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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 9
    ऋषिः - भृगुः देवता - अजः पञ्चौदनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अज सूक्त
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    अजा रो॑ह सु॒कृतां॒ यत्र॑ लो॒कः श॑र॒भो न च॒त्तोऽति॑ दु॒र्गाण्ये॑षः। पञ्चौ॑दनो ब्र॒ह्मणे॑ दी॒यमा॑नः॒ स दा॒तारं॒ तृप्त्या॑ तर्पयाति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अज॑ । आ । रो॒ह॒ । सु॒ऽकृता॑म् । यत्र॑ । लो॒क: । श॒र॒भ: । न । च॒त्त: । अति॑ । दु॒:ऽगानि॑ । ए॒ष॒: । पञ्च॑ऽओदन: । ब्र॒ह्मणे॑ । दी॒यमा॑न: । स: । दा॒तार॑म् । तृप्त्या॑ । त॒र्प॒य॒ति॒ ॥५.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजा रोह सुकृतां यत्र लोकः शरभो न चत्तोऽति दुर्गाण्येषः। पञ्चौदनो ब्रह्मणे दीयमानः स दातारं तृप्त्या तर्पयाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अज । आ । रोह । सुऽकृताम् । यत्र । लोक: । शरभ: । न । चत्त: । अति । दु:ऽगानि । एष: । पञ्चऽओदन: । ब्रह्मणे । दीयमान: । स: । दातारम् । तृप्त्या । तर्पयति ॥५.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 9
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से सुख का उपदेश।

    पदार्थ

    (अज) हे अजन्मा वा गतिशील जीवात्मा ! [वहाँ] (आ रोह) चढ़कर जा (यत्र) जहाँ (सुकृताम्) सुकर्मियों का (लोकः) लोक [स्थान] है, और (शरभः न) शत्रुनाशक [शूर] के समान (चत्तः) प्रार्थना किया गया तू (दुर्गाणि) संकटों को (अति) पार करके (एषः) चल। (सः) वह (ब्रह्मणे) ब्रह्म [परमेश्वर] को (दीयमानः) दिया जाता हुआ (पञ्चौदनः) पाँच भूतों [पृथिव्यादि-म० ८] से सींचा हुआ [जीवात्मा] (दातारम्) दाता [अपने आप] को (तृप्त्या) तृप्ति [सुख की परिपूर्णता से] (तर्पयाति) तृप्त करे ॥९॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य पुरुषार्थ करके विघ्नों को हटाकर परमेश्वर की भक्ति में लवलीन होता है, वह मोक्षसुख से तृप्त रहता है ॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(अज) हे अजन्मन् गतिशील वा (आ रोह) उद्गच्छ (सुकृताम्) (यत्र) (लोकः) (शरभः) कॄशॄशलि०। उ० ३।१२२। शॄ हिंसायाम्-अभच्। शत्रुनाशकः शूरः (न) इव (चत्तः) ग्रसितस्कभितस्तभितोत्तभितचत्त०। पा० ७।२।३४। चते याचने-क्त, इडभावः। याचितः (अति) अतीत्य (दुर्गाणि) दुरितानि (एषः) इण् गतौ अथवा इष गतौ-लेट्। गच्छेः (पञ्चौदनः) म० ८। पञ्चभूतैः सिक्तो जीवात्मा (ब्रह्मणे) परमात्मने (दीयमानः) समर्प्यमाणः (सः) (दातारम्) समर्पयितारं स्वात्मानम् (तृप्त्या) मुक्त्या (तर्पयाति) हर्षयेत् ॥

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    विषय

    दुर्ग-लंघन

    पदार्थ

    १. हे (अज) = गति के द्वारा बुराई को परे फेंकनेवाले जीव ! तू (सुकृतां यत्र लोक:) = पुण्यकर्मा लोगों का जहाँ लोक है, वहाँ (आरोह) = आरोहण कर। तू (चत्त:) = [चति याचने, चत्तम् अस्य अस्तीति] याचना-प्रार्थनावाला होता हुआ (शरभः न) = [श् हिंसायाम्] शरभ के समान होता है-सब बुराइयों को शीर्ण करनेवाला होता है। ऐसा तू (दुर्गाणि अति एषः) = [इष् गतौ] सब दुर्गों को-कठिनाइयों को लांघ जाता है। २. यह (पञ्चौदनः) = पाँचों इन्द्रियों से ज्ञान-भोजन को प्राप्त करनेवाला जीव (ब्रह्मणे) = प्रभु के लिए (दीयमान:) = दिया जाता है-अर्पित होता है। (दातारम्) = अपने को प्रभु के लिए देनेवाले को (स:) = वे प्रभु (तृप्त्या तर्पयाति) = तृप्ति से प्राणित [आनन्दित] करते हैं। ('सम्प्राप्यैनमृषयो ज्ञानतमाः कृतात्मानो वीतरागाः प्रशान्ताः।') = [मुण्डकोपनिषत्]

    भावार्थ

    हम क्रियाशीलता द्वारा बुराइयों को दूर करनेवाले बनकर पुण्यकर्मा लोगों के लोक में आरूढ़ हों। प्रार्थनामय जीवनवाले बनकर शरभ के समान शत्रुओं को शीर्ण करते हुए दुर्गों को लाँघ जाएँ। ज्ञान-प्राप्ति में लगकर अपने को प्रभु के प्रति अर्पित करें। इस अर्पण करनेवाले को प्रभु आनन्दविभोर कर देते हैं।

     

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    भाषार्थ

    (अज) हे अजन्मा जीवात्मा ! (आरोह) आरोहण कर (यत्र) जहां कि (सुकृतां लोकः) सुकर्मियों का लोक है, (चत्तः) प्रार्थित हुए (शरभः) और शान्ति धारण किये हुए के (न) सदृश, (दुर्गाणि अति) दुर्गम मार्गों को लांघ कर भी (एषः) हमारे पास आया कर। (पञ्चौदनः) पांच इन्द्रिय-भोगों वाला जो “अज” था वह जब (ब्रह्मणे) ब्रह्म के प्रति (दीयमानः) समर्पण के योग्य हो जाता है, तो वह (दातारम्) दाता आचार्य को (तृप्त्या तर्पयाति) तृप्ति से तृप्त कर देता है।

    टिप्पणी

    [शरभः = जिसने कि शान्त जीवन आरम्भ किया हुआ है, प्रार्थना करने पर, जैसे वह कठिन मार्गों को लांघ कर भी हमारे पास आता है, वैसे हे जीवन्मुक्त ! तू भी आया कर। इस से प्रतीत होता है जीवन्मुक्त अभी जीवित है, उसने अभी तक मोक्षारोहण नहीं किया। केवल शुभभावना की गई है कि हे अजः तू आरोहण के लिये यत्न करता रह और निज को तू ब्रह्म के प्रति समर्पण कर दे। जब जीवन्मुक्त योग्य हो जाता है तब उस योगाचार्य को जिसने जीवन्मुक्त को इस योग्य किया है, तृप्ति से तृप्त कर देता है। (योगाचार्य के लिये देखो मन्त्र १, २)। चत्तः=चते याचने (भ्वादिः) + क्त। एषः=आ + इष गतौ]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Soul, the Pilgrim

    Meaning

    Hey Aja, immortal soul, rise and reach where noble souls of highest action abide and, like an irrestible lancer on the advance, cross the most formidable hurdles. The immortal soul in top condition of health and experience, dedicated with self-surrender to the Supreme Brahma pleases the generous giver with perfect satisfation and fully justifies the gift of life, knowledge and enlightenment.

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    Translation

    O unborn, may you ascend to the world where the virtuous ones dwell. Like a scared Sarabha, go across the difficulties. Pancaudana (the unborn, made of five-fold pulp of meshed grain), presented to an intellectual person, delights the donor with complete satisfaction.

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    Translation

    O eternal soul ! raise yourself to the state which the pious and righteous persons aspire to. You like a lion being delighted over-come all the difficulties in the way. This eternal soul flourishing in the body of five elements surrendered to God satisfy the giver with all fullness.

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    Translation

    O unborn soul, rise to that position where dwell the righteous. This soul, when solicited, overcomes all obstacles like a lion. The soul, dedicated to God, satisfies the dedicator with all fulness!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(अज) हे अजन्मन् गतिशील वा (आ रोह) उद्गच्छ (सुकृताम्) (यत्र) (लोकः) (शरभः) कॄशॄशलि०। उ० ३।१२२। शॄ हिंसायाम्-अभच्। शत्रुनाशकः शूरः (न) इव (चत्तः) ग्रसितस्कभितस्तभितोत्तभितचत्त०। पा० ७।२।३४। चते याचने-क्त, इडभावः। याचितः (अति) अतीत्य (दुर्गाणि) दुरितानि (एषः) इण् गतौ अथवा इष गतौ-लेट्। गच्छेः (पञ्चौदनः) म० ८। पञ्चभूतैः सिक्तो जीवात्मा (ब्रह्मणे) परमात्मने (दीयमानः) समर्प्यमाणः (सः) (दातारम्) समर्पयितारं स्वात्मानम् (तृप्त्या) मुक्त्या (तर्पयाति) हर्षयेत् ॥

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