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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 113 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 113/ मन्त्र 12
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - उषाः द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    या॒व॒यद्द्वे॑षा ऋत॒पा ऋ॑ते॒जाः सु॑म्ना॒वरी॑ सू॒नृता॑ ई॒रय॑न्ती। सु॒म॒ङ्ग॒लीर्बिभ्र॑ती दे॒ववी॑तिमि॒हाद्योष॒: श्रेष्ठ॑तमा॒ व्यु॑च्छ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या॒व॒यत्ऽद्वे॑षाः । ऋ॒त॒ऽपाः । ऋ॒ते॒ऽजाः । सु॒म्न॒ऽवरी॑ । सू॒नृताः॑ । ई॒रय॑न्ती । सु॒ऽम॒ङ्ग॒लीः । बिभ्र॑ती । दे॒वऽवी॑तिम् । इ॒ह । अ॒द्य । उ॒षः॒ । श्रेष्ठ॑ऽतमा । वि । उ॒च्छ॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यावयद्द्वेषा ऋतपा ऋतेजाः सुम्नावरी सूनृता ईरयन्ती। सुमङ्गलीर्बिभ्रती देववीतिमिहाद्योष: श्रेष्ठतमा व्युच्छ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यावयत्ऽद्वेषाः। ऋतऽपाः। ऋतेऽजाः। सुम्नऽवरी। सूनृताः। ईरयन्ती। सुऽमङ्गलीः। बिभ्रती। देवऽवीतिम्। इह। अद्य। उषः। श्रेष्ठऽतमा। वि। उच्छ ॥ १.११३.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 113; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरुषःप्रसङ्गेन स्त्रीविषयमाह ।

    अन्वयः

    हे उषरुषर्वद्यावयद्द्वेषा ऋतपाः ऋतेजाः सुम्नावरी सुमङ्गलीः सूनृताः ईरयन्ती श्रेष्ठतमा देववीतिं बिभ्रती त्वमिहाद्य व्युच्छ ॥ १२ ॥

    पदार्थः

    (यावयद्द्वेषाः) यवयन्ति दूरीकृतानि द्वेषांस्यप्रियकर्माणि यया सा (ऋतपाः) सत्यपालिका (ऋतेजाः) सत्ये प्रादुर्भूता (सुम्नावरी) सुम्नानि प्रशस्तानि सुखानि विद्यन्ते यस्यां सा (सूनृताः) वेदादिसत्यशास्त्रसिद्धान्तवाचः (ईरयन्ती) सद्यः प्रेरयन्ती (सुमङ्गलीः) शोभनानि मङ्गलानि यासु ताः (देववीतिम्) विदुषां वीतिं विशिष्टां नीतिम् (इह) (अद्य) (उषः) उषर्वद् वर्त्तमाने विदुषि (श्रेष्ठतमा) अतिशयेन प्रशंसिता (न) (उच्छ) दुःखं विवासय ॥ १२ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथोषास्तमो विवार्य प्रकाशं प्रादुर्भाव्य धार्मिकान् सुखयित्वा चोरादीन् पीडयित्वा सर्वान् प्राणिन आह्लादयति तथैव विद्याधर्मप्रकाशवत्यः शमादिगुणान्विता विदुष्यस्सत्स्त्रियः स्वपतिभ्योऽपत्यानि कृत्वा सुशिक्षया विद्यान्धकारं निवार्य्य विद्यार्कं प्रापय्य कुलं सुभूषयेयुः ॥ १२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उषा के प्रसङ्ग से स्त्रीविषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (उषः) उषा के वर्त्तमान विदुषी स्त्रि ! (यावयद्द्वेषाः) जिसने द्वेषयुक्त कर्म दूर किये (ऋतपाः) सत्य की रक्षक (ऋतेजाः) सत्य व्यवहार में प्रसिद्ध (सुम्नावरी) जिसमें प्रशंसित सुख विद्यमान वा (सुमङ्गलीः) जिसमें सुन्दर मङ्गल होते उन (सूनृताः) वेदादि सत्यशास्त्रों की सिद्धान्तवाणियों को (ईरयन्ती) शीघ्र प्रेरणा करती हुई (श्रेष्ठतमा) अतिशय उत्तम गुण, कर्म और स्वभाव से युक्त (देववीतिम्) विद्वानों की विशेष नीति को (बिभ्रती) धारण करती हुई तूं (इह) यहाँ (अद्य) आज (व्युच्छ) दुःख को दूर कर ॥ १२ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रभात वेला अन्धकार का निवारण, प्रकाश का प्रादुर्भाव करा, धार्मिकों को सुखी और चोरादि को पीड़ित करके सब प्राणियों को आनन्दित करती है, वैसे ही विद्या, धर्म, प्रकाशवती शमादि गुणों से युक्त, विदुषी, उत्तम स्त्री अपने पतियों से सन्तानोत्पत्ति करके अच्छी शिक्षा से अविद्यान्धकार को छुड़ा विद्यारूप सूर्य को प्राप्त करा कुल को सुभूषित करें ॥ १२ ॥

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    विषय

    श्रेष्ठतमा उषा

    पदार्थ

    १. यह उषा (यावयत् द्वेषाः) = सब प्रकार के द्वेषों को हमसे पृथक् करनेवाली है । शान्त उषाकाल की प्रेरणा हमें शान्ति का पाठ पढ़ाती है - द्वेष की वृत्तियाँ हमसे दूर होती हैं । (ऋतपाः) = यह ऋत का पालन करनेवाली है । उषा हमारे जीवनों में ऋत का रक्षण करती है । वस्तुतः (ऋतेजाः) = इसका तो प्रादुर्भाव ही ऋत के लिए हुआ है । उषा होने पर ऋत , अर्थात् यज्ञों का प्रवर्तन होता है । २. (सुम्नावरी) = यह उषा (सुम्नो) = प्रभु के स्तोत्रों - [Hymns] - वाली है । इस समय ही प्रभुभक्तों के मुखों से प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण होता है । (सूनृताः ईरयन्ती) = यह सूनृत वाणियों को प्रेरित करती हुई उषा (सुमङ्गली) = उत्तम मङ्गलवाणियों का ही हमसे उच्चारण कराती है । ३. हे (उषः) = उषा (देववीतिम्) = देवों के प्रति गमन को [वी गतौ] , अर्थात् देवों के साथ सम्पर्क को (बिभ्रती) = धारण करती हुई तू (इह) = हमारे जीवनों में (अद्य) = आज (श्रेष्ठतमा) = अत्यन्त प्रशस्त रूपवाली होकर (व्युच्छ) = उदित हो - अन्धकार को दूर करनेवाली हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उषा हमें “निर्द्वेषता , ऋत के पालन , प्रभु - स्तवन , सुनृता - सुमङ्गली वाणियों के उच्चारण तथा देव - सम्पर्क” की प्रेरणा देनेवाली हो । इस प्रकार यह हमारे लिए श्रेष्ठतमा हो ।

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    विषय

    उषा के दृष्टान्त से नववधू, गृहपत्नी, और विदुषी स्त्री के कर्तव्यों का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे ( उषः ) प्रभात वेला के समान तेज और कान्ति को धारण करनेवाली उत्तम स्त्रि ! तू ( यावयद्-द्वेषाः ) समस्त अप्रीतिकारक, द्वेषोत्पादक कर्मों को दूर करती हुई, ( ऋतपाः ) सत्य व्यवहार का पालन करने वाली, ( ऋतेजाः ) सत्य व्यवहार, ज्ञान, यज्ञ, अन्न और ऐश्वर्य के निमित्त गुणों में विख्यात होने वाली, ( सुम्नावरी ) उत्तम सुखों को देने वाली और ( सूनृता ) उत्तम शुभ वाणियों को ( ईरयन्ती ) उच्चारण करती हुईं, ( देव-वीतिम् ) विद्वानों की उपदिष्ट विशेष नीति या कान्ति या धारण करने योग्य यज्ञोपवीत आदि चिह्न को ( बिभ्रती ) धारण करती हुई ( इह अद्य ) यहां, इस गृह में आज ( श्रेष्ठतमा ) सब से उत्तम स्त्री होकर (वि-उच्छ) प्रकट हो । विवाहादि में कन्या ‘सुमङ्गली’ होती है। वह गोभिल के अनुसार यज्ञोपवीतिनी होती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ १-२० उषा देवता । द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि॥ छन्दः– १, ३, ९, १२, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । ७, १८—२० विराट् त्रिष्टुप्। २, ५ स्वराट् पंक्तिः। ४, ८, १०, ११, १५, १६ भुरिक् पंक्तिः। १३, १४ निचृत्पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी प्रभात वेळा अंधःकाराचे निवारण करून प्रकाशाचा प्रादुर्भाव करते. धार्मिक लोकांना सुखी करून चोरांना त्रस्त करून सर्व प्राण्यांना आनंदित करते तसेच विद्या, धर्म प्रकाशयुक्त, शम इत्यादी गुणांनी युक्त, विदुषी स्त्रियांनी आपल्या पतींकडून संतानोत्त्पत्ती करून उत्तम शिक्षणाने अविद्यांधकार नाहीसा करून विद्यारूपी सूर्य प्राप्त करून कुल सुशोभित करावे. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Dawn, warding off the jealous, guardian of divine truth and yajna, born of divine truth and cosmic yajna, harbinger of peace and comfort, high-priestess of truth, inspiring and exciting, messenger of felicity, bearing joy and prosperity fit for divinity, arise and come, best and highest of lights, shine, inspire and bless us all with freshness.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of a good lady are taught by the illustration of the dawn in the 12th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned lady shining like the dawn, you who are remover of all hostility and animosity, guardian of truth, manifested in truth, giver of happiness, most auspicious, utterer of the true and pleasant words of the teachings of the Vedas, most excellent bearing the policy or good conduct of scholars destroy all miseries to-day.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (यवायद् द्वेषाः) यावयन्तिदूरिकृतानि द्वेस्षान्सि-अप्रियकर्माणि यया सा = Who has removed all hostile acts and animosity. (देववीतिम्) विदुषाम विर्ति विशिष्टांनितिम् । = The good policy of learned persons.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the dawn gladdens all living beings by dispelling darkness, by manifesting light. giving delight to all righteous persons and pain to thieves and other wicked persons, in the same manner, noble learned wives full of the light of Vidya (Knowledge) and Dharma (righteousness) and endowed with peace and other Virtues give birth to good children by Union with the husbands and adorn their family by dispelling the darkness of ignorance with the spread of good education and by causing the rise of the sun of knowledge.

    Translator's Notes

    Shri Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and other translators have taken the word उषा: (Ushas) only in the sense of the dawn, while as Rishi Dayananda Sarasvati has taken it in the sense of a learned lady like the dawn who dispels darkness of ignorance and gives happiness to her husband and others. The adjectives used in this and other mantras like यावयद् द्वेषाः, ऋतपा, ऋतेजा: सूनृता ईरयन्ती, सुमङ्गली: etc. bear out his interpretation. They are not applicable to the natural dawn and Sayanacharya and others had to give a fat-fetched meaning to these words qualifying the dawn. For instance the word यावयत् द्वेषाः which clearly means-free from or removing hostility or animosity, has been interpreted by Sayanacharya as यावयन्ति अस्मत्तः पृथक् कृतानि द्वेषांसि द्वेष्टृणि राक्षसादिनि यया सा i.e. she who has kept away Rakshasas etc. This is evidently a farfetched interpretation. Prof. Wilson has translated it as "The beings hostile to acts of devotion now withdraw, and has added in the foot note "Rakshasas and other malignant spirits, vanish with the dawn Griffith has translated it as “foe-Chaser". Evil spirits vanish when Dawn appears, translating सुमङ्गली: as सोमङ्गल्योपेता पत्या कदाचिदपि न वियुक्तेत्यर्थ: Wilson translates it as the enjoyer of felicity and Griffith as 'Auspicious'. It is clear that the adjective सुमङ्गली: even as interpreted by Sayanacharya is applicable more to a learned married lady than to the natural dawn. Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation is therefore quite authentic on the Brahmana passages like उषा: पत्नी: (शत० ६. १. ३ ). Shri Kapali Shastri has tried to give a spiritual interpretation to this and other mantras of the hymn taking उषा: to be the Divine Dawn of illumination. He has interpreted सुनृता ईरयन्ती शोभनास्सत्यावाचः प्रेरयन्ती i.e. impelling pleasant and true speech which is better than Sayanacharya's farfetched interpretation as पशु पक्षिमृगादीनां वचांसि ईरयन्ती प्रेरयन्ती उत्पादयन्ती । This adjective is clearly applicable to a learned lady, uttering true and sweet words.

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