ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 113/ मन्त्र 13
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - उषाः द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
शश्व॑त्पु॒रोषा व्यु॑वास दे॒व्यथो॑ अ॒द्येदं व्या॑वो म॒घोनी॑। अथो॒ व्यु॑च्छा॒दुत्त॑राँ॒ अनु॒ द्यून॒जरा॒मृता॑ चरति स्व॒धाभि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठशश्व॑त् । पु॒रा । उ॒षाः । वि । उ॒वा॒स॒ । दे॒वी । अथो॒ इति॑ । अ॒द्य । इ॒दम् । वि । आ॒वः॒ । म॒घोनी॑ । अथो॒ इति॑ । वि । उ॒च्छा॒त् । उत्ऽत॑रान् । अनु॑ । द्यून् । अ॒जरा॑ । अ॒मृता॑ । च॒र॒ति॒ । स्व॒धाभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शश्वत्पुरोषा व्युवास देव्यथो अद्येदं व्यावो मघोनी। अथो व्युच्छादुत्तराँ अनु द्यूनजरामृता चरति स्वधाभि: ॥
स्वर रहित पद पाठशश्वत्। पुरा। उषाः। वि। उवास। देवी। अथो इति। अद्य। इदम्। वि। आवः। मघोनी। अथो इति। वि। उच्छात्। उत्ऽतरान्। अनु। द्यून्। अजरा। अमृता। चरति। स्वधाभिः ॥ १.११३.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 113; मन्त्र » 13
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे स्त्रि त्वं पुरा देवी मघोनी अजरामृतोषा इव उवास अथो यथोषा उत्तराननुद्यूंश्च स्वधाभिः शश्वद्विचरति व्युच्छादद्येदं व्यावस्तथा त्वं भव ॥ १३ ॥
पदार्थः
(शश्वत्) नैरन्तर्य्ये (पुरा) पुरस्तात् (उषाः) (वि) (उवास) वस (देवी) देदीप्यमाना (अथो) आनन्तर्य्ये (अद्य) इदानीम् (इदम्) विश्वम् (वि) (आवः) रक्षति (मघोनि) प्रशस्तधनप्राप्तिनिमित्ता (अथो) (वि) (उच्छात्) विवसेत् (उत्तरान्) आगामिनः (अनु) (द्यून्) दिवसान् (अजरा) वयोहानिरहिता (अमृता) विनाशविरहा (चरति) गच्छति (स्वधाभिः) स्वयं धारितैः पदार्थैः सह ॥ १३ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे स्त्रि यथोषा कारणप्रवाहरूपत्वेन नित्या सती त्रिषु कालेषु प्रकाश्यान् पदार्थान् प्रकाश्य वर्त्तते तथाऽऽत्मत्वेन नित्यस्वरूपा त्वं त्रिकालस्थान् सद्व्यवहारान् विद्यासुशिक्षाभ्यां दीपयित्वा सौभाग्यवती भूत्वा सदा सुखिनी भव ॥ १३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे स्त्रीजन ! (पुरा) प्रथम (देवी) अत्यन्त प्रकाशमान (मघोनी) प्रशंसित धन प्राप्ति करनेवाली (अजरा) पूर्ण युवावस्थायुक्त (अमृता) रोगरहित (उषाः) प्रभात वेला के समान (उवास) वास कर और (अथो) इसके अनन्तर जैसे प्रभात वेला (उत्तरान्) आगे आनेवाले (अनु, द्यून्) दिनों के अनुकूल (स्वधाभिः) अपने आप धारण किये हुए पदार्थों के साथ (शश्वत्) निरन्तर (वि, चरति) विचरती और अन्धकार को (वि, उच्छात्) दूर करती तथा (अद्य) वर्त्तमान दिन में (इदम्) इस जगत् की (व्यावः) विविध प्रकार से रक्षा करती है वैसे तू हो ॥ १३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे स्त्रि ! जैसे प्रभात वेला कारण और प्रवाहरूप से नित्य हुई तीनों कालों में प्रकाश करने योग्य पदार्थों का प्रकाश करके वर्त्तमान रहती है, वैसे आत्मपन से नित्यस्वरूप तू तीनों कालों में स्थित सत्य व्यवहारों को विद्या और सुशिक्षा से प्रकाश करके पुत्र, पौत्र ऐश्वर्यादि सौभाग्ययुक्त होके सदा सुखी हो ॥ १३ ॥
विषय
‘अजरा - अमरा’ उषा
पदार्थ
१. यह (उषाः) = उषा (पुरा) = पहले (शश्वत्) = सनातनकाल से (व्युवास) = [व्यौच्छत् - सा०] अन्धकार का निवारण करती आयी है । अथ (उ) = अब निश्चय से (देवी) = यह प्रकाशमयी उषा (मघोनी) = ऐश्वर्यवाली होती हुई (अद्य) = आज (इदम्) = इस रात्रि के समय अन्धकारावृत जगत् को (व्यावः) = अन्धकार के आवरण से रहित करनेवाली है । (अथ उ) = और निश्चय से (उत्तरान् द्यून्) = आगे आनेवाले दिनों का अनुलक्ष्य करके (व्युच्छात्) = यह अन्धकार को दूर करेगी ही । २. भूत , वर्तमान , भविष्यत् में अन्धकार को दूर करती हुई यह उषा (अजरा - अमृता) = अजर और अमर है । यह कभी जीर्ण नहीं होती , कभी मृत नहीं होती । वस्तुतः यह अपने स्वागत करनेवाले भक्तों को भी स्वास्थ्य व शान्ति प्रदान करती हुई उन्हें जीर्ण व मृत नहीं होने देती । यह उषा (स्वधाभिः) = अपनी धारण - शक्तियों के साथ (चरति) = निरन्तर गति करती है । इसके साथ सम्बद्ध होकर हम भी इन धारण - शक्तियों के द्वारा अपने जीवन को उत्तमता से धारण करनेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - उषा सनातनकाल से प्रकाश व ऐश्वर्य को प्राप्त करा रही है [देवी , मघोनी] । यह हमें अजर व अमर करे , अपनी धारणशक्तियों से हमारा धारण करे ।
विषय
उषा के दृष्टान्त से नववधू, गृहपत्नी, और विदुषी स्त्री के कर्तव्यों का उपदेश ।
भावार्थ
( उषा ) कमनीय गुणों से युक्त पापों को नाश करती हुई उषा के समान ( देवी ) उत्तम गुणों से युक्त स्त्री ( शश्वत् ) निरन्तर ( पुरा ) पहले के समान (वि उवास) विविध गुणों को प्रकट करे और सुख पूर्वक निवास करे, ( अथो ) और वह ( अद्य ) अब भी ( मघोनी ) ऐश्वर्य से युक्त होकर ( इदं वि आवः ) इस लोक को प्रकाशित करे । ( अथो ) और वह ( उत्तरान् द्यून् अनु वि उच्छात् ) आगे आने वाले दिनों भी विशेष गुणों को प्रकाशित करे । और ( अजरा अमृता ) जरा अर्थात् आयु की हानि न करती हुई मृत्यु के दुःखों से रहित होकर आत्मरूप से अपने को अमृत जानती हुई ( स्वधामिः ) स्वयं धारण किये धर्मों, उत्तम पदार्थों तथा ‘स्व’ अर्थात् शरीर को धारण करनेवाले अन्न आदि पदार्थों सहित ( चरति ) जीवन सुख प्राप्त करे । उषा काल रूप से या प्रवाह से अजर, अमृत, नित्य है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ १-२० उषा देवता । द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि॥ छन्दः– १, ३, ९, १२, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । ७, १८—२० विराट् त्रिष्टुप्। २, ५ स्वराट् पंक्तिः। ४, ८, १०, ११, १५, १६ भुरिक् पंक्तिः। १३, १४ निचृत्पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी प्रभात वेळ कारण व प्रवाहरूपाने नित्य असून तिन्ही काळी प्रकाश करण्यायोग्य पदार्थांना प्रकट करीत असते. तशी हे स्त्रिये आत्मीयतेने नित्य स्वरूप तू तिन्ही काळी स्थित राहून सत्य व्यवहार विद्या व सुशिक्षणाने प्रकाश करून पुत्र, पौत्र, ऐश्वर्य इत्यादींनी सौभाग्ययुक्त बनून सदैव सुखी हो. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The bright dawn, ancient and eternal, shines since eternity. Bright and generous mistress of wealth, lights up this world this day and then brightens up the days following till eternity. Unaging and immortal, the dawn moves on and on with its own divine powers and gifts of generosity.
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