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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 113 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 113/ मन्त्र 11
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - उषाः द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    ई॒युष्टे ये पूर्व॑तरा॒मप॑श्यन्व्यु॒च्छन्ती॑मु॒षसं॒ मर्त्या॑सः। अ॒स्माभि॑रू॒ नु प्र॑ति॒चक्ष्या॑भू॒दो ते य॑न्ति॒ ये अ॑प॒रीषु॒ पश्या॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ई॒युः । ते । ये । पूर्व॑ऽतराम् । अप॑श्यन् । वि॒ऽउ॒च्छन्ती॑म् । उ॒षस॑म् । मर्त्या॑सः । अ॒स्माभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । नु । प्र॒ति॒ऽचक्ष्या॑ । अ॒भू॒त् । ओ इति॑ । ते । य॒न्ति॒ । ये । अ॒प॒रीषु॑ । पश्या॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईयुष्टे ये पूर्वतरामपश्यन्व्युच्छन्तीमुषसं मर्त्यासः। अस्माभिरू नु प्रतिचक्ष्याभूदो ते यन्ति ये अपरीषु पश्यान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईयुः। ते। ये। पूर्वऽतराम्। अपश्यन्। विऽउच्छन्तीम्। उषसम्। मर्त्यासः। अस्माभिः। ऊँ इति। नु। प्रतिऽचक्ष्या। अभूत्। ओ इति। ते। यन्ति। ये। अपरीषु। पश्यान् ॥ १.११३.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 113; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः प्रभातविषयं प्राह ।

    अन्वयः

    ये मर्त्यासो व्युच्छन्ती पूर्वतरामुषसमीयुस्तेऽस्माभिः सह सुखमपश्यन् योषा अस्माभिः प्रतिचक्ष्याभूद् भवति सा नु सुखप्रदा भवति। उ ये अपरीषु पूर्वतरां पश्यान् त ओ एव सुखं यन्ति प्राप्नुवन्ति ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (ईयुः) प्राप्नुयुः (ते) (ये) (पूर्वतराम्) अतिशयेन पूर्वाम् (अपश्यन्) पश्येयुः (व्युच्छन्तीम्) निद्रां विवासयन्तीम् (उषसम्) प्रभातसमयम् (मर्त्यासः) मनुष्याः (अस्माभिः) (उ) वितर्के (नु) शीघ्रम् (प्रतिचक्ष्या) प्रत्यक्षेण द्रष्टुं योग्या (अभूत्) भवति (ओ) अवधारणे (ते) (यन्ति) (ये) (अपरीषु) आगामिनीषूषस्सु (पश्यान्) पश्येयुः ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या उषसः प्राक् शयनादुत्थायावश्यकं कृत्वा परमेश्वरं ध्यायन्ति ते धीमन्तो धार्मिको जायन्ते। ये स्त्री पुरुषा जगदीश्वरं ध्यात्वा प्रीत्या संवदते तेऽनेकविधानि सुखानि प्राप्नुवन्ति ॥ ११ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर प्रभात विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (ये) जो (मर्त्यासः) मनुष्य लोग (व्युच्छन्तीम्) जगाती हुई (पूर्वतराम्) अति प्राचीन (उषसम्) प्रभात वेला को (ईयुः) प्राप्त होवें (ते) वे (अस्माभिः) हम लोगों के साथ सुख को (अपश्यन्) देखते हैं, जो प्रभात वेला हमारे साथ (प्रतिचक्ष्या) प्रत्यक्ष से देखने योग्य (अभूत्) होती है वह (नु) शीघ्र सुख देनेवाली होती है। (उ) और (ये) जो (अपरीषु) आनेवाली उषाओं में व्यतीत हुई उषा को (पश्यान्) देखें (ते) वे (ओ) ही सुख को (यन्ति) प्राप्त होते हैं ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य उषा के पहिले शयन से उठ आवश्यक कर्म करके परमेश्वर का ध्यान करते हैं, वे बुद्धिमान् और धार्मिक होते हैं। जो स्त्री-पुरुष परमेश्वर का ध्यान करके प्रीति से आपस में बोलते-चालते हैं, वे अनेकविध सुखों को प्राप्त होते हैं ॥ ११ ॥

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    विषय

    भूत , वर्तमान व भावी उषाकाल

    पदार्थ

    १. (ये मर्तासः) = जो मनुष्य (पूर्वतराम्) = सबसे प्रथम होनेवाली (व्युच्छन्तीम्) = अन्धकार को दूर करती हुई (उषसम्) = उषा को (अपश्यन्) = देखते थे (ते ईयुः) = वे अब जा चुके । सृष्टि के आरम्भ में परमेश्वर के जो मानस पुत्र हुए उन्होंने सर्वप्रथम उषा को देखा , परन्तु अब वे उषाकाल भूत की वस्तु हो गये और वे द्रष्टा भी अब जा चुके । (नु ) = अब (उ) = निश्चय से (अस्माभिः) = हमारे द्वारा यह वर्तमान उषा (प्रतिचक्ष्या) = देखने योग्य (अभूत्) = हुई है । (ते) = वे व्यक्ति भी (उ) = अवश्य (आयन्ति) = समीप भविष्य में आ ही रहे हैं (ये) = जो (अपरीषु) = [भाविनीषु - सा०] आगे आनेवाली रात्रियों में (पश्यान्) = उदय होते हुए इन उषाकालों को देखेंगे ।

    भावार्थ

    भावार्थ - सृष्टि के आरम्भ से ये उषाकाल चल रहे हैं । कितने ही उषाकाल बीत चुके । वर्तमान में उषाकाल हमारे सामर्थ्य व प्रकाश को बढ़ा ही रहे हैं और भविष्य में आनेवाले उषाकाल उस समय के व्यक्तियों से देखे जाएंगे ।

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    विषय

    उषा के दृष्टान्त से नववधू, गृहपत्नी, और विदुषी स्त्री के कर्तव्यों का उपदेश ।

    भावार्थ

    ( ये ) जो ( मर्त्यासः ) मनुष्य ( पूर्वतराम् ) पूर्व प्रकट होने वाली ( उच्छन्तीम् ) खिलती हुई ( उषसम्) उषा को ( अपश्यन् ) देखते हैं ( ते ईयुः ) वे सुख को प्राप्त होते हैं । ( ये अपरीषु ) जो आगे आने वाली उषाओं में भी ( पूर्वतराम् पश्यान् ) पूर्व की खिली उषा को देखें ( ते यन्ति ) वे भी सुख को प्राप्त होते हैं । ( अस्माभिः उ नु ) हमें भी वह ( प्रतिचक्ष्या अभूत् ) प्रत्यक्ष साक्षात् हो । हम भी सुख को प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ १-२० उषा देवता । द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि॥ छन्दः– १, ३, ९, १२, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । ७, १८—२० विराट् त्रिष्टुप्। २, ५ स्वराट् पंक्तिः। ४, ८, १०, ११, १५, १६ भुरिक् पंक्तिः। १३, १४ निचृत्पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे उषेचे आगमन होण्यापूर्वी जागे होऊन आवश्यक कार्य करतात व नंतर परमेश्वराचे ध्यान करतात ती बुद्धिमान व धार्मिक असतात. जे स्त्री-पुरुष परमेश्वराचे ध्यान करून प्रेमाने आपापसात बोलतात. त्यांना अनेक प्रकारचे सुख प्राप्त होते. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The mortals who saw the bright and blazing dawn saw the light and passed away. By us too the lovely and shining dawn has been seen for the light. And those too who would see the light of life in the dawns that would follow, would go but with the light of life. (Life and light thus go together continuously in succession in the continuum that existence is.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those mortals who behold the pristine Ushas (dawn) awakening from sleep enjoy happiness with us. The dawn that is visible to us, is giver of delight. Those who will behold the dawn in future times will also attain happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (व्युच्छन्तीम्) निद्रां विवासयन्तीम् = Awakening from sleep.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who get up early in the morning before the appearance of the dawn and after daily oblations meditate on God, become wise and righteous. Those husbands and wives who talk with each other lovingly after meditating on God, enjoy happiness of various kinds.

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