ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 113/ मन्त्र 15
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - उषाः द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
आ॒वह॑न्ती॒ पोष्या॒ वार्या॑णि चि॒त्रं के॒तुं कृ॑णुते॒ चेकि॑ताना। ई॒युषी॑णामुप॒मा शश्व॑तीनां विभाती॒नां प्र॑थ॒मोषा व्य॑श्वैत् ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽवह॑न्ती । पोष्या॑ । वार्या॑णि । चि॒त्रम् । के॒तुम् । कृ॒णु॒ते॒ । चेकि॑ताना । ई॒युषी॑णाम् । उ॒प॒ऽमा । शश्व॑तीनाम् । वि॒ऽभा॒ती॒नाम् । प्र॒थ॒मा । उ॒षाः । वि । अ॒श्वै॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आवहन्ती पोष्या वार्याणि चित्रं केतुं कृणुते चेकिताना। ईयुषीणामुपमा शश्वतीनां विभातीनां प्रथमोषा व्यश्वैत् ॥
स्वर रहित पद पाठआऽवहन्ती। पोष्या। वार्याणि। चित्रम्। केतुम्। कृणुते। चेकिताना। ईयुषीणाम्। उपऽमा। शश्वतीनाम्। विऽभातीनाम्। प्रथमा। उषाः। वि। अश्वैत् ॥ १.११३.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 113; मन्त्र » 15
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे स्त्रियो यूयं यथोषाः पौष्या वार्य्याण्यावहन्ती चेकिताना चित्रं केतुं कृणुते विभातीनामीयुषीणां शश्वतीनां प्रथमोपमाव्यश्वैत्तथा शुभगुणकर्मसु विचरत ॥ १५ ॥
पदार्थः
(आवहन्ती) प्रापयन्ती (पोष्या) पोषयितुमर्हाणि (वार्य्याणि) वरीतुमर्हाणि धनादीनि (चित्रम्) अद्भुतम् (केतुम्) किरणम् (कृणुते) करोति (चेकिताना) भृशं चेतयन्ती (ईयुषीणाम्) गच्छन्तीनाम् (उपमा) दृष्टान्तः (शश्वतीनाम्) अनादिभूतानां घटिकानाम् (विभातीनाम्) प्रकाशयन्तीनां सूर्य्यकान्तीनाम् (प्रथमा) आदिमा (उषाः) (वि) (अश्वैत्) व्याप्नोति ॥ १५ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यूयं निश्चितं जानीत यथोषसमारभ्य कर्माण्युत्पद्यन्ते तथा स्त्रिय आरभ्य गृहकल्पानि जायन्ते ॥ १५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे स्त्री लोगो ! तुम जैसे (उषाः) प्रातर्वेला (पोष्या) पुष्टि कराने और (वार्याणि) स्वीकार करने योग्य धनादि पदार्थों को (आवहन्ती) प्राप्त कराती और (चेकिताना) अत्यन्त चिताती हुई (चित्रम्) अद्भुत (केतुम्) किरण को (कृणुते) करती अर्थात् प्रकाशित करती है (विभातीनाम्) विशेष कर प्रकाशित करती हुई सूर्य्यकान्तियों और (ईयुषीणाम्) चलती हुई (शश्वतीनाम्) अनादि रूप घड़ियों की (प्रथमा) पहिली (उपमा) दृष्टान्तरूप (व्यश्वैत्) व्याप्त होती है, वैसे ही शुभ गुण कर्मों से (चरत) विचरा करो ॥ १५ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! तुम लोग यह निश्चित जानो कि जैसे प्रातःकाल से आरम्भ करके कर्म उत्पन्न होते हैं, वैसे स्त्रियों के आरम्भ से घर के कर्म हुआ करते हैं ॥ १५ ॥
विषय
पोषक तत्वोंवाली उषा
पदार्थ
१. (उषाः) = उषा (वार्याणि) = वरणीय , उत्कृष्ट चाहने योग्य (पोष्या) = पोषण के लिए उत्तम पदार्थों को (आवहन्ती) = प्राप्त कराती हुई (चित्रं केतुं कृणुते) = अद्भुत प्रकाश करती है । उषा के प्रकाश की सर्वमहान् विचित्रता यही है कि इसमें प्रकाश होते हुए भी सन्ताप नहीं है । यह अपनी अरुण वर्ण की किरणों में प्राणादि सब तत्त्वों को धारण किये हुए आती है । (चेकिताना) यह सब मनुष्यों को ‘प्रज्ञापयन्ती’ चेतना देती हुई आती है । २. (शश्वतीनाम्) = सनातनकाल से (ईयुषीणाम्) = आनेवाली उषाओं की (उपमा) = यह उपमानभूत है । अनादिकाल से आती हुई उषाओं के समान ही यह उषा है । (विभातीनाम् ) = भविष्य में चमकनेवाली उषाओं की (प्रथमा) = यह पहली है । भूतकाल की उषाओं के पीछे , भविष्यत् की उषाओं के आगे विद्यमान यह उषा (व्यश्वैत्) = विशिष्ट रूप से तेज के द्वारा प्रवृद्ध है [श्वि गतिवृद्ध्योः] ।
भावार्थ
भावार्थ - उषा की अरुण किरणों में सब पोषक व प्राणदायी तत्त्व विद्यमान होते हैं । अनादि काल से ये आ रही हैं , अनन्तकाल तक चलती चलेंगी ।
विषय
उषा के दृष्टान्त से नववधू, गृहपत्नी, और विदुषी स्त्री के कर्तव्यों का उपदेश ।
भावार्थ
( उषा ) उषा जिस प्रकार ( पोष्या वार्याणि ) पोषण करने योग्य, वृद्धि करने योग्य और वरने, स्वीकार करने योग्य ऐश्वर्यों को ( आवहन्ती ) लाती हुई ( चेकिताना ) सबको जगाती हुई ( चित्रं ) आश्चर्यजनक ( केतुं ) प्रकाश ( कृणुते ) करती है और वह ( ईयुषीणां शश्वतीनां ) अनादि काल से आने वाली समस्त उषाओं की ( उपमा ) उपमा, अर्थात् उनके समान धर्मों को धारण करती हुई और (विभातीनां) विशेष सूर्य की दीप्ति से युक्त आगामी उषाओं में ( प्रथमा ) प्रथम होकर ( वि अश्वैत् ) व्याप्त होती है उसी प्रकार ( पोष्या वार्याणि आवहन्ती ) पोषण योग्य ऐश्वर्यों, धनों को सब प्रकार से धारण करती हुई ( चेकिताना ) स्वयं ज्ञान लाभ करती हुई ( चित्रं केतुं कृणुते ) आश्चर्यजनक ज्ञान प्रकट करे । वह ( शश्वतीनां ईयुषीणाम् उपमा ) बहुत सी पूर्व काल की, अपने से पूर्व उत्पन्न सञ्चरित्र स्त्रियों के समान उत्तम गुणों को धारण करने वाली, सर्वोपमा योग्य हो और ( विभातीनां प्रथमा ) विशेष विद्या और कान्ति में चमकती हुई स्त्रियों में भी प्रथम, सब से श्रेष्ठ होकर ( वि अश्वैत ) विविध प्रकार से विख्यात हो । इति तृतीयो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ १-२० उषा देवता । द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि॥ छन्दः– १, ३, ९, १२, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । ७, १८—२० विराट् त्रिष्टुप्। २, ५ स्वराट् पंक्तिः। ४, ८, १०, ११, १५, १६ भुरिक् पंक्तिः। १३, १४ निचृत्पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! तुम्ही हे निश्चित जाणा की जसे प्रातःकाळापासून कर्माची सुरुवात होते तशा स्त्रिया प्रातःकाळापासून घरातील कामाचा प्रारंभ करतात. ॥ १५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Bearing and bringing choice nourishments for body, mind and soul, waking those who sleep, lighting the dark, the dawn creates wonderful brilliance. Following upon the heels of the by-gones, first shining of the succeeding lights, measure of the eternal recurrent lights of the dawn, she goes on by her chariot of light drawn not by horses but by sunbeams.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O good ladies ! As the divine Ushas (dawn) lights up with her beams or manifesting attributes coming from the sky all objects in different directions and throws off the gloomy or dark form of the night and awakening (those who sleep) comes in her charming form with purple rays that are like the steeds, so you should also behave.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अंजिभि:) प्रकटीकरणैर्गुणैः = With manifesting attributes. (आतासु) व्याप्तासु दिक्षु आता इति दिङ्नामसु (निघ० १.६ ) = In all directions. (निर्णिजम्) रूपम् निर्णिक् इति रूपनाम (निघ० ३.७ ) = Form. (अश्वैः) व्यापनशीलै: किरणैः = With pervading rays. (रथेन) रमणीयस्वरूपेण = With charming form.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the dawn pervades all directions, so girls should pervade in (be well-versed in) all knowledge. As the dawn shines well in her charming form, so should the girls shine beautifully on account of their good character and sweet temperament etc. As the dawn dispels all darkness and creates light, so they should dispel the darkness of ignorance or folly and should shine on account of their civilized good manners and other virtues.
Translator's Notes
अंजू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु अत्र प्रथमार्थग्रहणम् अशुङ्-व्याप्तौ रथो रंहतेः गतिकर्मणः रममाणोऽस्मिन्तिष्ठतीति (निरुक्ते ९. २.११ ) |
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