ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 113/ मन्त्र 16
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - उषाः द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
उदी॑र्ध्वं जी॒वो असु॑र्न॒ आगा॒दप॒ प्रागा॒त्तम॒ आ ज्योति॑रेति। आरै॒क्पन्थां॒ यात॑वे॒ सूर्या॒याग॑न्म॒ यत्र॑ प्रति॒रन्त॒ आयु॑: ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ई॒र्ध्व॒म् । जी॒वः । असुः॑ । नः॒ । आ । अ॒गा॒त् । अप॑ । प्र । अ॒गा॒त् । तमः॑ । आ । ज्योतिः॑ । ए॒ति॒ । अरै॑क् । पन्था॑म् । यात॑वे । सूर्या॑य । अग॑न्म । यत्र॑ । प्र॒ऽति॒रन्ते॑ । आयुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदीर्ध्वं जीवो असुर्न आगादप प्रागात्तम आ ज्योतिरेति। आरैक्पन्थां यातवे सूर्यायागन्म यत्र प्रतिरन्त आयु: ॥
स्वर रहित पद पाठउत्। ईर्ध्वम्। जीवः। असुः। नः। आ। अगात्। अप। प्र। अगात्। तमः। आ। ज्योतिः। एति। अरैक्। पन्थाम्। यातवे। सूर्याय। अगन्म। यत्र। प्रऽतिरन्ते। आयुः ॥ १.११३.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 113; मन्त्र » 16
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यस्या उषसः सकाशान् नोऽस्माञ्जीवोसुरागाज्ज्योतिः प्रागात्तमोपैति यातवे पन्थामरैक् तथा यतो वयं सूर्यायागन्म प्राणिनो यत्रायुः प्रतिरन्ते तां विदित्वोदीर्ध्वम् ॥ १६ ॥
पदार्थः
(उत्) ऊर्ध्वम् (ईर्ध्वम्) कम्पध्वम् (जीवः) इच्छादिगुणविशिष्टः (असुः) प्राणः (नः) अस्मान् (आ) (अगात्) आगच्छति (अप) (प्र) (अगात्) गच्छति (तमः) तिमिरम् (एति) प्राप्नोति (अरैक्) न्यतिरिणक्ति (पन्थाम्) पन्थानम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति न लोपः। (यातवे) यातुम् (सूर्याय) सूर्यम्। गत्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतुर्थ्यौ०। (अगन्म) गच्छामः (यत्र) (प्रतिरन्ते) प्रकृष्टतया तरन्ति उल्लङ्घयन्ति (आयुः) जीवनम् ॥ १६ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। प्रातःकालीनोषाः सर्वान् प्राणिनो जागरयति अन्धकारं च निवर्त्तयति। यथेयं सायंकालस्था सर्वान् कार्येभ्यो निवर्त्य स्वापयति मातृवत् सर्वान् व्यवहारयति तथैव सती विदुषी स्त्री भवति ॥ १६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जिस उषा की उत्तेजना से (नः) हम लोगों का (जीवः) जीवन का धर्त्ता इच्छादि गुणयुक्त (असुः) प्राण (आ, अगात्) सब ओर से प्राप्त होता, (ज्योतिः) प्रकाश (प्र, अगात्) प्राप्त होता, (तमः) रात्रि (अप, एति) दूर हो जाती और (यातवे) जाने-आने को (पन्थाम्) मार्ग (अरैक्) अलग प्रकट होता, जिससे हम लोग (सूर्य्याय) सूर्य को (आ, अगन्) अच्छे प्रकार होते तथा (यत्र) जिसमें प्राणी (आयुः) जीवन को (प्रतिरन्ते) प्राप्त होकर आनन्द से बिताते हैं, उसको जानकर (उदीर्ध्वम्) पुरुषार्थ करने में चेष्टा किया करो ॥ १६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे यह प्रातःकाल की उषा सब प्राणियों को जगाती, अन्धकार को निवृत्त करती है। और जैसे सांयकाल की उषा सबको कार्य्यों से निवृत्त करके सुलाती है अर्थात् माता के समान सब जीवों को अच्छे प्रकार पालन कर व्यवहार में नियुक्त कर देती है, वैसे ही सज्जन विदुषी स्त्री होती है ॥ १६ ॥
विषय
जीवः जीवन देनेवाला प्राणदायी तत्त्व असुः
पदार्थ
१. हे रात्रि में सोनेवाले पुरुषो ! (उत् ईर्ध्वम्) = उठो और बिस्तरों को छोड़कर गतिशील होओ । यह उषा क्या आयी है , (नः) = हमारे लिए (जीवः असुः) = जीवन देनेवाला प्राणदायी तत्त्व ही (आगात्) = आ गया है । उषा की किरणों में पोषण के लिए आवश्यक सब तत्व विद्यमान हैं । (तमः अप प्रागात्) = अन्धकार दूर चला गया है और (आ) = चारों ओर (ज्योतिः एति) = अब प्रकाश आ रहा है । २. यह उषा भी (सूर्याय यातवे) = सूर्य की गति के लिए (पन्थाम्) = मार्ग को (आरैक्) = खाली करती है । उषा - हटती है और सूर्य उसका स्थान लेता है । हम भी (अगन्म) = उस सूर्य की किरणों में चलने का प्रयत्न करें । यथासम्भव सूर्य के प्रकाश में दिन के कार्यों को करें , (यत्र) = जहाँ (आयुः प्रतरन्त) = लोग अपने आयुष्य को बढ़ानेवाले होते हैं । सूर्य के सम्पर्क में रोग का उद्भव नहीं होता , शरीर स्वस्थ व दीर्घजीवी बने रहते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - उषा क्या आती है , जीवन देनेवाली प्राणशक्ति ही आ जाती है । इसके बाद सूर्य आता है , जो हमारे आयुष्य का वर्धन करनेवाला होता है ।
विषय
उषा के दृष्टान्त से नववधू, गृहपत्नी, और विदुषी स्त्री के कर्तव्यों का उपदेश ।
भावार्थ
हे मनुष्यों! आप लोग ( उत् ईर्ध्वंम् ) उठो ! उन्नति मार्ग पर चलो ! आलस्य छोड़ कर उठ जाओ। प्रभात काल में ( नः ) हमें ( असुः जीवः ) शरीर का संचालन करने वाला जीवात्मा ( आगात् ) आता है वह पुनः सोने के बाद जागृत रूप में प्रकट होता है । ( तमः ) अन्धकार, मोह ( अपगात् ) दूर हटता है और ( ज्योतिः ) प्रकाशमान् सूर्य ( आ एति ) आगे बढ़ा चला आता है । वह उषा ( सूर्याय) सूर्य के ( यातवे ) गमन करने के लिये ( पन्थाम् आरैक् ) मार्ग छोड़ती जाती हैं। हम भी ( अगन्म ) उसे प्राप्त हों ( यत्र ) जहां विद्वान् जन ( आयुः प्रतिरन्त ) जीवन की वृद्धि करते हैं । अथवा हम भी ( सूर्याय अगन्म ) उस सूर्य को प्राप्त करें ( यत्र ) जिसके आश्रय होकर प्राणी गण ( आयुः प्रतिरन्त ) समस्त जीवन सुख से व्यतीत करते हैं। इसमें उपासक के अध्यात्म ज्योति के उदय का भी वर्णन है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ १-२० उषा देवता । द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि॥ छन्दः– १, ३, ९, १२, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । ७, १८—२० विराट् त्रिष्टुप्। २, ५ स्वराट् पंक्तिः। ४, ८, १०, ११, १५, १६ भुरिक् पंक्तिः। १३, १४ निचृत्पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी ही प्रातःकाळची उषा सर्व प्राण्यांना जागविते, अंधकार नाहीसा करते व जशी संध्याकाळची वेला सर्वांना कार्यांपासून निवृत्त करून झोपविते. अर्थात मातेप्रमाणे सर्व जीवांचे चांगल्या प्रकारे पालन करून व्यवहारात नियुक्त करते तशी सत्त्वगुणी विदुषी स्त्री असते. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Awake ye all who sleep, arise ye all who wake, life has come, and the energy of life-prana flows for all. Darkness is gone. Light has come, having cleared the path for the sun to rise and move. Let us reach there, enjoy life and elevate life and ourselves.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! arise; inspiring life revives, darkness hash departed. Ushas has opened the road for the sun to travel. Let us go to that state where men increase their vitality of lives. You should know thoroughly the nature of the dawn and be fully awake.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The dawn of the morning awakens all living beings and dispels darkness. The dawn in the evening makes men retire from active works and leads to sleep. She guards all like the mother. So should a chaste and learned lady behave.
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