अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 17
येना॑ स॒हस्रं॒ वह॑सि॒ येना॑ग्ने सर्ववेद॒सम्। तेने॒मं य॒ज्ञं नो॑ वह॒ स्वर्दे॒वेषु॒ गन्त॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । स॒हस्र॑म् । वह॑सि । येन॑ । अ॒ग्ने॒ । स॒र्व॒ऽवे॒द॒सम् । तेन॑ । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । न॒: । व॒ह॒ । स्व᳡: । दे॒वेषु॑ । गन्त॑वे ॥५.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
येना सहस्रं वहसि येनाग्ने सर्ववेदसम्। तेनेमं यज्ञं नो वह स्वर्देवेषु गन्तवे ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । सहस्रम् । वहसि । येन । अग्ने । सर्वऽवेदसम् । तेन । इमम् । यज्ञम् । न: । वह । स्व: । देवेषु । गन्तवे ॥५.१७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ब्रह्मज्ञान से सुख का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे विद्वन् ! (येन) जिस (येन) नियम से (सहस्रम्) बलवान् पुरुषों को (सर्ववेदसम्) सब प्रकार के ज्ञानों वा धनों से युक्त [यज्ञ] में (वहसि) तू ले जाता है, (तेन) उसी [नियम] से (नः) हमें (इमम्) इस (यज्ञम्) प्राप्त होने योग्य यज्ञ में (देवेषु) विद्वानों के बीच (स्वः) सुख (गन्तवे) पाने के लिये (वह) ले चल ॥१७॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि विद्वानों के बीच सुख प्राप्त करने के लिये सदा प्रयत्न करते रहें ॥१७॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजु० १५।५५। है तथा स्वामिदयानन्दकृतसंस्कारविधि संन्यासाश्रमप्रकरण में भी व्याख्यात है ॥
टिप्पणी
१७−(येन) प्रयत्नेन (सहस्रम्) सहो बलम्-निघ० २।९। रो मत्वर्थे। बलवन्तं पुरुषम् (वहसि) प्रापयसि (येन) यम-ड। नियमेन (अग्ने) हे विद्वन् (सर्ववेदसम्) सर्वाणि वेदांसि ज्ञानानि धनानि वा यस्मिन् तं यज्ञम् (तेन) (इमम्) क्रियमाणम् (यज्ञम्) संगन्तव्यं व्यवहारं प्रति (नः) अस्मान् (वह) नय (स्वः) सुखम् (देवेषु) विद्वत्सु (गन्तवे) तुमर्थे तवेप्रत्ययः। प्राप्तुम् ॥
विषय
यज्ञ व स्वर्ग
पदार्थ
१.हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (येन) = जिस सामर्थ्य से आप (सहस्त्रम्) = इन हज़ारों लोक-लोकान्तरों को वहसि-धारण करते हैं और (येन) = जिस सामर्थ्य से (सर्ववेदसम्) = सम्पूर्ण ज्ञान व ऐश्वर्य [विद् लाभे] को धारण करते हैं, (तेन) = उसी सामर्थ्य से (इमं यज्ञम्) = इस यज्ञ को (नः) = वह-हमें प्राप्त कराइए। इस यज्ञ द्वारा हम (देवेषु) = देववृत्तिवाले पुरुषों में स्थित होते हुए (स्वः गन्तवे) = प्रकाश व सुख को प्राप्त कराने के लिए यत्नशील हों।
भावार्थ
प्रभु सब लोकों, ऐश्वयों व ज्ञानों को धारण करनेवाले हैं। प्रभु हमें यज्ञों को प्राप्त कराएँ, जिससे हम देव बनकर स्वर्ग को प्राप्त कर सकें।
भाषार्थ
(अग्ने) हे प्रकाशस्वरूप तथा ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! (येन) जिस हेतु से (सहस्रम्) हजारों लोक लोकान्तरों का (वहसि) तू वहन करता है, (येन) जिस हेतु से (सर्ववेदसम्) सर्वस्वत्यागी का वहन करता है। (तेन) उस हेतु से (नः) हमारे (यज्ञम्) यज्ञ को सफलता की ओर (वह) ले चल, ताकि (देवेषु) देवों में वर्तमान (स्वः) सुखविशेष को (गन्तवे) हम प्राप्त हो सकें।
टिप्पणी
[अग्नि है परमेश्वर (मन्त्र १३)। परमेश्वर लोकलोकान्तरों का वहन करता है मनुष्यों और अन्य प्राणियों के भोग और अपवर्ग के लिये, “भोगापवर्गार्थवृदृश्यम्” (योग २।१८)। सर्वस्वत्यागी का वहन इसलिये करता है क्योंकि उस के सकामकर्म निष्कामरूप हो गए हैं अतः उस के जीवन को परमेश्वर निज प्रेरणाओं द्वारा प्रेरित करता है। मन्त्र में प्रार्थना की गई है कि हम जीवन्मुक्तों के जीवन यज्ञों का भी तू वहन कर, ताकि उस सुख विशेष को हम प्राप्त हो सकें जोकि दिव्य गुणियों को प्राप्त है। गन्तवे = गन्तुम्, तुमुन् प्रत्यय।]
इंग्लिश (4)
Subject
The Soul, the Pilgrim
Meaning
O light and fire of yajna and meditation in the state of communion, by that stream of bliss in samadhi through which you set aflow a thousand streams of bliss to the soul, by which you lead the soul’s awareness to the lord omniscient, pray sustain this yajna of our communion unto the presence and experience of the divinities and bliss of our choice so that we may reach our goal. (Reference may be made to Patanjali’s Yogasutras, 1, 22-23; 1, 39-41; 3, 49 and 54.)
Translation
Wherewith you carry the thousands and wherewith all the wealth you carry, O fire-divine, with that grace of yours, may you Carry this our sacrifice to the bounties of Nature, so that we may reach the world of bliss. (Also Yv. XV.55)
Translation
Let this fire of yajna be source of carrying the substance of the articles offered in the yajnavedi of our yajnas to the vast space to let this go to the physical elements. through that power by which this (fire) bears the thousands of things and all of the worldly materials.
Translation
O God, with whatever strength Thou sustainest the entire universe, and retainest all knowledge, with that, take our sacrificing soul to learned emancipated persons, for the acquisition of salvation.
Footnote
See YaJur,14-55- This verse has been explained by Swami Dayanand in Sanskarvidhi in the chapter on Sanyasa.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७−(येन) प्रयत्नेन (सहस्रम्) सहो बलम्-निघ० २।९। रो मत्वर्थे। बलवन्तं पुरुषम् (वहसि) प्रापयसि (येन) यम-ड। नियमेन (अग्ने) हे विद्वन् (सर्ववेदसम्) सर्वाणि वेदांसि ज्ञानानि धनानि वा यस्मिन् तं यज्ञम् (तेन) (इमम्) क्रियमाणम् (यज्ञम्) संगन्तव्यं व्यवहारं प्रति (नः) अस्मान् (वह) नय (स्वः) सुखम् (देवेषु) विद्वत्सु (गन्तवे) तुमर्थे तवेप्रत्ययः। प्राप्तुम् ॥
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