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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
    सूक्त - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    तुभ्य॒मग्रे॒पर्य॑वहन्त्सू॒र्यां व॑ह॒तुना॑ स॒ह। स नः॒ पति॑भ्यो जा॒यां दा अ॑ग्ने प्र॒जया॑स॒ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तुभ्य॑म् । अग्रे॑ । परि॑ । अ॒व॒ह॒न् । सू॒र्याम् । व॒ह॒तुना॑ । स॒ह । स: । न॒: । पति॑ऽभ्य: । जा॒याम् । दा: । अग्ने॑ । प्र॒ऽजया॑ । स॒ह ॥२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तुभ्यमग्रेपर्यवहन्त्सूर्यां वहतुना सह। स नः पतिभ्यो जायां दा अग्ने प्रजयासह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तुभ्यम् । अग्रे । परि । अवहन् । सूर्याम् । वहतुना । सह । स: । न: । पतिऽभ्य: । जायाम् । दा: । अग्ने । प्रऽजया । सह ॥२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १.हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (सूर्याम्) = इस सूर्या को-सूर्यसम दीप्त कन्या को इसके माता-पिता (वहतुना सह) = सम्पूर्ण दहेज के साथ (अग्रे) = पहले (तुभ्यम्) = तेरे लिए (पर्यवहन्) = प्राप्त कराते हैं। माता-पिता को अपनी कन्या को दूसरे घर में भेजते हुए आशंका का होना स्वाभाविक ही है। वे प्रभु से कहते हैं कि हम तो इसे आपको ही सौंप रहे हैं। आपने ऐसी कृपा करनी कि वह ठीक स्थान पर ही जाए। २. हे अने। हमने तो इस कन्या को आपके लिए सौंप दिया है। (स:) = वे आप (न:) = हमारी इस कन्या को (पतिभ्यः) = पतियों के लिए (जायां दा:) = पत्नी के रूप में प्राप्त कराइए। आप इस कन्या को (प्रजया सह) = उत्तम प्रजा के साथ कीजिए। 'अग्नि' शब्द [आचार्य] के लिए भी आता है। कन्या को आचार्य के प्रति सौंपकर माता-पिता आचार्य द्वारा ही उसका सम्बन्ध कराएँ।

    भावार्थ -

    कन्याओं के विवाह-सम्बन्ध आचार्यों के माध्यम से होने पर सम्बन्ध के अनौचित्य की शंका नितान्त कम हो जाती है। यह सम्बन्ध प्रभु-पूजनपूर्वक होना ही ठीक है।

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