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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 113 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 113/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - उषाः द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    जि॒ह्म॒श्ये॒३॒॑चरि॑तवे म॒घोन्या॑भो॒गय॑ इ॒ष्टये॑ रा॒य उ॑ त्वम्। द॒भ्रं पश्य॑द्भ्य उर्वि॒या वि॒चक्ष॑ उ॒षा अ॑जीग॒र्भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जि॒ह्म॒ऽश्ये॑ । चरि॑तवे । म॒घोनी॑ । आ॒ऽभो॒गये॑ । इ॒ष्टये॑ । रा॒ये । ऊँ॒ इति॑ । त्वम् । द॒भ्रम् । पश्य॑त्ऽभ्यः । उ॒र्वि॒या । वि॒ऽचक्षे॑ । उ॒षाः । अ॒जी॒गः॒ । भुव॑नानि । विश्वा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जिह्मश्ये३चरितवे मघोन्याभोगय इष्टये राय उ त्वम्। दभ्रं पश्यद्भ्य उर्विया विचक्ष उषा अजीगर्भुवनानि विश्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जिह्मऽश्ये। चरितवे। मघोनी। आऽभोगये। इष्टये। राये। ऊँ इति। त्वम्। दभ्रम्। पश्यत्ऽभ्यः। उर्विया। विऽचक्षे। उषाः। अजीगः। भुवनानि। विश्वा ॥ १.११३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 113; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे विद्वँस्त्वं योर्विया मघोन्युषा विश्वा भुवनान्यजीगः जिह्मश्ये चरितवे विचक्ष आभोगय इष्टये राये धनानि पश्यद्भ्यो दभ्रसु ह्रस्वमपि वस्तु प्रकाशयति तां विजानीहि ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (जिह्मश्ये) जिह्मः शेते स जिह्मशीस्तस्मै शयने वक्रत्वं प्राप्ताय जनाय। जहातेः सन्वदाकारलोपश्च। उ० १। १४१। अनेनायं सिद्धः। जिह्मं जिहीतेरूर्ध्व उच्छ्रितो भवति। निरु० ८। १५। (चरितवे) चरितुं व्यवहर्त्तुम् (मघोनी) प्रशस्तानि मघानि धनानि प्राप्तानि यस्यां सा (आभोगये) समन्ताद्भुञ्जते सुखानि यस्यां तस्यै पुरुषार्थयुक्तायै। अत्र बहुलवचनादौणादिको घिः प्रत्ययः। (इष्टये) यजन्ति सङ्गच्छन्ते यस्मिन् यज्ञे तस्मै। अत्र बाहुलकादौणादिकस्तिः प्रत्ययः किच्च। (राये) राज्यश्रिये (उ) अपि (त्वम्) पुरुषार्थी (दभ्रम्) ह्रस्वं वस्तु। दभ्रमिति ह्रस्वनामसु पठितम्। नि० ३। २। (पश्यद्भ्यः) संप्रेक्षमाणेभ्यः (उर्विया) बहुरूपा (विचक्षे) विविधप्रकटत्वाय (उषा) दाहारम्भनिमित्ता (अजीगः०) इति पूर्ववत् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या रजन्याश्चतुर्थे यामे जागरित्वा शयनपर्यन्तव्यर्थं समयं न गमयन्ति त एव सुखिनो भवन्ति नेतरे ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! (त्वम्) तू जो (उर्विया) अनेक रूपयुक्त (मघोनी) अधिक धन प्राप्त करानेहारी (उषाः) प्रातर्वेला (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों को (अजीगः) निगलती (जिह्मश्ये) वा जो टेढ़े सोने अर्थात् सोने में टेढ़ापन को प्राप्त हुए जन (के) लिये वा (चरितवे) विचरने को (विचक्षे) विविध प्रकटता के लिये (आभोगये) सब ओर से सुख के भोग जिसमें हों उस पुरुषार्थ से युक्त क्रिया के लिये (इष्टये) वा जिसमें मिलते हैं उस यज्ञ के लिये वा (राये) धनों के लिये वा (पश्यद्भ्यः) देखते हुए मनुष्यों के लिये (दभ्रम्) छोटे से (उ) भी वस्तु को प्रकाश करती है, उस उषा को जान ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य रात्री के चौथे प्रहर में जागकर शयन पर्य्यन्त व्यर्थ समय को नहीं जाने देते, वे ही सुखी होते हैं, अन्य नहीं ॥ ५ ॥

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    विषय

    मघोनी ऊषा का आगमन

    पदार्थ

    १. यह (मघोनी) = ऐश्वर्यवाली उषा (जिह्मश्ये) = [जिह्मं वक्त्रं शयानाय - सा०] कुछ मुड़ तुड़कर सोये हुए मनुष्य के लिए (चरितवे) = स्वापेक्षित वस्तु के प्रति जाने के लिए होती है । (त्वं आभोगये) = किसी एक [त्व - एक] के प्रति शब्दादि विषयों के भोग के लिए होती है , (इष्टये) = किसी दूसरे के प्रति यह यज्ञ के लिए होती है (उ) = और किसी अन्य के लिए (राये) = यह ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए होती है । इस उषा में जागकर कोई भोगों की ओर झुकता है , कोई यज्ञों की ओर और कोई धनों की ओर । २. रात्रि के अन्धकार में (दभ्रम्) = बहुत ही अल्प (पश्यद्भ्यः) = देखनेवालों के लिए यह (उर्विया) = खुब विस्तार से (विचक्षे) = विशिष्ट प्रकाश व दर्शन के लिए होती है । रात्रि के अन्धकार में दृष्टि कुछ ही पगों तक जाती थी , अब उषा होने पर इस उषा के प्रकाश में दृष्टि दूर तक जाती है और ऐसा प्रतीत होता है कि उषा ने उन (विश्वा भुवनानि) = सब भुवनों को फिर से (अजीगः) = उद्गीर्ण कर दिया है , जिन्हें रात्रि का अन्धकार निगल गया था ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उषा आती है और सभी को अपने - अपने कर्मों में प्रवृत्त करती है , कोई भोग भोगने में लगता है , कोई यज्ञ में और कोई धन - प्राप्ति के कार्यों में ।

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    विषय

    उषा के दृष्टान्त से नववधू, गृहपत्नी, और विदुषी स्त्री के कर्तव्यों का उपदेश ।

    भावार्थ

    ( उषा ) सब पापों को भस्म कर देने वाली (मघोनी) उषा किसी पुरुष को ( जिम्हश्ये ) टेढ़े मेढ़े सोने के लिये (चरितवे) और किसी को उठकर काम पर जाने के लिये और किसी को (आभोगये) सब प्रकार के भोग सुखों को प्राप्त करने और किसी को ( इष्टये ) यज्ञ दान करने के लिये और ( त्वं उ राये ) किसी को धन प्राप्त करने के लिये और ( दभ्रं ) अति सूक्ष्म पदार्थों या सूक्ष्म तत्व को या भीतरी दहराकाश को देखने वाले अध्यात्म साधकों को ( उर्विया ) उस महान् परमेश्वर का ( विचक्षे ) विशेष रूप से साक्षात् कराने के लिये ( विश्वा भुवना ) समस्त लोकों को ( अजीगः ) प्रकट करती है । इति प्रथमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ १-२० उषा देवता । द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि॥ छन्दः– १, ३, ९, १२, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । ७, १८—२० विराट् त्रिष्टुप्। २, ५ स्वराट् पंक्तिः। ४, ८, १०, ११, १५, १६ भुरिक् पंक्तिः। १३, १४ निचृत्पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे रात्री चौथ्या प्रहरी जागे होऊन झोपेपर्यंत व्यर्थ काळ घालवित नाहीत तीच सुखी होतात. इतर नाही. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O dawn, lady light of wealth and beauty, inspiring, vast and bright, for the lazy loon oversleeping or the squint eyed one, for moving around, for enjoyment of living, for the attainment of desire and yajna, for the achievement of wealth, for the weak-eyed one, and for the revelation of things on earth, you shine and wake up the worlds of existence into light, beauty and activity, revealing even the tiny things.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The dawn that is full of the wealth of wisdom (through meditation) many-formed arouses to exertion the man bowed in sleep-one man to enjoyment of happiness, one to the performance of Yajna where all are united, another for the prosperity of the State or acquirement of wealth, she has enabled those who were almost sightless (on account of dark) to see distinctly. The Ushas has awakened the whole world and illuminated it. You must know well the nature of this dawn.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (जिह्यश्ये) जिह्यः शेते स जिह्यशयितः तस्मै शयने वक्रत्वं प्राप्ताय जनाय । जहाते: सन् वदाकारलोपश्च (उणा० १.१४० ) अनेनायं सिद्धः । = One bowed down in sleep. (मघोनी) प्रशस्तानि मघानि धनानि प्राप्तानि यस्यां सा । = Full of the wealth of wisdom (through meditation) (दभ्रम् ह्रस्वं वस्तु । दभ्रमितिहस्वनामसु पठितम् । (निघ० ३.२ )

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Only those men and women who get up early in the morning at the time of the dawn (in the last part of the night) and having got up do not waste their time till they go to bed, enjoy happiness and not others.

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