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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 20
    ऋषिः - भृगुः देवता - अजः पञ्चौदनः छन्दः - पञ्चपदानुष्टुबुष्णिग्गर्भोपरिष्टाद्बार्हता भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - अज सूक्त
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    अ॒जो वा इ॒दम॑ग्ने॒ व्यक्रमत॒ तस्योर॑ इ॒यम॑भव॒द्द्यौः पृ॒ष्ठम्। अ॒न्तरि॑क्षं॒ मध्यं॒ दिशः॑ पा॒र्श्वे स॑मु॒द्रौ कु॒क्षी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ज: । वै । इ॒दम् । अग्रे॑ । वि । अ॒क्र॒म॒त॒ । अस्य॑ । उर॑: । इ॒यम् । अ॒भ॒व॒त् । द्यौ: । पृ॒ष्ठम् । अ॒न्तर‍ि॑क्षम् । मध्य॑म् । दिश॑: । पा॒र्श्वे इति॑ । स॒मु॒द्रौ । कु॒क्षी इति॑ । ५.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजो वा इदमग्ने व्यक्रमत तस्योर इयमभवद्द्यौः पृष्ठम्। अन्तरिक्षं मध्यं दिशः पार्श्वे समुद्रौ कुक्षी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अज: । वै । इदम् । अग्रे । वि । अक्रमत । अस्य । उर: । इयम् । अभवत् । द्यौ: । पृष्ठम् । अन्तर‍िक्षम् । मध्यम् । दिश: । पार्श्वे इति । समुद्रौ । कुक्षी इति । ५.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 20
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से सुख का उपदेश।

    पदार्थ

    (अजः) अजन्मा वा गतिशील परमात्मा (वै) ही (अग्रे) पहिले ही पहिले (इदम्) इस [जगत्] में (वि अक्रमत्) विचरता था, (तस्य) उसकी (उरः) छाती (इयम्) यह [भूमि] और (पृष्ठम्) पीठ (द्यौः) आकाश (अभवत्) हुआ। (मध्यम्) कटिभाग (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष, (दिशः) दिशाएँ (पार्श्वे) दोनों काँखें [कक्षाएँ] और (समुद्रौ) दोनों [अन्तरिक्ष और भूमि के] समुद्र (कुक्षी) दोनों कोखें [हुईं] ॥२०॥

    भावार्थ

    अनादि, अनन्त, परमेश्वर सृष्टि का कर्ता, सर्वनियन्ता और सर्वव्यापक है ॥२०॥

    टिप्पणी

    २०−(अजः) म० १। अजन्मा गतिशीलो वा परमात्मा (वै) अवश्यम् (इदम्) दृश्यमानं जगत् (अग्रे) सृष्टेः प्राक् (व्यक्रमत) व्यचरत् (तस्य) (उरः) अर्तेरुच्च। उ० ४।१९५। ऋ गतौ-असुन् उत्वं रपरत्वं च। वक्षः (इयम्) भूमिः (अभवत्) (द्यौः) आकाशः (पृष्ठम्) देहपश्चाद्भागः (अन्तरिक्षम्) (मध्यम्) कटिभागः (दिशः) पूर्वादयः (पार्श्वे) अ० ४।१४।७। कक्षयोरधोभागौ (समुद्रौ) अन्तरिक्षभूमिस्थजलौघौ (कुक्षी) अ० २।५।४। दक्षिणोत्तरकुक्षिद्वयम् ॥

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    विषय

    विराट् पुरुष

    पदार्थ

    १. (अज:) = उस [न जायते] अजन्मा प्रभु ने (वा) = निश्चय से (इदम्) = इस जगत् को (अग्रे) = सर्वप्रथम (व्यक्रमत) = [वि अक्रमत] नाना प्रकार से रचा। ('तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्') =  उसे रचकर उसमें अनुप्रविष्ट हो गया। यह ब्रह्माण्ड उस प्रभु का शरीर-सा हो गया-यही विराट् पुरुष हुआ। २. (तस्य) = उस विराट् पुरुष की (इयम्) = यह पृथिवी ही (उरः अभवत्) = छाती हुई, (द्यौः पृष्ठम्) = धुलोक पीठ बनी और (अन्तरिक्षं मध्यम्) = अन्तरिक्ष ही मध्यभाग हुआ। (दिश: पाश्र्वे) = दिशाएँ पार्श्वभाग बनी और (समुद्रौ) = पृथिवीस्थ समुद्र तथा अन्तरिक्षस्थ समुद्र [मेघ] (कुक्षी) = कुक्षी-प्रदेश [कोख] हुए|

    भावार्थ

    यह ब्रह्माण्ड विराट् पुरुष के शरीर के समान है। पृथिवी छाती है, धुलोक पीठ, अन्तरिक्ष मध्य है और दिशाएँ पार्श्वभाग हैं। पृथिवी व अन्तरिक्षस्थ समुद्र उस विराट् पुरुष के कुक्षी-प्रदेश हैं।

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    भाषार्थ

    (अग्रे) प्रारम्भ में (वै) निश्चय से (अजः) जन्मरहित, अकाय परमेश्वर ने (इदम्) इस ब्रह्माण्ड पर (व्यक्रमत) विक्रम दर्शाया या पादनिक्षेप किया, (तस्य) उस की (उरः अभवत्) छाती हुई (इयम्) यह पृथिवी, (द्यौः) द्युलोक हुआ (पृष्ठम्) पीठ। (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष हुआ (मध्यम्) शरीर का मध्यभाग, (दिशः) दिशाएं हुई (पार्श्वे) दो पार्श्व (कुक्षी) दो कोखें हुई। (समुद्री) दो समुद्र।

    टिप्पणी

    [पार्श्वे= दो पार्श्वों की नाना, अस्थियों को “दिशः” नाना दिशाएं कहा है। कुक्षी = अन्तरिक्ष का समुद्र तथा पार्थिव समुद्र१।] [१. इन्हें उत्तर-समुद्र और अधर-समुद्र भी कहा है। यथा “स उत्तरस्मादधरं समुद्रमपो दिव्या असृजद् वर्ष्या अभि” (ऋ० १०।९८।५)। अथवा कुक्षी= पूर्व समुद्र तथा पश्चिम समुद्र। यथा “उतो समुद्रौ वहणस्य कुक्षी” (अथर्व० ४।१६।३) पर सायणाचार्य।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Soul, the Pilgrim

    Meaning

    Aja, Eternal Spirit beyond birth and death, was the divine power and presence that first stirred and manifested Itself ahead of this world of existence. This earth became his chest, the heaven and earth, his middle, the quarters of space, his side bounds, and the oceans of earth and space, his great womb of existence.

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    Translation

    It was this unborn, indeed, that strode out in the beginning. His breast became this (earth), and his back the sky; his middle part the midspace, his two sides the quarters, and his two cavities of abdomen the two oceans.

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    Translation

    The unbegotten and eternal soul of the Universe and beyond in the beginning manifested his power and action in multifarious directions. His breast was this earth, His back this heavenly region, His middle part this firmament, His sides were these regions and the hollows of His belly these two oceans—the terrestual and celestial.

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    Translation

    The Eternal God, in the beginning, created this world. The Earth became His breast. Heaven was His back. The regions were His sides. Both oceans formed the hollow of His body.

    Footnote

    Both oceans: The earthly ocean full of water, and atmosphere, the ocean full of air and vapors. God has no body. He is incorporeal. The language is metaphorical.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २०−(अजः) म० १। अजन्मा गतिशीलो वा परमात्मा (वै) अवश्यम् (इदम्) दृश्यमानं जगत् (अग्रे) सृष्टेः प्राक् (व्यक्रमत) व्यचरत् (तस्य) (उरः) अर्तेरुच्च। उ० ४।१९५। ऋ गतौ-असुन् उत्वं रपरत्वं च। वक्षः (इयम्) भूमिः (अभवत्) (द्यौः) आकाशः (पृष्ठम्) देहपश्चाद्भागः (अन्तरिक्षम्) (मध्यम्) कटिभागः (दिशः) पूर्वादयः (पार्श्वे) अ० ४।१४।७। कक्षयोरधोभागौ (समुद्रौ) अन्तरिक्षभूमिस्थजलौघौ (कुक्षी) अ० २।५।४। दक्षिणोत्तरकुक्षिद्वयम् ॥

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