अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 30
ऋषिः - भृगुः
देवता - अजः पञ्चौदनः
छन्दः - ककुम्मत्यनुष्टुप्
सूक्तम् - अज सूक्त
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आ॒त्मानं॑ पि॒तरं॑ पु॒त्रं पौत्रं॑ पिताम॒हम्। जा॒यां जनि॑त्रीं मा॒तरं॒ ये प्रि॒यास्तानुप॑ ह्वये ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒त्मान॑म् । पि॒तर॑म् । पु॒त्रम् । पौत्र॑म् । पि॒ता॒म॒हम् । जा॒याम् । जनि॑त्रीम् । मा॒तर॑म् । ये । प्रि॒या: । तान् । उप॑ । ह्व॒ये॒ ॥५.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
आत्मानं पितरं पुत्रं पौत्रं पितामहम्। जायां जनित्रीं मातरं ये प्रियास्तानुप ह्वये ॥
स्वर रहित पद पाठआत्मानम् । पितरम् । पुत्रम् । पौत्रम् । पितामहम् । जायाम् । जनित्रीम् । मातरम् । ये । प्रिया: । तान् । उप । ह्वये ॥५.३०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ब्रह्मज्ञान से सुख का उपदेश।
पदार्थ
(आत्मानम्) आत्मबल, (पितरम्) पिता, (पुत्रम्) पुत्र, (पौत्रम्) पौत्र, (पितामहम्) दादा, (जायाम्) पत्नी, (जनित्रीम्) उत्पन्न करनेवाली (मातरम्) माता को और (ये) जो (प्रियाः) प्रिय है, (तान्) उन सबको (उप ह्वये) मैं आदर से बुलाता हूँ ॥३०॥
भावार्थ
मनुष्य सब आत्मसम्बन्धियों के साथ यथावत् उपकार करके सदा सुखी रहें ॥३०॥
टिप्पणी
३०−(आत्मानम्) आत्मबलम् (पितरम्) पातारं जनकम् (पुत्रम्) अ० १।११।५। कुलशोधकं सुतम् (पौत्रम्) पुत्र-अण्। नप्तारम् (पितामहम्) पितृव्यमातुलमातामहपितामहाः। पा० ४।२।३।६। पितृ-डामहच्। पितुः पितरम् (जायाम्) पत्नीम् (जनित्रीम्) जनयित्रीं जननीम् (मातरम्) (ये) (प्रियाः) प्रीतिकराः (तान्) (उप) आदरेण (ह्वये) आह्वयामि ॥
विषय
इष्ट-बन्धु-स्मरण
पदार्थ
१. गृहस्थ को समय-समय पर इष्ट-बन्धुओं को आमन्त्रित करना ही चाहिए। उन प्रसङ्गों में सर्वप्रथम (आत्मानम् उपह्वये) = प्रभु को पुकारे। प्रभु-प्रार्थना से ही प्रत्येक कार्य का आरम्भ होना चाहिए। इसके बाद (पितरम्) = पिता को (पौत्रम्) = पुत्र-पौत्रों को (पितामहम्) = दादा को (जायाम्) = पत्नी को (जनित्रीम् मातरम्) = जन्म देनेवाली माता को तथा (ये प्रिया:) = जो भी प्रिय इष्ट-बन्धु हैं (तान्) = [उपवये] उन सबको सम्मानपूर्वक पुकारे।
भावार्थ
घरों में जब कोई कार्यविशेष उपस्थित हो, तब उन अवसरों पर सर्वप्रथम प्रभु का स्मरण करना चाहिए, तदनन्तर पिता, दादा, माता, पत्नी व पुत्र-पौत्रों को भी बुलाना चाहिए। यज्ञ के समय घर के सब व्यक्ति उपस्थित हों। उस समय पली पाकशाला में कुछ पका न रही हो।
भाषार्थ
(आत्मानम्) निज अर्थात् अपने (पितरम्) पिता को, (पुत्रम्) पुत्र को, (पौत्रम्) पोते को, (पितामहम्) पिता के पिता को, (जायाम्) निज पत्नी को, (जनित्रीम् मातरम्) जन्मदात्री माता को, तथा (ये) जो (प्रियाः) अन्य प्रिय सम्बन्धी या मित्र हैं, (तान्) उन्हें (उपहूये) अपने समीप मैं बुलाता हूं, या सदा सत्कार पूर्वक बुलाता हूं, आदर पूर्वक बुलाता हूं। “आत्मनः, अपने पिता आदि”।
टिप्पणी
[यह कथन पति का है। पति गृहजीवन में सबके साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करे, और उनके प्रति मधुर तथा प्रेममयी वाणी का प्रयोग किया करे। मन्त्र में संयुक्त पारिवारिक जीवन” का निर्देश हुआ है]
इंग्लिश (4)
Subject
The Soul, the Pilgrim
Meaning
Self-confidence, father, son, grand son, grand father, wife, mother, and all those dear to me and to the home and family, I invite to come and join me.
Translation
Myself; my father, son, grandson, grand-father, wife who bore my children and my mother - who dear to me, them I call near.
Translation
I call with due respect to all like myself, the father, the son the grandson, the grandfather, wife, the mother who gave’ birth to me, and these who love us.
Translation
I call my soul, father, son, grandson, grandfather, wife, mother who bore me, and give them advice.
Footnote
A pious highly, Spiritually advanced person.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३०−(आत्मानम्) आत्मबलम् (पितरम्) पातारं जनकम् (पुत्रम्) अ० १।११।५। कुलशोधकं सुतम् (पौत्रम्) पुत्र-अण्। नप्तारम् (पितामहम्) पितृव्यमातुलमातामहपितामहाः। पा० ४।२।३।६। पितृ-डामहच्। पितुः पितरम् (जायाम्) पत्नीम् (जनित्रीम्) जनयित्रीं जननीम् (मातरम्) (ये) (प्रियाः) प्रीतिकराः (तान्) (उप) आदरेण (ह्वये) आह्वयामि ॥
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