ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 113/ मन्त्र 3
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - उषाः द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स॒मा॒नो अध्वा॒ स्वस्रो॑रन॒न्तस्तम॒न्यान्या॑ चरतो दे॒वशि॑ष्टे। न मे॑थेते॒ न त॑स्थतुः सु॒मेके॒ नक्तो॒षासा॒ सम॑नसा॒ विरू॑पे ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मा॒नः । अध्वा॑ । स्वस्रोः॑ । अ॒न॒न्तः । तम् । अ॒न्याऽअ॑न्या । च॒र॒तः॒ । दे॒वशि॑ष्टे॒ इति॑ दे॒वऽशि॑ष्टे । न । मे॒थे॒ते॒ इति॑ । न । त॒स्थ॒तुः॒ । सु॒मेके॒ इति॑ सु॒ऽमेके॑ । नक्तो॒षासा॑ । सऽम॑नसा । विरू॑पे॒ इति॒ विऽरू॑पे ॥
स्वर रहित मन्त्र
समानो अध्वा स्वस्रोरनन्तस्तमन्यान्या चरतो देवशिष्टे। न मेथेते न तस्थतुः सुमेके नक्तोषासा समनसा विरूपे ॥
स्वर रहित पद पाठसमानः। अध्वा। स्वस्रोः। अनन्तः। तम्। अन्याऽअन्या। चरतः। देवशिष्टे इति देवऽशिष्टे। न। मेथेते इति। न। तस्थतुः। सुमेके इति सुऽमेके। नक्तोषासा। सऽमनसा। विरूपे इति विऽरूपे ॥ १.११३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 113; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदेवाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या ययोः स्वस्रोरनन्तः समानोऽध्वास्ति ये देवशिष्टे विरूपे समनसेव वर्त्तमाने सुमेके नक्तोषसा तमन्यान्या चरतस्ते कदाचिन्न मेथेते न च तस्थतुस्ते यूयं यथावज्जानीत ॥ ३ ॥
पदार्थः
(समानः) तुल्यः (अध्वा) मार्गः (स्वस्रोः) भगिनीवद्वर्त्तमानयोः (अनन्तः) अविद्यमानान्त आकाशः (तम्) (अन्यान्या) परस्परं वर्त्तमाने (चरतः) गच्छतः (देवशिष्टे) देवस्य जगदीश्वरस्य शासनं नियमं प्राप्ते (न) (निषेधे) (मेथेते) हिंस्तः (न) (तस्थतुः) तिष्ठतः (सुमेके) नियमे निक्षिप्ते (नक्तोषसा) रात्र्युषसौ (समनसा) समानं मनो विज्ञानं ययोस्ताविव (विरूपे) विरुद्धस्वरूपे ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विरुद्धस्वरूपौ सखायावस्मिन्नमर्यादेऽनन्ताकाशे न्यायाधीशनियमितौ सहैव नित्यं चरतस्तथा रात्र्युषसौ परमेश्वरनियमनियते भूत्वा वर्त्तेते ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जिन (स्वस्रोः) बहिनियों के समान वर्त्ताव रखनेवाली रात्री और प्रभातवेलाओं का (अनन्तः) अर्थात् सीमारहित आकाश (समानः) तुल्य (अध्वा) मार्ग है जो (देवशिष्टे) परमेश्वर के शासन अर्थात् यथावत् नियम को प्राप्त (विरूपे) विरुद्धरूप (समनसा) तथा समान चित्तवाले मित्रों के तुल्य वर्त्तमान (सुमेके) और नियम में छोड़ी हुई (नक्तोषसा) रात्रि और प्रभात वेला (तम्) उस अपने नियम को (अन्यान्या) अलग-अलग (चरतः) प्राप्त होतीं और वे कदाचित् (न) नहीं (मेथेते) नष्ट होतीं और (न, तस्थतुः) न ठहरती हैं, उनको तुम लोग यथावत् जानो ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विरुद्ध स्वरूपवाले मित्र लोग इस निःसीम अनन्त आकाश में न्यायाधीश के नियम के साथ ही नित्य वर्त्तते हैं, वैसे रात्रि और दिन परमेश्वर के नियम से नियत होकर वर्त्तते हैं ॥ ३ ॥
विषय
“विरूप पर समनस्”
पदार्थ
१. उषा और रात्रि परस्पर स्वसा [बहिने] हैं [सु+अस्] । इन दोनों के कारण हमारी स्थिति उत्तम होती है । उषा अद्भुत प्रकाश व ओजोन गैस के प्राचुर्य के द्वारा हमारी स्थिति को अच्छा बनाती है । रात्रि विश्राम देते हुए सब थकावट दूर करती है और हमें फिर से तरोताजा [प्रफुल्ल] कर देती है । इस प्रकार ये दोनों स्वसा हैं । इन (स्वस्रोः) = स्वसाओं का (अध्वा) = मार्ग (समानः) = समान है - दोनों ही अन्तरिक्ष - मार्ग से गति करती हैं । यह मार्ग (अनन्तः) = अनन्त है । कभी इस मार्ग का अन्त आ जाएगा और उषा व रात्रि न होंगी - ऐसी बात नहीं है । (तम्) = उस मार्ग पर (अन्यान्या) = एक - एक करके , बारी - बारी (चरतः) = ये चलती हैं । रात्रि आती है , उसके बाद उषा आती है , फिर रात्रि , फिर उषा और यह क्रम चलता ही रहता है । २. ये रात्रि और उषा (देवशिष्टे) = उस देव के अनुशासन में चल रही हैं । प्रभु के अनुशासन में सारा ब्रह्माण्ड ही चलता है , उषा व रात्रि भी उसी से शिष्ट होकर अपने मार्ग पर चल रही हैं । प्रभु के अनुशासन में चलने के कारण (न मेथेते) = ये टकरा नहीं जाती , किसी की हिंसा का कारण नहीं बनती , (न तस्थतुः) = रुकती भी नहीं । इनकी गति का अवसान नहीं हो जाता । (सु - मेके) = अत्युत्तम निर्माण [Make formation] - वाली ये हैं । हमारे जीवनों का भी ये उत्तम निर्माण करती हैं । ये (नक्तोषासा) = रात्रि व उषा (विरूपे) = भिन्न - भिन्न व विरुद्ध रूपवाली हैं , रात्रि कृष्णा है तो उषा श्वेत्या है , परन्तु विरुद्ध रूपवाली होती हुई भी ये उषा व रात्रि (समनसा) = समान मनवाली हैं । दोनों मिलकर सब प्राणियों के हित में प्रवृत्त होती हैं । इस प्राणिहित के कार्य में ये एक - दूसरे की पूर्ति करनेवाली हैं । एवं रूप में विरुद्ध कार्य में एक ।
भावार्थ
भावार्थ - रात्रि व उषा प्रभु के शासन में चलती हुई रूप में विरुद्ध होती हुई भी कार्य में एक हैं । ये सब प्राणियों के लिए हितकर हैं ।
विषय
उषा के दृष्टान्त से नववधू, गृहपत्नी, और विदुषी स्त्री के कर्तव्यों का उपदेश ।
भावार्थ
( स्वस्रोः ) दो बहनों या दो भाई बहनों के समान एक साथ विचरने वाले ( नक्तोषासा ) दिन और रात्रि दोनों का ( अध्वा ) मार्ग ( समान ) एकसां और ( अनन्त ) अनन्त है । वे दोनों ( देवशिष्टे ) ज्ञानवान् गुरु से अनुशासित दो शिष्यों के समान, राजा से आज्ञा किये दो भृत्यों के समान, देव अर्थात् प्रकाशमान सूर्य से शासित होकर या परमेश्वर के शासन में स्थित होकर ( अन्या-अन्या चरतः ) एक दूसरे के पीछे होकर चलते हैं। वे दोनों ( सुमेके ) सुन्दर अंगों वाले भाई बहनों के समान ( न मेथेते ) परस्पर संग भी नहीं करते, ( न तस्थतुः ) एक स्थान पर ठहरते भी नहीं। वे दोनों ( समनसा ) एक समान चित्त वाले दो मित्रों के समान होकर भी ( विरूपे ) एक दूसरे से भिन्न रूप वाले तमः प्रकाश स्वरूप हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ १-२० उषा देवता । द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि॥ छन्दः– १, ३, ९, १२, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । ७, १८—२० विराट् त्रिष्टुप्। २, ५ स्वराट् पंक्तिः। ४, ८, १०, ११, १५, १६ भुरिक् पंक्तिः। १३, १४ निचृत्पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विरुद्ध स्वरूपाचे व समान चित्ताचे मित्र या अनंत आकाशात न्यायाधीशाच्या नियमानेच सदैव वागतात तसे रात्र व दिवस परमेश्वराच्या नियमात राहून वागतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
One and the same is the path of the two sisters, which is space, endless and infinite, existentially speaking, which they follow one after the other as ordained by the Divine. They neither overlap, nor encroach, nor clash, nor stand still for a moment. Fixed and firm, each on its own, and of harmonious nature are they, although the night and the dawn are of different forms which are apparently contradictory as light and darkness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! You should know accurately the nature of the dawn and night. They are like sisters whose path is un-ending, they travel it alternately guided by the radiant sun, combined in purpose, though of different forms, night and dawn stand in the law of God. They obstruct not each other; neither do they stand still.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(देवशिष्टे) देवस्य जगदीश्वरस्य शासनं नियमं प्राप्ते = As ordered by the laws of God. (सुमेके) नियमे निक्षिप्ते = Controlled.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As two persons who are of contradictory temperaments, behave all friends as restrained and controlled by a dispenser of justice, in the same manner, the night and dawn act as ordained by the laws of God.
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