरमस्मिंल्लोके श्रद्दधानेन दत्तः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अज: । अग्नि: । अजम् । ऊं इति । ज्योति: । आहु: । अजम् । जीवता । ब्रह्मणे । देयम् । आहु: । अज: । तमांसि । अप । हन्ति । दूरम् । अस्मिन् । लोके । श्रत्ऽदधानेन । दत्त: ॥५.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से सुख का उपदेश।

    पदार्थ

    (अजः) अजन्मा वा गतिशील जीवात्मा (अग्निः) अग्नि [समान शरीर में] है, (अजम्) जीवात्मा को (उ) ही [शरीर के भीतर] (ज्योतिः) ज्योति (आहुः) वे [विद्वान्] बताते हैं, और (अजम्) जीवात्मा को (जीवता) जीते हुए पुरुष करके (ब्रह्मणे) ब्रह्म [परमेश्वर] के लिये (देयम्) देने योग्य (आहुः) कहते हैं। (श्रद्दधानेन) श्रद्धा रखनेवाले पुरुष करके (दत्तः) दिया हुआ (अजः) जीवात्मा (अस्मिन् लोके) इस लोक में (तमांसि) अन्धकारों को (दूरम्) दूर (अप हन्ति) फैंक देता है ॥७॥

    भावार्थ

    जीता हुआ अर्थात् पुरुषार्थी योगी विद्या की प्राप्ति से परमात्मा में श्रद्धा करता हुआ अविद्यारूपी अन्धकारों को मिटाकर देदीप्यमान होता है ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(अजः) म० १। जीवात्मा (अग्निः) शरीरेऽग्निवद् व्यापकः (अजम्) जीवात्मानम् (उ) एव (ज्योतिः) प्रकाशम् (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (अजम्) (जीवता) प्राणं पुरुषार्थं धारयता पुरुषेण (ब्रह्मणे) परमात्मने (देयम्) समर्पणीयम् (अजः) (तमांसि) अविद्यान्धकारान् (अप हन्ति) विनाशयति (दूरम्) विप्रकृष्टदेशम् (अस्मिन्) (लोके) (श्रद्दधानेन) परमेश्वरे विश्वासधारकेण (दत्तः) समर्पितः ॥

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    विषय

    अज-'अग्नि + ज्योति'

    पदार्थ

    १. (अजः) = गति के द्वारा बुराइयों को परे फेंकनेवाला यह जीव (अग्नि:) = अग्नि है, यह प्रगतिशील होता है, (उ) = और (अजम्) = गति के द्वारा बुराइयों को परे फेंकनेवाले को (ज्योति: आहु:) = प्रकाश कहते हैं। यह अज प्रकाशमय जीवनवाला होता है। (जीवता) = जीवन को धारण करनेवाले पुरुष से (अजम्) = इस अज को-जीवात्मा को (ब्रह्मणे) = प्रभु व ज्ञान के लिए (देयम् आहुः) = देने योग्य कहते हैं। हमें चाहिए कि हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें और ज्ञान-प्राप्ति में लगे रहें। २. (अस्मिन् लोके) = इस लोक में (अत् दधानेन दत्त:) = श्रद्धायुक्त पुरुष से प्रभु के प्रति अर्पित किया हुआ (अज:) = आत्मा-गति के द्वारा बुराइयों को दूर करनेवाला व्यक्ति (तमांसि दूरम् अपहन्ति) = अन्धकारों को अपने से दूर फेंकता है।

    भावार्थ

    हम गति द्वारा बुराइयों को दूर फेंकते हुए गतिशील व ज्योतिर्मय जीवनवाले बनें। प्रभु के प्रति अपना अर्पण करते हुए श्रद्धामय जीवनवाले बनकर अज्ञान-अन्धकार को अपने से दूर फेंकें।

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    भाषार्थ

    (अजः) स्वरूपतः जन्म से रहित जीवात्मा (अग्नि) अग्निरूप है, (अजम्) जन्म से रहित जीवात्मा को (ज्योतिः आहुः) ज्योतिरूप कहते हैं, (जीवता) जीवित व्यक्ति द्वारा [जीवित काल में] (अजम्) निज जीवात्मा को (ब्रह्मणे) ब्रह्म के प्रति (देयम् आहुः) समर्पणीय कहते हैं (श्रद्दधानेन) श्रद्धालु द्वारा (दत्तः) ब्रह्म के प्रति समर्पित किया गया (अजः) जीवात्मा, (अस्मिन् लोके) इस पृथिवी लोक में (दूरम्) दूर-दूर तक (तमांसि) अज्ञानान्धकारों को (अव) हटाकर, (हन्ति) उन का हनन कर देता है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में अज को अग्नि कहा है, जैसे अग्नि मल को भस्मीभूत कर देती है वैसे प्रबुद्ध जीवात्मा पाप-मल को भस्मीभूत कर देता है। प्रबुद्ध जीवात्मा ज्योतिरूप हो जाता हैं, जैसे ज्योतिरूप सूर्य अन्धकार को हटाता है, वैसे प्रबुद्ध जीवात्मा ज्योतिर्मय होकर भूमण्डल वासियों के अज्ञानान्धकारों को दूर-दूर तक हटा देता है। परन्तु ऐसी शक्ति उसी जीवात्मा को प्राप्त होती है जिसने कि निज को ब्रह्म के प्रति समर्पित कर दिया होता है। याज्ञिक सम्प्रदायानुसारी मन्त्र में “अज” का अर्थ करते हैं “बकरा”। क्या बकरे में मन्त्रोक्त भावनाएं सार्थक हो सकती हैं ?]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Soul, the Pilgrim

    Meaning

    The immortal soul is the vital immortal fire of life, which immortal, they also call the light, which, all and ever alive, they say, ought to be dedicated to Supreme Brahma. The immortal soul dispels all darknesses of ignorance and illusion far away when it is dedicated to the Lord Supreme in this world by a man of faith.

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    Translation

    The unborn is fire; also light they call the unborn; they say that a living person: must present the unborn to the Lord supreme. The unborn, offered in this world by a faithful, dispels the darkness far away.

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    Translation

    The learned persons say that the eternal soul is effulgent and intelligent; eternal soul is the light of all bodily lights and the eternal soul is to be surrendered to Brahman, the Supreme Being in the life are time (time of jivanmukti). This eternal soul surrendered to God by a debout devotee dispels away after all sorts of darkness of the material world in this world and in this life.

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    Translation

    The immortal soul is full of luster like fire. The sages name the soul as Light, and say that living man must dedicate the soul to God. Dedicated in this world by a devout believer, the soul dispels and drives away sins.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(अजः) म० १। जीवात्मा (अग्निः) शरीरेऽग्निवद् व्यापकः (अजम्) जीवात्मानम् (उ) एव (ज्योतिः) प्रकाशम् (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (अजम्) (जीवता) प्राणं पुरुषार्थं धारयता पुरुषेण (ब्रह्मणे) परमात्मने (देयम्) समर्पणीयम् (अजः) (तमांसि) अविद्यान्धकारान् (अप हन्ति) विनाशयति (दूरम्) विप्रकृष्टदेशम् (अस्मिन्) (लोके) (श्रद्दधानेन) परमेश्वरे विश्वासधारकेण (दत्तः) समर्पितः ॥

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